अलाउद्दीन खिल्जी: 1296-1316 ई. Alauddin Kilji: 1296-1316 AD.

पितृविहीन अलाउद्दीन खल्जी का पालन पोषण उसके चाचा जलालुद्दीन फिरोज ने किया था। फिरोज अपने इस भतीजे को इतना अधिक प्यार करता था कि उसे अपना दामाद भी बना लिया। दिल्ली के राजसिंहासन पर बैठने के बाद फिरोज ने उसे इलाहाबाद जिले में स्थित कड़ा की जागीर दे दी। यहीं अलाउद्दीन के दिमाग में महत्त्वाकांक्षा के बीज बोये गये। यह भी हो सकता है कि अपनी सास मलिकाजहाँ तथा अपनी पत्नी के षड्यंत्रों से उत्पन्न घरेलू कष्ट से भी उसे दिल्ली दरबार से अलग शक्ति एवं प्रभाव स्थापित करने की प्रेरणा मिली हो। 1292 ई. में मालवा पर एक सफल आक्रमण तथा भिलसा नगर की विजय से, जिसके लिए उसे कड़ा के अतिरिक्त अवध की जागीर भी पुरस्कार के रूप में मिली, उसकी महत्त्वाकांक्षा और भी बढ़ गयी।

भिलसा में अलाउद्दीन ने देवगिरि के राज्य की अपरिमित सम्पत्ति की अस्पष्ट अफवाहें सुनी। यह राज्य पश्चिमी दक्कन (डेकन) में फैला हुआ था। तथा इस पर उस समय यादव वंश का रामचंद्रदेव शासन करता था। अलाउद्दीन ने उसे जीतने की ठानी। अपने इस अभिप्राय को अपने चाचा से गुप्त रख, वह कई हजार अश्वारोहियों को लेकर मध्य भारत एवं विन्ध्य प्रदेश होता हुआ दक्कन की ओर बढ़ा और देवगिरि के सामने पहुंचा। भारत के इस भाग से इस्लाम का सम्पर्क बहुत पहले (अधिक-से-अधिक आठवीं सदी से ही) प्रारंभ हो चुका था। रामचन्द्रदेव ऐसे आक्रमण के लिए तैयार न था। उसका पुत्र शंकरदेव उसकी अधिकतर सेना के साथ दक्षिण की ओर गया हुआ था। इस प्रकार उस पर बहुत असावधानी की हालत में आक्रमण हुआ। एक निष्फल प्रतिरोध के बाद उसकी हार हो गयी। मजबूर होकर उसे आक्रमणकारी के साथ संधि करनी पड़ी, जिसके अनुसार उसे बहुत बड़ी धनराशि देने का वादा करना पड़ा। परन्तु अलाउद्दीन कड़ा लौटने को ही था कि शंकरदेव शीघ्रता से देवगिरि लौट आया तथा अपने पिता के रोकने पर भी वह आक्रमणकारियों से जा भिड़ा। अपने उत्साह के कारण आरम्भ में उसे सफलता मिली, परन्तु वह शीघ्र ही पराजित हो गया। उसकी सेना में सामान्य रूप से भय का संचार हो गया, जिससे उसके अनुचर भारी गड़बड़ी की हालत में विभिन्न दिशाओं में भाग खड़े हुए।

रामचंद्रदेव ने दक्षिण भारत के अन्य शासकों से सहायता मांगी, परन्तु उसका कोई फल न निकला। साथ-साथ उसे खाद्य पदार्थों की बड़ी कमी हो गयी। शान्ति के लिए प्रार्थना करने के सिवा उसके पास और कोई चारा न रह गया। पहले से भी अधिक कठोर शतों पर संधि हुई। अलाउद्दीन सोने, चाँदी, रेशम, मोतियों और बहुमिली पठारों के रूप में लूट का काफी माल लेकर कड़ा लौट गया। खल्जी आक्रमणकारी के इस वीरतापूर्ण आक्रमण से दक्कन की न केवल विशाल आर्थिक क्षति ही हुई बल्कि विन्ध्य-पर्वत के पार के प्रदेशों पर अंतिम मुसलमानी विजय का रास्ता भी खुल गया।

अलाउद्दीन इस सम्पत्ति में हिस्सा बाँटकर दिल्ली के सुल्तान को नहीं देना चाहता था। बल्कि इससे उसकी महत्त्वाकांक्षा का क्षेत्र और भी विस्तीर्ण हो गया। दिल्ली का राजसिंहासन अब उसका लक्ष्य हो गया। बूढ़े सुलतान जलालुद्दीन फिरोज को उसके पदाधिकारियों ने ईमानदारी के साथ सलाह डी। इनमें खासकर सबसे अधिक खरा चाप भी था। फिरोज अपने भतीजे एवं दामाद अलाउद्दीन के स्नेह में अंधा हो कर उसके बिछाये जाल में जा फँसा। अपने दरबार के एक विश्वासघाती के कहने पर वह आत्मरक्षा का आवश्यक प्रबन्ध किये बिना ही शीघ्र अपने प्रिय भतीजे से मिलने, नाव पर कड़ा की ओर चल पड़ा। इसी प्रक्रिया में अलाउद्दीन ने अपने एक अनुचर द्वारा जलालुद्दीन खलजी की हत्या करवा दी। इस प्रकार अपनी और सदा शयता के कारण उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। अलाउद्दीन के अनुगामियों ने उसके पड़ाव में ही 19 जुलाई, 1296 ई. को उसे सुल्तान घोषित कर दिया।

इसके बाद यह आवश्यक हो गया कि अलाउद्दीन अपना पैर दिल्ली में दृढ़ता से जमाये। वहाँ इसी बीच में स्वर्गीय सुल्तान की बेगम मलिका जहाँ ने अपने छोटे पुत्र को रुक्नु इब्राहीम के नाम से राजसिंहासन पर बिठा दिया था। उसका ज्येष्ठ पुत्र अरकली उसके कुछ कामों से असन्तुष्ट होने के कारण, मुलतान में रह गया था। अलाउद्दीन इस कलह के विषय में सुनकर शीघ्रता से भयानक वर्षा में ही दिल्ली की ओर बढ़ चला। कुछ क्षीण प्रतिरोध के पश्चात् तथा अपने विश्वासघाती अनुचरों के द्वारा त्याग दिये जाने पर इब्राहीम ने दिल्ली छोड़ दी और अपनी माँ एवं विश्वासी अहमद चाप को ले मुलतान भाग गया। अलाउद्दीन ने दक्कन से प्राप्त सोना दिल खोलकर बाँटा। इस प्रकार सरदारों, अधिकारियों एवं दिल्लीवासियों को उसने अपने पक्ष में कर लिया। दिल्ली में प्रवेश करने पर 3 अक्तूबर, 1296 ई. को बलबन के लाल महल में उसका राज्याभिषक हुआ। मृत सुल्तान के भगोड़े सम्बन्धियों एवं मित्र मुल्तान में नहीं रह सके। अलाउद्दीन के भाई उलूग खां तथा उसके मंत्री जफर खां ने उन्हें पा लिया। अरकली खाँ तथा इब्राहीम, अपने बहनोई उलगू खाँ मंगोल तथा अहमदचाप के साथ, दिल्ली ले जाते समय अँधे कर दिये गये। अरकली के सभी पुत्र मार डाले गये। उसे तथा उसके भाई को हाँसी के दुर्ग में बन्द कर दिया गया। मलिकाजहाँ तथा अहमद चाप को कठोर नियंत्रण में दिल्ली में ही रखा गया।

अभी भी अलाउद्दीन की स्थिति अनिश्चित थी। उसे तुर्कों की दु:शीलता राजस्थान, मालवा एवं गुजरात के शासकों का विद्रोहपूर्ण रूख, कतिपय सरदारों के षड्यंत्र (ये सरदार उसी का अनुकरण करने का प्रयत्न कर रहे थे।) तथा मंगोल-आक्रमण की आशंका आदि अनेक प्रतिकूल शक्तियों का सामना करना था परन्तु स्वभाव तथा दृष्टिकोण में अपने चाचा से सर्वथा भिन्न रहने के कारण नये सुल्तान ने दुर्जय स्फूर्ति पूर्वक इन बाधाओं के साथ संघर्ष करने की कोशिश की तथा उसके प्रयत्न सफल हुए। लेनपुल के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी के साथ साम्राज्यवादी विस्तार का 50 वर्षीय इतिहास आरंभ होता है।

बहुत समय से मंगोल आक्रमण दिल्ली सरकार के लिए निरन्तर चिन्ता और भय का कारण बने हुए थे। अलाउद्दीन के राजसिंहासन पर बैठने के कुछ ही महीनों के अन्दर मंगोलों के एक विशाल दल ने भारत पर आक्रमण कर दिया, परन्तु जफर ने जालंधर के निकट बुरी तरह संहार कर उन्हें पीछे भगा दिया। सुल्तान के राज्य-कार्य के द्वितीय वर्ष में मंगोल अपने नेता सल्दी के अधीन पुन: उपस्थित हुए। इस बार जफ़र खाँ ने उन्हें हरा दिया तथा उनके नेता को लगभग दो हजार अनुयायियों के साथ बन्दी बनाकर दिल्ली भेज दिया। परन्तु 1299 ई. में कुतलुग ख्वाजा कई हजार मंगोलों को लेकर भारत में घुस आया। इस बार उनका लक्ष्य लूटपाट न होकर विजय था। अत: उन्होंने अपनी राह में पड़ने वाले प्रदेशों को नहीं लूटा और न दुर्गों पर आक्रमण ही किया। वे नगर को घेरने के अभिप्राय से दिल्ली के पड़ोस में पहुँच गये। जिसके फलस्वरूप वहाँ बहुत आतंक फैल गया। जफूर खाँ ने, जो उस युग का रूस्तम और उस समय का वीर था, उन पर उत्साह के साथ आक्रमण किया, परन्तु लड़ते-लड़ते मारा गया। उसके ईर्ष्यालु स्वामी को सन्तोष हुआ कि उसे अपमानित हुए बिना उससे छुटकारा मिल गया। शायद जफ़र खाँ के पराक्रम से भयभीत होकर ही मंगोल शीघ्र लौट पड़े। उन्होंने भारत पर पुन: आक्रमण किया तथा 1304 ई. में वे अलीबेग एवं ख्वाजा ताश के अधीन अमरोहा तक बढ़ आये। किन्तु अत्याधिक क्षति के साथ उन्हें पीछे हटा दिया गया। उसके शासनकाल का अन्तिम मंगोल आक्रमण 1307-1308 ई. में हुआ। इस बार इकबालमंद नामक एक सरदार सेना लेकर सिन्धु के पार चला आया। परन्तु वह भी हार गया तथा मार डाला गया। बहुत-से मंगोल सेनापति पकड़कर मार डाले गये। अपने सभी आक्रमणों में बार-बार असफल होने से हतोत्साह हो तथा दिल्ली के सुल्तान की कठोर कार्यवाहियों से भयभीत होकर उसके शासनकाल में मंगोल भारत में फिर उपस्थित नहीं हुए। फलत: उत्तर-पश्चिम सीमा एवं दिल्ली के लोगों ने अब चैन की साँस ली।


मंगोलों को हटाने के अतिरिक्त सुल्तान ने, बलबन की तरह, अपने राज्य को उत्तर पश्चिम सीमा का उत्तम रीति से संरक्षण करने के लिए कुछ प्रतिरक्षात्मक उपाय भी किये। उसने मंगोलों की राह में पड़ने वाले पुराने दुगों की मरम्मत करवायी तथा नये दुर्गों का निर्माण करवाया। उत्तम सुरक्षा के लिए समाना तथा दीपालपुर की सुदूरवर्ती चौकियों में रखवाली करने वाली सेनाएँ रखीं, जो युद्ध के लिए सर्वदा तैयार रहती थीं। राजकीय सेना को मजबूत बनाया गया। गाजी मलिक ने (आगे चलकर ग्यासुद्दीन तुगलक के नाम से प्रसिद्ध), जिस पर 1305 ई. से पंजाब के शासक के रूप में सीमा की प्रतिरक्षा का भार था, करीब पचीस वर्षों तक योग्यता पूर्वक मंगोलों को रोक रखा।

अलाउद्दीन दिल्ली के निकट बसे हुए नव-मुस्लिमों (नये मुसलमान) के साथ भी कठोरता से पेश आया। वे असन्तुष्ट एवं व्यग्र थे, क्योंकि अपनी अधिवास-भूमि में उनको पद प्राप्त करने अथवा अन्य लाभों की उच्चाकांक्षाएँ पूरी नहीं हुई। और जब अलाउद्दीन की सेना गुजरात विजय कर लौट रही थी, तब वे वस्तुतः विद्रोह कर उठे। सुल्तान ने सभी नव-मुस्लिमों (नये मुसलमानों) को अपनी नौकरी से भी अलग कर दिया। इससे उनका असन्तोष और भी बढ़ गया। निराश होकर उन्होंने सुल्तान की हत्या के लिए षड्यंत्र रचे। परन्तु शीघ्र इस षड्यंत्र का पता चल गया और सुल्तान ने, उन सबका पूर्ण संहार कर डालने की आज्ञा दे कर उनसे भयंकर प्रतिशोध लिया। इस तरह एक ही दिन में बीस से तीस हजार के बीच नव-मुस्लिम (नये मुसलमान) निर्दयता पूर्वक कत्ल कर दिये गये।

अलाउद्दीन को अपने शासन-काल के प्रारम्भिक वर्षों में बराबर सफलता मिलती गयी, इससे उसका दिमाग ही फिर गया। वह अत्यन्त असम्भव योजनाएँ बनाने लगा तथा बिल्कुल बे-सिर-पैर की इच्छाएँ सँजोने लगा। वह एक नया धर्म स्थापित करना चाहने लगा। विश्वविजेता के रूप में वह सिकन्दर महान् का अनुकरण करने की इच्छा भी रखने लगा। इन योजनाओं में उसने काजी अलाउल्मुल्क (इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी के चाचा) से परामर्श लिया। अलाउल्मुल्क पहले कडा में उसका प्रतिनिधि था तथा उस समय दिल्ली का कोतवाल था। उसने तुरन्त ही उसे उसकी योजनाओं की असारता को बतला दिया। पहली योजना के विषय में काजी अलाउल्मुलक ने कहा कि जब तक संसार कायम है, धर्म प्रवर्त्तक के पद का कभी राजाओं से सम्बन्ध न हुआ है और न होगा ही, यद्यपि कुछ धर्मप्रवर्त्तकों ने राजकाज भी चलाया है। दूसरी योजना के विषय में उसने कहा कि अभी तो हिन्दुस्तान का ही एक बड़ा भाग अविजित है, राज्य पर मंगोलों के आक्रमण का भय है तथा सुल्तान की अनुपस्थिति में राज्य चलाने वाला अरस्तू के समान कोई वजीर भी नहीं है। इस प्रकार सुल्तान को अपने होश में लाया गया। उसने अपनी पागलपन से भरी योजनाओं का परित्याग कर दिया। किन्तु फिर भी उसने अपने सिक्कों पर अपना उल्लेख द्वितीय सिंकदर के रूप में करवाया। अलाउद्दीन के शासनकाल में भारत के विभिन्न भागों में मुस्लिम राज्य का शीघ्रता से विस्तार हुआ। सर वुल्सेले हेग का कथन है कि इसके साथ सल्तनत का साम्राज्य काल आरम्भ होता है, जो लगभग आधी शताब्दी तक चलता रहा।

1297 ई. में अलाउद्दीन ने गुजरात के हिन्दू राज्य को जीतने के लिए अपने भाई उलुग खाँ तथा अपने वज़ीर नसरत खाँ के अधीन एक बलवती सेना भेजी। गुजरात को कई बार लूटा गया था, परन्तु यह अविजित ही रहा था। उस समय वहाँ का शासक राय कर्णदेव द्वितीय था, जो एक बधेल राजपूत था। आक्रमणकारियों ने सारे राज्य की रौद डाला और कर्णदेव द्वितीय की रूपवती रानी कमला देवी को पकड़ लिया। राजा तथा उसकी पुत्री देवलदेवी ने देवगिरि के राजा रामचन्द्रदेव के यहाँ शरण ली। उन्होंने गुजरात के समृद्ध बन्दरगाहों को भी लूटा और विशाल परिमाण में लूट का माल तथा काफूर नामक एक युवक हिजडे को ले आये। विपुल सम्पत्ति, कमला देवी और काफूर के साथ दिल्ली लौटे। कमला देवी बाद में अलाउद्दीन की प्रिय पत्नी (मल्लिकाजहाँ) बनी। काफूर आगे चलकर राज्य का सबसे प्रभावशाली सरदार हुआ तथा अलाउद्दीन की मृत्यु के पहले और कुछ समय बाद तक इसका असली स्वामी भी बन बैठा।

रणथम्भोर जिसे कुतुबुद्दीन तथा इल्तुतमिश ने जीता था, राजपूतों द्वारा लौटा लिया गया। यह इस समय वीर राजपूत राजा हम्मीर देव के अधीन था। उसने कुछ असन्तुष्ट नव-मुस्लिमों (नये मुसलमानों) को शरण दी थी, जिससे अलाउद्दीन क्रुद्ध हो गया। 1299 ई. में सुल्तान ने अपने भाई उलुग खाँ तथा नसरत खाँ (जो उस समय क्रमश: बियान एवं कड़ा के जागीरदार थे) के अधीन दुर्ग जीतने के लिए सेना भेजी। उन्होंने झाइन को जीतकर रणथम्भोर के सामने पड़ाव डाल दिया। परन्तु राजपूतों ने शीघ्र ही उनको पराजित कर दिया। नसरत खाँ, एक पाशिब तथा एक गर्गज के निर्माण की देखभाल करते समय दुर्ग की मगरिबी (मंजनीक, ढेलमास) से छूटे हुए एक पत्थर से मारा गया। अपनी सेना की इस पराजय की खबर सुनकर अलाउद्दीन स्वयं रणथम्भोर की ओर बढ़ा। जब वह गढ़ की राह में अपने कुछ ही अनुचरों के साथ तिलपत में शिकार कर रहा था, तभी उसके भतीजे आकत खाँ ने, कतिपय नये मुसलमानों के साथ मिलकर, उसकी प्रतिरक्षा-रहित अवस्था में उस पर आक्रमण कर उसे आहत कर दिया। परन्तु वह विश्वासघाती शीघ्र ही पकड़ लिया गया और अपने मित्रों सहित मार डाला गया। इसी समय उमर खाँ और मंजू खाँ, जो क्रमश: अवध एवं बदायू के गवर्नर थे, विद्रोह कर दिया। उसी समय हाजी मौला का भी विद्रोह हुआ। इन विद्रोहों को दबा दिया गया। अलाउद्दीन को सिंहासनच्युत करने के निमित्त किये गये अन्य षड्यन्त्रों का भी शमन कर दिया गया। उसने जुलाई, 1301 ई. में रणथम्भोर के गढ़ को एक वर्ष तक घेरा डालने के बाद बड़ी कठिनाई से जीत लिया। हम्मीर देव तथा नये मुसलमानों को, जिन्हें उसने शरण दी थी, मार डाला गया।

अलाउद्दीन ने वीर गुहिल राजपूतों की भूमि मेवाड़ पर भी आक्रमण करने की व्यवस्था की। प्रकृति ने मेवाड़ को प्रतिरक्षा के पर्याप्त साधन दिये हैं, जिनके बलपर यह अब तक बाहरी आक्रमणों की उपेक्षा करता रहा। यह आक्रमण भी सम्भवत: रणथम्भोर के विरुद्ध किये गये। आक्रमण के सदृश सुल्तान की राज्यविस्तार की महत्त्वाकांक्षापूर्ण इच्छा का फल था। यदि परम्पराओं का विश्वास किया जाए, तो इसका तात्कालिक कारण था राणा रतन सिंह की अत्यन्त रूपवती रानी पद्मिनी के प्रति उसका मोहित होना। किन्तु इस बात का किसी भी समकालीन इतिहास अथवा अभिलेखों में स्पष्ट उल्लेख नहीं है। राणा बन्दी बनाकर सुल्तान के शिविर में ले जाया गया। परन्तु राजपूतों ने वीरतापूर्वक उसे छुड़ा लिया। राजपूतों का एक छोटा-सा दल अपने दो वीर नेताओं-गोरा तथा बादल-के अधीन चित्तौड गढ़ के बाहरी द्वार पर आक्रमणकारियों को रोकता रहा, किन्तु वे दिल्ली की सेना की सुव्यवस्थित शक्ति के सामने अधिक समय तक न टिक सके। जब और अधिक अवरोध करना असम्भव जान पड़ने लगा, तब उन्होंने अपमान के बदले मृत्यु को पसन्द किया। अलाउद्दीन ने अपने पुत्र खिज्र खाँ को यहाँ का शासक नियुक्त किया और चितौड़ का नाम बदलकर खिज्राबाद कर दिया।

चित्तौड-विजय के बाद अलाउद्दीन ने मालवा को एक सेना भेजी। मालवा के राजा महलक देव तथा इसके प्रधान कोका ने एक विशाल सेना के साथ उसका सामना किया। परन्तु नवम्बर अथवा दिसम्बर, 1305 ई. में वे हराकर मार डाले गये। सुल्तान का हाजिबे-खास (आत्मीय कर्मचारी) ऐनुल्मुल्क मालवा का शासक नियुक्त हुआ। इसके बाद मुसलमानों ने उज्जैन, मांडू, धार एवं चंदेरी को जीत लिया। इस तरह 1305 ई. के अन्त तक प्राय: सारा उत्तरी भारत खल्जी साम्राज्य के अधिकार के अधीन हो गया। इससे प्रोत्साहित होकर दक्षिण (दक्कन)-विजय के बारे में सोचा जाने लगा। अपनी विजयों से खिलजी का मनोबल बढ़ गया और वह अपनी तुलना वह पैगम्बर मोहम्मद से करने लगा। उसने कहा कि जिस तरह से पैगम्बर के चार योद्धा हैं उसी तरह मेरे भी उलूग खाँ, नुसरत खाँ, जाफर खाँ और अलप खाँ चार योद्धा हैं। वह सिकन्दर से भी प्रभावित था और विश्व विजय करना चाहता था। माना जाता है कि अपने सिक्के पर उसने सिकन्दर-ए-सानी खुदवाया।

यद्यपि व्यापार के कारण भारत का पश्चिमी समुद्र-तट मुसलमानों के सम्पर्क में पहले से ही आ चुका था, फिर भी मुसलमानों द्वारा दक्कन की पहली विजय अलाउद्दीन के नेतृत्व में खल्जियों द्वारा हुई। उसने राजनैतिक एवं आर्थिक कारणों से दक्षिण पर आक्रमण किया था। उसके जैसे महत्त्वाकांक्षी शासक के लिए उत्तर पर अधिकार करने के पश्चात् दक्षिण पर अपना प्रभाव स्थापित करने का प्रयत्न करना स्वाभाविक ही था। दक्कन की सम्पत्ति भी एक साहसी योद्धा के लिए प्रलोभन की वस्तु थी।

विन्ध्य पर्वत के उस पार के भारत की उस समय की राजनैतिक अवस्था ने अलाउद्दीन की सेना लेकर जाने का अवसर प्रदान किया। यह (दक्कन) उस समय चार प्रसिद्ध राज्यों में बँटा हुआ था। पहला था देवगिरि का यादव राज्य जो रामचन्द्रदेव (1271-1309 ई.) नामक एक चतुर एवं योग्य शासक के अधीन था। पूर्व में तेलंगाना नामक प्रदेश काकतीय वंश के प्रताप रुद्रदेव प्रथम के अधीन था। इसकी राजधानी वारंगल (आंध्रप्रदेश में) थी। आज जिसे मैसूर (कर्नाटक) राज्य कहा जाता है, वह होयशलों के अधीन था। उस समय उनका राजा वीर बल्लाल तृतीय (1292-1342 ई.) था। उनकी राजधानी द्वारसमुद्र थी, जिसे आजकल हलेविड कहते हैं तथा जो सुन्दर मन्दिरों के लिए प्रसिद्ध है। सुदूर दक्षिण में पांड्यों का राज्य था, जिसे मुस्लिम लेखक मअबर कहते हैं तथा जिसके अन्तर्गत आधुनिक मदुरा, रामनद एवं तिनेवल्ली के जिले हैं। उस समय इस पर मारवर्मन् कुलशेखर (1268-1311 ई.) शासन कर रहा था। उसने वाणिज्य को प्रोत्साहन देकर इसे बहुत समृद्ध बनाया। कुछ छोटे-छोटे राजा भी थे, जैसे तेलुगु-चोल राजा मन्म-सिद्ध तृतीय जो नेलोर जिले में शासन करता था; कलिंग-गंग राजा भानुदेव, जो उड़ीसा में शासन करता था; केरल राजा रविवर्मन्, जो कोल्लम (क्विलन) से शासन करता था तथा आलप राजा बाँकिदेव आलुपेन्द्र, जो मंगलोर में शासन करता था। दक्षिण के हिन्दू राज्यों के बीच जरा भी मेल-जोल नहीं था। 1294 ई. में देवगिरि पर अलाउद्दीन के आक्रमण के समय रामचन्द्र देव को इसमें से किसी से कोई सहायता न मिली। कभी-कभी होयशल राजा देवगिरि के रामचन्द्र देव पर आक्रमण कर दिया करते थे। दक्षिण के राज्यों के बीच जो आन्तरिक कलह था, उसने उत्तर के आक्रमणों को आमंत्रित किया।

मार्च, 1307 ई. में अलाउद्दीन ने काफूर के अधीन, जो अब राज्य का मलिक नायब (सेनाध्यक्ष) कहलाता था, एक सेना देवगिरि के रामचन्द्रदेव के विरुद्ध भेजी, क्योंकि उसने पिछले तीन वर्षों से एलिचपुर प्रान्त का कर देना बन्द कर दिया था। साथ-साथ उसने गुजरात के भगोड़े शासक राय कर्णदेव द्वितीय को शरण भी दी थी। ख्वाजा हाजी (सहायक अरीज़े-ममालिक) काफूर का सहायक बना। काफूर मालवा होता हुआ देविगरि की ओर बढ़ा। उसने सम्पूर्ण देश को उजाड़ डाला, बहुत-सा धन लूटा तथा रामचन्द्रदेव को संधि करने के लिए लाचार किया।

रामचन्द्रदेव अलाउद्दीन के पास दिल्ली भेज दिया गया। सुल्तान ने उसके साथ दयापूर्ण व्यवहार किया तथा छः महीने बाद उसे अपने राज्य में वापस भेज दिया। उसके बाद से रामचन्द्रदेव दिल्ली सल्तनत के सामंत के रूप में राज्य करता रहा तथा नियमित रूप से राजस्व दिल्ली भेजता रहा। आक्रमणकारी ने रायकर्ण की कन्या देवल देवी को पकड़ लिया। गुजरात का शासक अल्प खाँ उसे दिल्ली ले गया, जहाँ वह सुल्तान के ज्येष्ठ पुत्र खिज़िर खाँ के साथ ब्याह दी गयी।

1303 ई. में अलाउद्दीन ने काकतीय प्रताप रुद्रदेव पर आक्रमण किया था, जो असफल रहा किन्तु यादवों के दर्पदलन के पश्चात् उसे काकतीय राजा को अपने वश में करने तथा उसका धन चूसने के लिए 1307 ई. में दूसरा प्रयत्न करने में प्रोत्साहन मिला। सुल्तान वारंगल के राज्य को अपने साम्राज्य में मिलाना नहीं चाहता था, क्योंकि अधिक दूरी के कारण उस पर शासन करना एक कठिन कार्य सिद्ध होता। उसका असली ध्येय था इस राज्य का अपार धन प्राप्त करना तथा प्रतापरुद्रदेव से अपनी अधीनता स्वीकार करवाना। काफूर को, जो इस बार भी आक्रमणकारी सेना का अध्यक्ष था, उसने जो आदेश दिया था, उससे यह स्पष्ट हो जाता है- यदि राय अपना कोष, जवाहरात, हाथी और घोडे समर्पित करना तथा अगले वर्ष कोष एवं हाथी भेजना स्वीकार कर ले, तो मलिक नायब काफूर इन शर्तों को मान ले और राय को अधिक नहीं दबाए। देवगिरि पहुँचने पर रामचन्द्रदेव ने जो अब वशवर्ती हो चुका था, दिल्ली की सेना की सहायता की। यही नहीं, बल्कि जब सेना तेलंगाना की ओर बढ़ रही थी, तब उसने उसे एक योग्य रसद्-विभाग भी दिया। प्रतापरुद्रदेव ने वारंगल के दृढ़ किले में अपने को बन्दकर आक्रमणकारियों का प्रतिरोध करने की चेष्टा की। किन्तु किले पर इतनी ताकत के साथ घेरा डाला गया था कि निरुपाय होकर काकतीय राजा को मार्च, 1310 ई. में सुलह की बातचीत आरम्भ करनी पड़ी। उसने काफूर को एक सौ हाथी, सात हजार घोडे तथा काफी जवाहरात और ढले सिक्के समर्पित किये तथा प्रति वर्ष दिल्ली कर भेजना भी स्वीकार किया। उसके बाद काफूर देवगिरि, धार, एवं झाईं होकर तथा अमीर खुसरों के शब्दों में- कोष के बोझ से कराहते हुए एक हजार ऊँटों पर लूट का बहुत-सा माल लेकर दिल्ली लौट आया।

इन सफलताओं के बाद अलाउद्दीन ने सुदूर दक्षिण के राज्यों को जीतने का निश्चय किया। ये राज्य अपने मन्दिरों के विपुल धन के लिए विख्यात थे। 18 नवम्बर, 1310 ई. को मलिक नायब तथा ख्वाजा हाजी के अधीन दिल्ली से एक विशाल सेना होयसालों के राज्य के विरुद्ध चल पड़ी तथा देवगिरि होकर द्वारसमुद्र पहुँची। होयसाल राजा वीर बल्लाल तृतीय की राजधानी पर यह पहला हमला आकस्मिक रूप में हुआ। आक्रमणकारियों की प्रबल शक्ति को देखकर उसने उनके सामने हथियार डाल दिये और अपने सभी खजाने दे डाले। इससे संतुष्ट न हो विजयी सेना ने छत्तीस हाथियों पर अधिकार कर लिया तथा मन्दिरों से अत्याधिक सोना, चाँदी, रत्न और मोती लूटे। मलिक नायब ने सारी अधिकृत सम्पत्ति तथा एक होयसाल युवराज को दिल्ली भेज दिया। युवराज 6 मई, 1313 ई. को जनता के महान् हर्षोल्लास के बीच पुनः द्वारसमुद्र पहुँचा किन्तु होयसाल दिल्ली सुल्तान के सामन्त बन गये।

द्वारसमुद्र में बारह दिनों तक ठहरने के पश्चात् मलिक नायब ने अपनी दृष्टि माबर देश की ओर डाली। यह लगभग सम्पूर्ण कारोमंडल (चोलमंडल) तट एवं क्विलन से लेकर कुमारी अन्तरीप तक पश्चिमी किनारे पर फैला हुआ था। उस समय इस प्रदेश पर पांड्यों का शासन था। पांड्य राजा कुलशेखर के औरस पुत्र सुन्दर पांड्य तथा उसके अवैध किन्तु प्रिय पुत्र वीर पांड्य के बीच होने वाली भ्रातृघातक युद्ध से मलिक नायब को मदुरा पर आक्रमण करने का अवसर मिल गया, जिसकी ताक में वह बैठा था। अपने पिता द्वारा पक्षपातपूर्वक वीर पांड्य के उसके उत्तराधिकारी मनोनीत होने पर सुन्दर पांड्य ने क्रुद्ध होकर मई, 1310 के अन्त में राजा की हत्या कर डाली तथा राजमुकुट पर स्वयं अधिकार कर लिया। परन्तु उसी वर्ष नवम्बर महीने के करीब वह अपने भाई से युद्ध में परास्त हुआ। ऐसी संकट स्थिति में पड़ उसने मुसलमानों से मदद माँगी।

मलिक नायब एक विशाल सेना लेकर दक्कन की ओर चला। 14 अप्रैल, 1311 ई. को वह पांड्यों की राजधानी मदुरा पहुँचा। नगर खाली पड़ा था, क्योंकि उसके बढ़ने का समाचार सुन वीर पांड्य पहले ही रानियों के साथ नगर छोड़कर चला गया था। फिर भी उसने नगर को लूटा तथा काफी माल पर अधिकार कर लिया, जिसमें अमीर खुसरो के लेखानुसार पाँच सौ बारह हाथी, पाँच हजार घोड़े तथा पाँच सौ मन हीरे, मोती, पन्ना एवं लालमणि आदि विविध प्रकार के जवाहरात थे। यदि अमीर खुसरो की बात का विश्वास किया जाए, तो मलिक नायब रामेश्वरम् तक पहुँच गया। वह 18 अक्टूबर, 1311 ई. को बृहत् परिमाण में लूट का माल लेकर दिल्ली वापस पहुँचा। इसके अन्तर्गत छ: सौ बारह हाथी, बीस हजार घोड़े, छियानबे हजार मन सोना, जवाहरात एवं मोतियों के कुछ सन्दूक थे। इस तरह मालाबार देश साम्राज्यवादियों के हाथ आ गया जो मुहम्मद तुगलक के शासनकाल के आरम्भ तक दिल्ली सल्तनत के अधीन रहा।

1312 ई. में रामचन्द्र देव के पुत्र शंकर देव ने दिल्ली सुल्तान को कर देना बन्द कर दिया जिसके लिए उसके पिता ने आश्वासन दे रखा था तथा पुनः स्वतंत्र होने का प्रयत्न करने लगा। इस पर मलिक नायब पुन: दिल्ली से चला तथा शंकर देव को हराकर मार डाला। इस तरह सम्पूर्ण दक्षिण भारत को दिल्ली के सुल्तान की प्रभुता स्वीकार करनी पड़ी। इस तरह अलाउद्दीन का साम्राज्य विस्तार पूरा हुआ। खजायन-उल-फुतुह में खिलजी को विश्व का सुल्तान, युग का विजेता और जनता का चरवाहा कहा गया है। जोधपुर के एक अभिलेख में कहा गया है कि अलाउद्दीन खिलजी के देवतुल्य शौर्य से पृथ्वी अत्याचारों से मुक्त हो गई

परन्तु मलिक नायब के आक्रमणों का नगरों की लूटपाट, लोगों के वध तथा मन्दिरों की लूट से सम्बन्ध होने के कारण इनका दक्षिण भारत के निवासियों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उनके लिए आक्रमणकारी की विशाल शक्ति के सामने, उस समय आत्मसमर्पण के अतिरिक्त दूसरा कोई चारा नहीं था; किन्तु उनके दिलों में अवश्य ही असन्तोष घर कर गया होगा, जिसकी अन्तिम अभिव्यक्ति राजनैतिक फल के रूप में विजयनगर के उत्कर्ष में हुई। राजत्व एवं प्रभुसत्ता के सम्बन्ध में अलाउद्दीन का विचार उसके पूर्वगामियों के विचार से भिन्न था। वह दिल्ली का प्रथम सुल्तान था जिसने स्पष्ट रूप से घोषणा की कि राजत्व रक्त संबंध नहीं जानता। उसने सर्वप्रथम राजकाज के मामले में कट्टर धर्मसंस्था की मान्यता को चुनौती देने का साहस किया। उसने घोषणा की कि अपनी सरकार के राजनैतिक हित के लिए मैं बिना उलेमाओं के परामर्श के भी कार्य करूंगा। बियाना के काजूी मुगीसुद्दीन को, जो बहुधा उसके दरबार में आता था और धार्मिक वर्ग की प्रधानता का समर्थक था, उसने इस प्रकार कहा-विद्रोह को, जिसमें हजारों नष्ट होते हैं, रोकने के लिए मैं ऐसे आदेश देता हूँ, जिन्हें मैं राज्य के लिए कल्याणकारी और लोगों के लिए लाभप्रद समझता हूँ। लोग असावधान एवं अशिष्ट बन जाते हैं तथा मेरी आज्ञा का उल्लंघन करते हैं। तब उनको आज्ञाकारी बनाने के लिए मैं कठोर बनने को मजबूर हो जाता हूँ। मैं नहीं जानता कि यह वैध है अथवा अवैध। जो भी मैं राज्य के लिए हितकारी अथवा आपातकाल के लिए उचित समझता हूँ, वह आज्ञा दे देता हूँ।

परन्तु अलाउद्दीन के इस दृष्टिकोण से यह अनुमान करना अनुचित होगा कि वह इस्लाम धर्म की अवहेलना करता था। भारत के बाहर वह इस्लाम के एक महान् प्रतिरक्षक के रूप में विख्यात था। भारत में इस विषय पर मतभेद था। बरनी एवं उसके शिष्यों के सदृश धर्म-परायणता के समर्थक उसके धर्म की उपेक्षा को अधिक महत्त्व देते हैं, जब कि अमीर खुसरो ने, जो एक सुसंस्कृत तथा सूक्ष्मदर्शी व्यक्ति था, उसे इस्लाम का समर्थक माना था। अलाउद्दीन ने स्वयं काजी से कहा- यद्यपि मैंने इल्म (विद्या) अथवा किताब (कुरान शरीफ) नहीं पढ़ी है, तथापि मैं मुसलमान वंश का एक मुसलमान हूँ। अलाउद्दीन के स्मारक चिह्नों पर के अभिलेख भी यह स्पष्ट बतलाते हैं कि इस्लाम में उसकी आस्था नष्ट नहीं हुई थी।

अलाउद्दीन अपने दृढ़ निश्चय के अनुसार काम किया करता था तथा प्रत्येक कार्य में सम्पूर्णता की नीति का अनुसरण करता था, ताकि केन्द्र में एक शक्तिशाली सरकार स्थापित हो सके। आकत खाँ के विद्रोह, अपने भानजे अमीर उमर एवं मंगू खाँ के बदायूं तथा अवध में किये गये बलवों, हाजी मौला के षड्यंत्र तथा नये मुसलमानों के कपट-प्रबन्ध से, जिन सबका अच्छी तरह शमन कर दिया गया था, उसे विश्वास हो गया कि शासन प्रणाली में कुछ दोष आ गये हैं।

इन दोषों को निर्मूल करने तथा विद्रोहों से अपने को सुरक्षित रखने का दृढ़ निश्चय कर सुल्तान ने निरोधी नियमों की एक संहिता का निर्माण किया। उसने सर्वप्रथम व्यक्तिगत सम्पत्ति की संस्था पर आघात किया। सभी पेंशनों तथा समर्पित धन को राज्याधिकार में कर लिया गया और सभी गाँव जो मिल्कियत, इनाम एवं वक्फ़ में थे, जब्त कर लिये गये। बरनी लिखता है कि- लोगों पर दबाव डाला जाता तथा उन्हें दण्ड दिया जाता था, हर तरह के बहाने से उनसे धन चूसा जाता था। बहुत लोगों के पास धन बिलकुल नहीं रहा। अन्त में अवस्था यहाँ तक आ पहुँची कि मलिकों तथा अमीरों, अधिकारियों, मुल्तानियों तथा महाजनों (बैंकरों) के अतिरिक्त किसी के पास अत्यन्त छोटी रकम भी न रही। दूसरे, सुल्तान ने कार्यकुशल गुप्तचरों का एक दल बनाया, जिन्हें सुल्तान को, प्रत्येक वस्तु की यहाँ तक कि बाजारों की गपशप और लेनदेन जैसी अत्यन्त साधारण बातों की भी सूचना देने की आज्ञा थी। सूचना देने की प्रणाली इस हद तक पहुँच गयी कि सरदार बड़े-से-बड़े स्थानों में भी जोर से बोलने का साहस नहीं करते थे और यदि उन्हें कुछ कहना होता, तो वे संकेतों के द्वारा ही भाव व्यक्त करते थे।

तीसरे, मादक शराब और औषधि तथा पासे के खेल का दृढ़ता से निषेध कर दिया गया। सुल्तान ने स्वयं मदिरापान का त्याग कर इसका दृष्टान्त पेश किया। मदिरा के उसके सभी पात्र चकनाचूर कर दिये गये। चौथे, सुल्तान ने सरदारों के सामाजिक समारोह भी बन्द कर दिये। वे उसकी विशेष आज्ञा के बिना नहीं मिल सकते थे। यह नियम ऐसी दृढ़ता से लागू किया गया कि भोज तथा अतिथि-सत्कार की प्रथा बिलकुल लुप्त हो गयी। गुप्तचरों के डर से सरदार मौन रहने लगे; वे भोज नहीं देते तथा उन लोगों ने एक-दूसरे से बात-चीत करना भी बन्द कर दिया।

सुल्तान के द्वारा लागू किये गये कुछ अन्य नियम भी उतने ही कड़े थे। अधिकांश लोगों को अपनी उपज का आधा भाग तथा पशुओं के चरागाह के लिए अत्याधिक कर देना पड़ता था। सुल्तान उनकी अवस्था इतनी दयनीय बना देना चाहता था कि उनके लिए अस्त्रशस्त्र रखना, घोडे पर चढ़ना, अच्छे वस्त्र धारण करना अथवा जीवन के किसी अन्य सुख का उपभोग करना असम्भव हो जाए। वास्तव में उनका भाग्य बहुत कठोर हो गया। कोई भी अपना सिर ऊपर उठाकर नहीं रख सकता था तथा उनके घरों में सोने, चाँदी, टका, जीतल या किसी फालतू चीज का कोई चिह्न वर्तमान नहीं रह गया था….दरिद्रता के कारण खेतों या खुतों एवं मुकद्दमों की स्त्रियाँ मुसलमानों के घर जाकर मजदूरी किया करती थी। राजस्व संग्रह के लिए सभी वंशानुगत कर-निर्धारक तथा कर-संग्राहक एक ही कानून के अन्तर्गत लाये गये तथा इस नियम को सुल्तान के नायब वजीर शरफ काई तथा उसके अन्य अधिकारियों ने इतनी अधिक दृढ़ता से लागू किया कि लोग राजस्व-विभाग के अधिकारियों को ज्वर से भी बुरा समझने लगे। मुंशीगीरी महान् अपराध बन गयी तथा कोई भी मनुष्य अपनी कन्या को किसी मुंशी (क्लर्क) के हाथ नहीं सौंपता था। अलाउद्दीन ने धन के अतिसंकेन्द्रण को रोकने के लिए भू-राजस्व सुधार किए। अलाउद्दीन खिलजी के भू-राजस्व सुधार के उद्देश्य थे- राजकीय आय में वृद्धि एवं मध्यस्थों का अंत तथा धन के संकेन्द्रण को रोकना। अलाउद्दीन खिलजी प्रथम मुस्लिम शासक था जिसने भूमि की माप करायी। इस पद्धति को बरनी ने मसाहत कहा। भूमि माप की ईकाई के रूप में बीसवाँ को अपनाया गया।

भू-राजस्व सुधार: इसे निम्नलिखित चरणों में पूरा किया गया-

  1. भूमि की माप करायी गयी (दोआब क्षेत्र में)
  2. मध्यस्थों का अंत किया गया। ग्रामीण क्षेत्रों में मध्यस्थ वर्ग में खुत, मुकद्दम, चौधरी शामिल थे। इन्हें किस्मत-ए-खुती के रूप में हकूक-ए-खुती के रूप में भू-राजस्व का 10 प्रतिशत प्राप्त होता अलाउद्दीन खिलजी ने इसे रद्द कर दिया। साथ ही उन्हें अपनी भूमि पर भू-राजस्व नहीं देना पड़ता था। अलाउद्दीन खिलजी ने उनकी भूमि की माप करायी और उस पर भी भू-राजस्व का निर्धारण किया। इनकी दशा इतनी खराब हो गयी कि बरनी कहता है कि- अब यह अरबी घोड़े पर नहीं चलते थे और पान नहीं खाते थे। यह बात हो सकती है। किन्तु इतना सत्य है कि इन्हें आर्थिक क्षति उठानी पड़ी होगी।
  3. अलाउद्दीन खिलजी ने नये सिरे से दोआब क्षेत्र में कर निर्धारण किया और भू-राजस्व की राशि कुल उत्पादन का 50 प्रतिशत निर्धारित कर दी। इसके अतिरिक्त घरी एवं चरी कर लगाया।

अलाउद्दीन यह ठीक ही समझता था कि वह जैसी शासन-पद्धति के निर्माण की चेष्टा करता आ रहा था उसके लिए प्रबल सेना नितान्त आवश्यक थी। परन्तु इसे सक्षम बनाये रखने के लिए अत्याधिक व्यय की आवश्यकता थी- वह भी ऐसे समय में जब कि दक्षिण के धन-प्रवाह से मुद्रा का मूल्य घट गया था, वस्तुओं के दाम बढ़ गये थे। सुल्तान ने हर सैनिक का वेतन प्रतिवर्ष 2, 3, 4 टका तथा दो घोड़े रखने वाले के लिए 78 टका निश्चित कर दिया। वह सैनिकों का वेतन बढ़ाना नहीं चाहता था, क्योंकि इससे राज्य के तथा प्रजा के, आखिरी हद तक कर-भार ग्रस्त हो चुकी थी, साधनों पर अधिक तनाव पड़ता। परन्तु सैनिकों को परिमित वेतन पर जीवित रखने के उद्देश्य से उसने कुछ राजाज्ञाएँ निकाली, जिनके द्वारा जीवन की अत्यावश्यक वस्तुओं से लेकर विलास-वस्तुओं-जैसे दासों, अश्वों, हथियारों, सिल्क और सामग्री तक सभी चीजों के मूल्य निश्चित कर दिये गये तथा आपूर्ति एवं मांग के नियम को यथासम्भव व्यवस्थित कर दिया गया। राजधानी के चतुर्दिक खालसा गाँवों में भूमिकर नकद के बदले अन्न के रूप में लिया जाने लगा। अन्न दिल्ली नगर की राजकीय अन्न-शालाओं में संचित किया जाता था ताकि दुर्मिक्ष के समय सुल्तान इसे बाजारों में भेज सके। अन्न का कोई भी व्यक्तिगत रूप में संचय नहीं कर सकता था। बाजारों पर दीवाने-रियासत एवं शहना-ए-मंडी (बाजार का दारोगा) नामक दो अधिकारियों का नियंत्रण रहता था। सुल्तान को बाजारों की दशा की सूचना देने के लिए गुप्तचरों का एक दल नियुक्त था। व्यापारियों को अपना नाम एक सरकारी दफ्तार में रजिस्ट्री कराना पड़ता था। उन्हें अपनी सामग्री को बेचने के लिए बदायूं द्वार के अन्दर सराय-अदल नामक एक खुले स्थान पर ले जाने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी। उन्हें अपने आचरण के लिए पर्याप्त जामिन देना पड़ता था। सुल्तान के नियमों का उल्लंघन करने पर कठोर दण्ड की व्यवस्था थी। दुकानदारों द्वारा हल्के बटखरों का व्यवहार रोकने के लिए यह आज्ञा थी कि वजन जितना कम हो उतना ही मांस उनके शरीर से काट लिया जाए। जब तक सुल्तान जीवित रहा, ये नियम उसकी इच्छानुसार चलते रहे तथा वह एक विशाल स्थायी सेना कम खर्च पर रख सका। बरनी कहता है कि- बाजारों में अनाज का अपरिवर्तनशील मूल्य उस समय का एक आश्चर्य समझा जाता था। परन्तु वह इसका निश्चित रूप से उल्लेख नहीं करता कि इन प्रयोगों का सम्पूर्ण देश की आर्थिक दशा पर क्या प्रभाव पड़ा।

उद्देश्य: बरनी कहता है कि सैनिकों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बाजार नियंत्रण नीति को लागू किया गया था, प्रो. के. एस. लाल भी इससे सहमत हैं।

दूसरी तरफ सक्सेना, निजामी और इरफान हबीब का मानना है कि सामान्य जनता की आवश्यकता को ध्यान में रखकर इसे लागू किया गया था और बरनी भी अपने दूसरे ग्रंथ फतवा-ए-जहाँदारी में इसे जनता की आवश्यकताओं से प्रेरित मानता है। बाजार नियंत्रण व्यवस्था के तहत तीन प्रकार के बाजार स्थापित किए-

  1. अनाजों की मंडी- इसमें विभिन्न प्रकार के अनाज रखे जाते थे। मुख्य अनाजों की बिक्री, सहना नामक अधिकारी के नियंत्रण में थी और सबके ऊपर एक शहना-ए-मंडी होता था।
  2. सराय-ए-अदल- यह कपड़ों का बाजार था। इसके माध्यम से अमीरों को बेशकीमती कपड़े उपलब्ध कराये जाते थे। एक निश्चित दाम पर अमीरों को वे कपड़े प्राप्त हों, इसलिए राज्य मुलतानी व्यापारियों को राज सहायता देता था। सराय-ए-अदल का मुख्य अधिकारी रायपरवाना था।
  3. घोड़े, मवेशियों एवं दासियों का बाजार- पशुओं की खरीद-बिक्री में दलालों के कारण पशुओं का मूल्य बढ़ता था। दलालों को पशुओं के बाजार से बाहर कर दिया गया। सभी पशुओं की कीमतें निर्धारित कर दी गयीं। उदाहरण के लिए अच्छे किस्म के घोडे की कीमत 120 टका थी और एक साधारण टट्टू की कीमत 10 टका थी। खिल्जी की बाजार व्यवस्था उत्पादन-लागत की प्रगतिशील पद्धति पर काम करती थी। खिल्जी ने अनाजों की मडी में, अनाज की उपलब्धता के लिए दोआब क्षेत्र में अनाजों के रूप में ही भूराजस्व लेना प्रारम्भ किया। उन अनाजों को राजकीय गोदामों में रखा जाता था और कमी की स्थिति में बाजारों में भेजा जाता था। खिल्जी तीन भिन्न स्रोतों से बाजार व्यवस्था के विषय में सूचना पाता था- (1) राजकीय अधिकारी, (2) बरीद (राजकीय गुप्तचर) और (3) मुन्हियाँ (व्यक्तिगत गुप्तचर)। बरनी बाजार व्यवस्था की बड़ी प्रशंसा करता है और मानता है कि मूल्य-नियंत्रण पूरी तरह सफल हुआ। मूल्यों में आधे जीतल से अधिक का अंतर कभी नहीं आया। राजकीय नियंत्रण इतना अधिक था कि कम तौलने वाले को कठोर दण्ड दिया जाता था।

बाजार व्यवस्था वहाँ लागू हुयी होगी जहाँ सैनिक बैरक स्थापित थे। बाजार व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए उसने दीवान-ए-रियासत की स्थापना की। नजीर के विभाग (माप तौल) और मोहतसिब के विभाग उसी के अंतर्गत कर दिए गए। दीवान-ए-रियासत का प्रधान मलिक याकूब को बनाया गया और शहना-ए-मंडी के पद पर मलिक काबुल को नियुक्त किया गया। 1316 ई. में खिल्जी की मृत्यु हो गयी।

अलाउद्दीन एक मनमाना शासक था। उसकी महत्त्वाकांक्षाएं असीम तथा अनियन्त्रित थी। उसके तरीके सिद्धांत-शून्य थे। बरनी लिखता है कि- फिरऔन जितना निरपराध रक्त बहाने के लिए दोषी ठहराया गया उससे भी अधिक निरपराध रक्त अलाउद्दीन ने बहाया। जलालुद्दीन फीरोज का दु:खपूर्ण अन्त, मृत सुल्तान के सम्बन्धियों के साथ उसका बर्ताव तथा नये मुसलमानों के प्रति की गयी निर्दयतापूर्ण कार्रवाइयाँ, जिनमें स्त्रियों तथा बच्चों को भी नहीं छोड़ा गया, सुल्तान के कठोर स्वभाव के प्रमाण हैं। वह अत्यन्त सन्देही तथा ईर्ष्यालु था। कभी-कभी वह उनसे भी कृतघ्नता का व्यवहार करता था, जिनसे उसे भारी सहायता मिली रहती थी। उदाहरणत: गद्दी पर बैठने के बाद उसने बहुत-से वैसे सरदारों को अपने धन एवं घरों से वंचित कर दिया, जिन्होंने उसका पक्ष लिया था। उसने उन्हें बन्दी-गृहों में भेज दिया तथा कुछ को अंधा कर मरवा डाला। सुल्तान अपने ही सेनापति जफर खाँ की वीरता से ईष्य करने लग गया। जब मंगोलों ने उसे मार डाला, तब उसके स्वामी को असंतोष हुआ की- बिना पमनित हुए ही उससे छुटकारा मिल गया। बर्नी लिखता है की अलाउद्दीन का विद्या से परिचय नहीं था, परन्तु फ़रिश्ता के लेखानुसार सुल्तान ने गद्दी पर बैठने के बाद फारसी सीखी थी।

इस सुल्तान के शासन-काल में अमीर खुसरों तथा हसन सरीखे विख्यात विद्वान् एवं कवि हुए। सुल्तान गृह-निर्माण-विद्या का प्रेमी था। उसकी आज्ञा से अनेक दुर्ग बने। इनमें सबसे प्रसिद्ध था वृत्ताकार अलाई किला अथवा कोशके-सीरी (कुश्के-सीरी), जिसकी दीवारे पत्थर, ईंट तथा चूने की बनी थीं और जिसमें सात द्वार थे। अमीर खुसरो लिखता है कि- उन सभी मस्जिदों का, जो नष्ट हो चुकीं थीं, काफी चाँदी बिखेर करके पुन: निर्माण किया। 1311 ई. में कुतुब को बढ़ाने तथा, उस मस्जिद के प्रांगण में पुरानी कुतुबमीनार से दुगुने की एक नयी मीनार बनवाने का कार्य आरम्भ हुआ। उसके जीवन के दिनों की विपत्तियों के कारण मीनार का बनना उसके जीवन-काल में नहीं हो सका। 1311 ई. में ही उसने लाल बलुआ-पत्थर एवं संगमरमर की मस्जिद के लिए विशाल द्वार भी बनवाया, जिसके चारों ओर छोटे-छोटे द्वार बने।

किन्तु इतिहास में अलाउद्दीन अपने साम्राज्यवादी कार्यों के लिए विख्यात है। एक साहसी एवं योग्य सैनिक था। उसके समय के लगभग सभी सैनिक कार्य सफल हुए। वह बलबन के सैनिकवादी, आदर्श को न्यायोचित सीमा तक ले गया। उसने अपने शासनकाल के आरम्भ में, शासक के रूप में भी अदभुत पराक्रम दिखलाया। सर्वप्रथम पुरोहित-वर्ग के प्रभाव और मार्ग-प्रदर्शन से मुक्त होकर राज्य करने का श्रेय उसे ही प्राप्त है। वह किसी भी मूल्य पर अपना शासन सबल बनाना चाहता था।

किन्तु उसने जिस सैनिक राजतंत्र के निर्माण का प्रयत्न किया उसकी नींव बालू पर रखी गयी थी। ऊपर से तो उसकी कठोरता के कारण यह सबल दिखलाई पड़ा, परन्तु इससे दलित सरदारों तथा अपमानित नायकों के मन में असंतोष का भाव पैदा हो गया। वे स्वाभाविक रूप से अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा एवं शक्ति पुनः प्राप्त करने के अवसरों की प्रतीक्षा करते रहे। उसकी प्रणाली का एक बड़ा दोष यह था कि यह शासित वर्ग का स्वेच्छापूर्वक समर्थन तथा शुभकामनाएं प्राप्त न कर सका, जो किसी भी सरकार की सुरक्षा के लिए आवश्यक है। इसका अस्तित्व इसके निर्माता के प्रबल व्यक्तित्व पर निर्भर था। सच तो यह है कि इसके नाश के लक्षण सुल्तान के ही अन्तिम दिनों में परिलक्षित होने लगे तथा उसकी मृत्यु के बाद कुछ ही समय के भीतर पूर्ण रूप से प्रकट हो गये। उसका काम बिलकुल नष्ट हो गया। अपने चाचा के प्रति की गयी कृतघ्नता का एक उचित प्रतिशोध उसक के परिवार पर आ पड़ा तथा इसकी शक्ति एवं प्रतिष्ठा का नाश उसी ने किया, जिसमें सुल्तान की अत्याधिक आस्था थी। वह था उसका अपना ही दुलारा मलिक काफूर।

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