राजपूत राज्यों में प्रशासन Administration in the Rajput State

शासन का स्वरूप- राजपूत राज्य सामन्तवादी प्रथा पर आधारित थे। राजपूत राज्य कई जागीरों में बंटा हुआ था और ये जागीरदार या तो राजवंश के ही कुमार होते थे अथवा आसपास के राज्यों से राजा की सेवा में आये हुए वीर सैनिक होते थे। ये सामन्त राजा के प्रति व्यक्तिगत श्रद्धा से जुड़े होते थे। संकट के समय ये राजा की सेना की सहायता करते थे और अपना सब कुछ राजा पर अर्पित करने को तैयार रहते थे।

राजा को सामन्त नियमित रूप से वार्षिक कर देते थे। प्रत्येक उत्सव के समय ये राज-दरबार में उपस्थित होकर राजा को नजराना देते थे। अनुपस्थित होने पर इन्हें विद्रोही समझकर इनकी जागीरें तक जब्त की जा सकती थीं। राजद्रोह, युद्ध से पलायन अथवा अत्याचारी शासन-प्रबन्ध के कारण भी राजा जागीर जब्त कर सकता था। ये सामन्त राजा की शक्ति का प्रमुख स्रोत थे और राज्य में शांति-व्यवस्था बनाये रखने में राजा को सहयोग देते थे। अपनी जागीर में इन सामन्तों को प्रायः स्वतन्त्र अधिकार प्राप्त थे। ये न्याय भी करते थे। राजा के यहाँ इनके विरुद्ध फरियाद सुनी जा सकती थी।

निरंकुश राजतन्त्र राजपूत राज्यों में प्रचलित था। राजा को असीमित अधिकार प्राप्त थे। वह अपने राज्य का सर्वोच्च अधिकारी प्रमुख सेनापति और मुख्य न्यायाधीश था। सभी पदों पर नियुक्तियां राजा द्वारा होती थीं। राजा को प्रशासन में परामर्श देने के लिए मन्त्रिपरिषद् होती थी, परन्तु राजा मन्त्रिपरिषद् के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं था। निरंकुश होते हुए भी राजा प्रजा की रक्षा तथा जनकल्याण को अपना प्रमुख कर्त्तव्य समझते थे।

सैनिक प्रशासन- सैनिक संगठन भी राजपूत राज्यों का दोषपूर्ण था। राजा की व्यक्तिगत सेना कम होती थी। राजा की शक्ति सामन्तों की संयुक्त सेना पर ही निर्भर थी। दूसरे देशों में प्रचलित युद्ध के तरीकों से राजपूत राजा अनभिज्ञ थे। युद्ध क्षेत्र में वे आदशों और नैतिकता पर जोर देते थे, जैसे धर्मयुद्ध करना, आन पर मिट जाना, भागे हुए पर पीछे से वार न करना, शरणागत की रक्षा करना इत्यादि।

पैदल, घुड़सवार और हाथी राजपूत सेना में होते थे। घुड़सवार सैनिकों की संख्या कम थी और उनके घोड़े तुर्क आक्रमणकारियों की अपेक्षा घटिया किस्म  के होते थे। हाथियों की संख्या सेना में अधिक होती थी और तब तुर्क सैनिक हाथियों की आंखों को अपने तीरों का निशाना बनाते थे, तो ये हठी घाव लगने पर अपनी सेना की ओर ही दौड़ते थे। राजपूत युद्ध प्रणाली दोषपूर्ण थी। राज्य की सेना में अधिकतर संख्या सामन्तों द्वारा प्रदत्त सैनिक दस्तों की रहती थी। अतः उनमें एकता की भावना का अभाव था।

युद्ध करना राजपूत अपना महान् कर्त्तव्य समझते थे। वे आपस में ही घोर युद्धों में व्यस्त रहते थे और कभी-कभी इन युद्धों के परिणाम भयंकर होते थे। राजपूतों में राष्ट्रीय चेतना तथा राजनैतिक जागरण का अभाव था और इसी कारण वे विदेशी आक्रमणकारियों का मुकाबला संयुक्त रूप से न कर सके।

राज्य के आय के साधन- भूमिकर राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था। विभिन्न  राज्यों में भूमिकर की दरें विभिन्न थीं। राजपूत काल में राजदरबार, महल और निरंतर युद्धों पर बढ़ते हुए खर्च की पूर्ति के लिए भूमिकर में भी वृद्धि करनी आवश्यक हो गई। भूमिकर उपज का 1/6 भाग से 1/3 भाग तक लिया जाता था। बिक्री कर और व्यवसाय कर भी लिया जाता था। राज्य को उद्योग-धन्धों और व्यापार से भी आय होती थी। सामन्तों से प्राप्त वार्षिक कर, उपहार और आर्थिक दण्ड राज्य की आय के अन्य साधन थे। राज्य की आय का अधिकांश भाग युद्धों, सेना के रखरखाव, राजमहल और दान पर खर्च होता था। किलों और मंदिरों के निर्माण पर भी राजपूत राजा खर्च करते थे।


न्याय व्यवस्था- दण्ड-विधान कठोर था। न्याय धर्मशास्त्रों और परम्पराओं के अनुसार किया जाता था। राज्य में सरकारी अदालतों का जाल बिछा रहता था जहां न्यायाधीश न्याय करते थे। प्राचीन हिन्दू धर्मशास्त्रों का न्याय करते समय सहारा लिया जाता था। ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी। ग्राम पंचायत ग्रामों में होती थीं जो दीवानी और फौजदारी दोनों प्रकार के मुकदमों का फैसला करती थीं। पंचायत से सन्तुष्ट न होने पर ऊपर की अदालत में अपील की जा सकती थी। यहां भी न्याय न मिलने पर प्रजा राजा के पास अपनी फरियाद कर सकती थी। मुकदमों के रिकार्ड्स नहीं रहे जाते थे और न्याय मुख्या रूप से मौखिक होता था। आजकल के मुकाबले न्याय जल्दी मिलता था और निर्णय खुले आम सुनाया जाता था। चोरी, डकैती और हत्या के मामलों में स्थानीय उत्तरदायित्व पर जोर दिया जाता था। जिस गांव में चोरी होती थी या लूटमार होती थी, वहां के निवासियों से सामूहिक रूप से हर्जाना वसूल किया जाता था। चोरी और डकैती की घटनाएं कम होती थीं। न्यायालय द्वारा घोषित अपराधियों को कारावास, राज्य से निष्कासन, आर्थिक जुर्माना, शारीरिक यातना जिसमें अंग-भंग भी था और मृत्यु दण्ड की सजाएं दी जाती थीं।

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