मालवा के परमार Parmar of Malwa
परमार वंश की उत्पत्ति भी गुर्जर प्रतिहारों की भांति अग्निकुण्ड से बताई जाती है। किन्तु अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन अन्य लेखों से सिद्ध होता है कि परमार शासकों का उद्भव राष्ट्रकूटों के कुल में हुआ था। इनकी कई शाखाएं थीं। परमार वंश की स्थापना उपेन्द्र अथवा कृष्णराज ने दसवीं शताब्दी के के प्रारंभ में की थी। पहले परमार लोग दक्कन के राष्ट्रकूटों के सामन्त थे। आबू पर्वत के निकट उपेन्द्र रहता था। उसे राष्ट्रकूट सम्राट् गोविन्द-तृतीय ने का शासक नियुक्त कर दिया था। उपेन्द्र के बाद उसके दो वंशजों ने राष्ट्रकूटों के माण्डलिक नृपतियों के रूप में मालवा पर शासन किया और वे अपने स्वामी (राष्ट्रकूट सम्राट्) के प्रति वफादार बने रहे। चौथे परमार सामन्त वाक्पति राज-प्रथम ने अपने वंश की स्थिति का उन्नयन किया। वीरसिंह-द्वितीय ने धारा नगरी पर अधिकार किया और प्रतिहारों के साथ उसका संघर्ष हुआ, किन्तु उन्होने उसको मालवा से निकाल बाहर कर दिया। उसके उत्तराधिकारी (हर्षसीयक)-द्वितीय ने गुर्जर प्रतिहारों की ह्रासोन्मुखी राजसत्ता से पूरा-पूरा लाभ उठाया और मालवा में फिर से अपने वंश की सत्ता स्थापित की। उसने सम्भवत: हूणों से भी युद्ध किया। हर्षसीयक-द्वितीय ने राष्ट्रकूटों की शक्ति को गिरते हुए देखकर उनसे भी लोहा लिया। उदयपुर के एक अभिलेख से पता चलता है कि 972 ई. में मान्यखेत के राष्ट्रकूटों के साथ उसका संघर्ष हुआ और खोट्टिग नामक राष्ट्रकूट-नरेश को पराजित कर उसने उसकी विपुल सम्पत्ति का अपहरण कर लिया। पाइय-लच्छी नामक प्राकृत शब्दकोष का प्रणेता धनपालसीयक-द्वितीय की राजसभा में रहता था। सीयक-द्वितीय ने मालवा के स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की जो दक्षिण में ताप्ती नदी, उत्तर में झालवर, पूर्व में भिलसा और पश्चिम में साबरमती से घिरा हुआ था। उसने सम्राटोचित विरुद भी धारण किये। उसका पुत्र वाक्यपति मुञ्ज अपने कुल का एक प्रतापी सम्राट् था।
वाक्यपति मुञ्ज- मालवा के परमारों की शक्ति का वास्तविक रूप में वाकयपति मुञ्ज ने विकास किया। अपने समय का वह एक महान् योद्धा और अपने कुल का सबसे शक्तिशाली नरेश था। उसका सम्पूर्ण जीवन युद्धों और विजयों में व्यतीत हुआ। उत्पलराज, अमोघवर्ष, श्रीवल्लभ, पृथ्वीवल्लभ आदि विरुद उसने धारण किये। उदयपुर के अभिलेख में वाक्यपति मुञ्ज की विजयों की एक पूरी सूची दी गई है। सबसे पहले उसने त्रिपुरी के राजा युवराज-द्वितीय को पराजित किया। इसके बाद लाट (गुजरात), कर्णाटक, चोल और केरल के राजाओं को युद्ध में परास्त किया। उसने उन हूणों पर, जो मालवा के उत्तर-पश्चिम में हूणमण्डल नामक एक छोटे से प्रदेश पर शासन कर रहे थे, भी विजय प्राप्त की। हूणमण्डल नामक यह लघु-प्रदेश तोरमाण और मिहिरकुल के विशाल सम्राट् का अन्तिम अवशेष था। मुञ्ज ने नद्दुल के चाहमानों पर आक्रमण किया और उनसे आबू पर्वत और आधुनिक जयपुर राज्य के दक्षिण में अनेक राज्यों को छीन लिया। उसने अन्हिलपाटन में चालुक्य वंश के संस्थापक मूलराज को भी हराया।
मुञ्ज ने अपने पड़ोस के राज्यों को जीत लेने के उपरान्त, चालुक्य नरेश तैल-द्वितीय पर आक्रमण करने का विचार किया। इस समय तैल-द्वितीय की शक्ति काफी अधिक बढ़ गई थी। उसने राष्ट्रकूटों से दक्कन का प्रदेश जीत लिया था और मालवा पर अपनी शक्ति का सिक्का जमाना चाहा। मुञ्ज ने तैल-द्वितीय की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिए उस पर छ: बार आक्रमण किये, परन्तु जब उसने, सातवीं बार अपने अनुभवी मंत्री की चेतावनी की उपेक्षा कर गोदावरी पार की तो वह बन्दी बना लिया गया। उसे कारावास में डाल दिया गया। मुञ्ज ने बाहर आने की योजनायें बना रखी थी, किन्तु उसकी योजनाओं की सूचना उसके शत्रु को मिल गई, जिससे उसका वध करा दिया गया। इस प्रकार राज्यारोहण के बीस वर्ष पश्चात् सन् 995 ई. में मुञ्ज को अपना दु:खद अन्त दखना पड़ा।
मुञ्ज राजपूत युग के हिन्दू शासकों में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है, यद्यपि उसकी मृत्यु अत्यन्त दु:खद परिस्थिति में हुई। वह एक महान् विजेता था, यह हम ऊपर देख चुके हैं। साहित्य में मुञ्ज का उल्लेख प्रचुरता से प्राप्त होता है। मेरुतुग के प्रबन्धचिन्तामणि नामक ग्रन्थ की अनेक कथाओं का वह चरितनायक है। मुञ्ज स्वयं कवि था और उसके द्वारा रचित पद्यों का संकलन काव्य-संग्रहों में मिलता है। कला और साहित्य का वह महान् संरक्षक और पोषक था। धनंजय, हलायुध, धनिक और पद्यगुप्त नामक कवि उसकी राजसभा को सुशोभित करते थे। पद्यगुप्त ने नवसाहसांकचरित् और घनञ्जय ने दशरूपक नामक ग्रन्थों का प्रणयन किया। धनिक दशरूपावलोक और हलायुध अभिधानरत्नमाला तथा मृतसंजीवनी के रचयिता थे। मुञ्ज के लिए यह भी कहा जाता है कि वह एक उदार शासक था। उसने अनेक बड़े-बड़े जलाशय खुदवाये और कई मन्दिरों का निर्माण कराया। सिंधुराज- मुंज के निधनोपरान्त उसका अनुज सिंधुराज सिंहासन पर बैठा। उसने चालुक्य नरेश सत्यात्रय तथा लाट नरेश गोंगिराज को पराजित किया। सिंधु राज ने कौशल के सोमवंशीय राजाओं को भी पदावनत किया। किन्तु वह गुजरात नरेश नामुण्डराज द्वारा पराजित हुआ। सिन्धुराज का लगभग 1000 ई. में देहावासन हो गया।
भोज- संस्कृत-साहित्य में भोज का नाम अमर है। भारत के सबसे विख्यात और लोकप्रिय शासकों में भोज की गणना की जाती है। उसका शासन-काल अर्द्ध-शताब्दी से भी अधिक समय तक रहा। भोज अपने समय का एक पराक्रमी योद्धा था, किन्तु अपनी सैनिक सफलताओं के द्वारा भी वह अपने राज्य की सीमा का विस्तार अधिक न कर सका। हां, यह अवश्य है कि सैनिक-कार्यों ने समकालीन नरेशों के बीच उसकी ख्याति जमा दी। भोज ने कल्यानी के चालुक्य नरेश जयसिंह-द्वितीय को परास्त करके मुञ्ज की हार का बदला लिया। भोज ने कलिंग के गड्डों के एक सामंत इन्द्र्रथ और उत्तरी कोंकण के शासकों को हराया। गांगेयदेव और राजेंद्र चोल से उसने मित्रता स्थापित की जिससे वह अपने चिरशत्रु दक्कन के चालुक्यों से लोहा ले सके। प्रारम्भ में तो भोज को अवश्य सफलता प्राप्त हुई किन्तु बाद में अपने राजाओं के साथ पीछे लौटने के लिये उसे विवश होना पड़ा। बाद में चालुक्य नरेश सोमेश्वर ने भोज के राज्य पर आक्रमण करके उससे बदला लिया। माण्डू का सुदृढ़, उज्जैन की प्रसिद्ध नगरी और परमार राज्य की राजधानी धारा नगरी, इन सब पर सोमेश्वर का अधिकार हो गया और उसने इनकों खूब लूटा-खसोटा। चंदेलों, ग्वालियर के कच्छपघाटों और कन्नौज के राष्ट्र्कुतों के विरुद्ध युद्ध में उसे विफलता ही प्राप्त हुई। शाकम्भरी के चाहमान नरेशों के विरुद्ध युद्ध में उसे कुछ सफलता प्राप्त हुई। नद्दुल के चाह्मानों द्वारा गहरी पराजय सहन करनी पड़ी। भोज ने गुजरात के भीम-प्रथम तथा लात की किर्तिराज को परस्त किया। 1043 ई. में उसने कुछ अन्य हिन्दू नरेशों की सहायता से मुसलमानों से हाँसी, थानेश्वर तथा नगरकोट छीन लिया। उदयपुर की प्रशस्ति में भोज की विजयों का अतिरंजनापूर्ण वर्णन है और उसे कैलाश तथा मलय भूमि का विजेता कहा गया है। निस्संदेह यह प्रशस्ति ऐतिहासिक तथ्य से दूर है। वास्तव में भोज को युद्ध में जितनी विजयें प्राप्त हुई, लगभग उतनी ही पराजयों को भी उसने सहन किया। हाँ, यह अवश्य है कि एक सच्चे वीर की भाँति भोज ने विशेष महत्त्व नहीं दिया। अपनी विजयों द्वारा उसने अपने समय आंतकित किया और साथ ही साथ उसकी पराजयों ने उसके सैन्य-जीवन अपयश भी लगाया। उसके सेनानायकों, कुलचन्द्र, साद और सूरादित्य ने उसके राज्य-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। भिज का राज्य बंसवाड़ा से लेकर नासिक तक और कैर से लेकर भिलसा तक फैला हुआ था। अपने सैन्य जीवन में भोज को एक दुखद अन्त देखना पड़ा।
भोज को अपने पश्चिम के पड़ोसी राज्य चालुक्य के विरोध में प्रारम्भ में कुछ सफलता प्राप्त हुई, परन्तु चालुक्य नरेश भीम ने भोज का सामना करने में चतुर कूटनीति का अवलम्बन लिया। उसने भोज के पूर्वीय पड़ोसी राज्य कलचुरि से मित्रता स्थापित कर ली। कलचुरि नरेश कर्ण को साथ लेकर भीम ने पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं से भोज के राज्य पर धावा बोल दिया। भोज ने इस आक्रमण का सामना करने की तैयारी की परन्तु वह काफी वृद्ध हो चला था और आजीवन युद्ध करते रहने से शरीर भी शिथिल हो गया था। अतएव उसे रोग ने धर दबाया 1055 ई. में उसका देहान्त हो गया। भोज शिक्षा और संस्कृति का महान संरक्षक था। वह शैव था। उसने धर नगरी का आकार बढ़ाया तथा भोजपुर नगर की स्थापना की। इस नगर के निकट उसने 250 वर्ग मिल क्षेत्र में एक विशाल झील का निर्माण कराया था। मालवा के सुल्तान हुशंग शाह ने 15 वीं शताब्दी में इस झील को सुखा कर कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित कर दिया। भोज के नाम पर एक शिवमन्दिर आज भी उस स्थान पर विद्यमान है। सम्भवत: धार का लौह-स्तम्भ (43 फीट-4इंच) उसके शासन-काल में बनाया गया था। भोज के सरस्वती मन्दिर में मां सरस्वती की जो प्रतिमा बनाई गई थी, वह ब्रिटिश म्यूजियम लन्दन में आज भी सुरक्षित है। इतिहासकार डॉ. गांगुली ने भोज का मूल्यांकन करते हुए लिखा है- जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में भोज को, ये सब उपलब्धियां उसे मध्यकालीन भारत के महान् सम्राटों में प्रतिष्ठापित करती हैं। उसने धार में एक सरस्वती मंदिर एवं संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की।
उसके बारे में यह प्रचलित है की वह हरेक कवि को प्रत्येक श्लोक के लिए एक लाख रूपये देता था। उसके दरबार में भाष्कर भट्ट, दामोदर मिश्र और धनपाल जैसे विद्वान् रहते थे। आयुर्वेदसर्वस्व, समरंगण सूत्रधार, राजमृगांक, व्यवहार समुच्चय, शब्दानुशासन, सरस्वती कंठाभरण, नाममालिका, युक्तिकल्पतरु जैसे ग्रन्थों को लिखने का श्रेय भी उसे जाता है। उसकी मृत्यु से विद्या और विद्वान् दोनों निरक्षित हो गए। वह शस्त्र विद्या और शास्त्र विद्या दोनों मे पारंगत था, कमल-कृपाण दोनों का योद्धा था। भोज की रानी अस्न्धती भी एक उच्च कोटि की विदुषी थी। उसकी मृत्यु पर एक विद्वान् ने अपने उद्गार इन शब्दों में व्यक्त किए थे- असधारा निराधारा निरालम्ब सरस्वती पंडित खण्डिता, सर्वे भोजराज दिवंगते। अर्थात्- भोजराज के निधन हो जाने से आज धारनगरी निराधार हो गई है। सरस्वती बिना किसी अवलम्ब के हो गई है और सभी पण्डित खण्डित हो गए हैं।’
भोज के उत्तराधिकारी- भोज का उत्तराधिकारी जयसिंह एक ऐसे समय में मालवा के परमार राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ जिस समय राज्य को चालुक्य और कलचुरि आतंकित किए थे। जयसिंह ने ऐसी कठिन परिस्थिति में अपने दक्षिणी पड़ोसियों, दक्कन के चालुक्यों से सहायता की याचना की। दक्कन के चालुक्यों ने अपना पुराना बैर भुलाकर जयसिंह की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और राजकुमार विक्रमादित्य ने मालवा को उसके शत्रुओं से मुक्त कर दिया। उदयादित्य ने, जो सम्भवत: भोज का भाई था, सिंहासन पर अनुचित तरीकों से अपना अधिकार जमा लिया। उसने मालवा की गिरती शक्ति को संभालने का प्रयत्न किया। उसने उदयपुर में नीलकण्ठेश्वर मन्दिर का निर्माण कराया जो अब भी अच्छी स्थिति में विद्यमान है और उस युग के उत्तर भारत की वास्तुकला का सुन्दर नमूना प्रस्तुत करता है। इन्दौर के एक गांव उन में बहुत से जैन और हिन्दू मन्दिर हैं जिनमें से अधिकांश का निर्माण सम्भवतः उदयादित्य ने कराया था।
उदयादित्य के उपरान्त लक्ष्मणदेव मालवा का नरेश हुआ। उसने यशकर्ण कलचुरि और कदाचित् चोलों तथा गजनी के महमूद के वंशजों पर विजय प्राप्त की। नरवर्मन और यशोवर्मन लक्ष्मणदेव के बाद मालवा के उत्तराधिकारी हुए जिनकी ज्ञात तिथि क्रमश: 1097-1111 और 1134-1142 है। इस काल में मालवा के ऊपर सोलंकियों ने अपना अधिकार जमा लिया और 1137 से लेकर 1173 तक उस पर उनका अधिकार स्पष्ट है। यशोवर्मन की मृत्यु के बाद परमारों का राज्य उसके उत्तराधिकारियों के बीच विभाजित कर दिया गया।
अर्जुनवर्मन के समय में मालवा का प्राचीन वैभव कुछ अंशों में लौट आया। अमरुशतक पर एक टीका अर्जुनवर्मन ने स्वयं लिखी और उसके शासन-काल में पारिजातमञ्ज नामक नाटक लिखा गया, जो अपने पूर्ण रूप में आज उपलब्ध नहीं है, परन्तु यह पाषाणस्तम्भों पर उत्कीर्ण कराया गया था, अतएव इसके कुछ अंश अब भी मिलते हैं। अर्जुनवर्मन की मृत्यु के पश्चात् परमारों की शक्ति धीरे-धीरे गिरने लगी। सन् 1234 में इल्तुतमिश ने और 1292 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा को खूब लूटा। इसके बाद मालवा की हिन्दू-सत्ता का नाश हो गया।