संगम काल में समाज, धर्म एवं आर्थिक व्यवस्था Society, Religion And Economics In Sangam Period
सामाजिक व्यवस्था
प्राचीन तमिल समाज का स्वरूप मूलत: जनजातीय था। परन्तु कृषि क्षेत्र धीरे-धीरे परिवर्तन हो रहा था। धीरे-धीरे पुरानी नातेदारी व्यवस्था टूट एवं वैदिक वर्ण व्यवस्था स्थापित हो रही थी, किन्तु संगम युग में स्पष्ट से वर्ण विभाजन देखने को नहीं मिलता है। क्षत्रिय और वैश्य वर्ण नहीं थे।
संगम जातियाँ- संगम युग में सेनानायक को एनादि की उपाधि दी जाती थी। चोल और पांडय राज्यों में सैनिक और असैनिक दोनों प्रकार के अधिकारियों के पद पर बेल्लार या धनी किसान की नियुक्ति की जाती थी। शासक वर्ग को अरसर कहा जाता था और इस वर्ग के लोगों के बेल्लारों से वैवाहिक संबंध होते थे। खेत मजदूर को कडेसियर कहा जाता था। खेत मजदूरों के लिए आटियौर और विलय वल्लार शब्द मिलते हैं। इनके अतिरिक्त अनेक व्यवसायिक वर्ग भी थे। पुलैयन (जाति) रस्सी की चारपाई बनाते थे। तमिल प्रदेश की उत्तरी सीमा पर मलवर नामक लोग रहते थे, उनका पेशा डाका डालना था। अनियार शिकारियों की जाति थी। संगम युग में हमें तीव्र सामाजिक विषमता का बोध होता है। धनी लोग ईंट और सुरखी के मकानों में और गरीब लोग झुग्गी-झोपड़ियों में रहते थे। अस्पृश्यता थी, परन्तु दास प्रथा नहीं थी। कुछ विशेष पेशों के अन्तर्गत आने वाले लोगों में लोहार (कोल्लम), बढ़ई (तच्चन), नमक का व्यापारी (कबन), अनाज का व्यापारी (कुलवा), वस्त्रों का व्यापारी (बैवानिकम) और स्वर्ण व्यापारी (पोन, वाणिकम्) थे। बाद में ये व्यापारी वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत आ गए। तोल्कापियन में वर्णन मिलता है कि तमिल समाज वर्णों में विभाजित था। इसके अनुसार विवाहों को आर्य द्वारा एक संस्कार के रूप में स्थापित किया गया था। (तमिल देश में) स्त्री और पुरुष के सहज प्रणय को पाँच तिन्नई कहा जाता था। एक पक्षीय प्रेम को कक्किरै कहा जाता था। औचित्यहीन प्रेम को पेरून्दिणे कहा जाता था।
आर्थिक व्यवस्था
उपहार के द्वारा आर्थिक पुनर्वितरण होता था। समृद्ध और शक्तिशाली वर्ग में तीन प्रकार के लोग थे वेतर, वेलिट, वेल्लार।
व्यापार– लेन-देन का सबसे सामान्य तरीका वस्तु विनिमय था। तमिल प्रदेश में वस्तु विनिमय प्रणाली में ऋण व्यवस्था नहीं थी। किसी वस्तु पर निश्चित राशि का ऋण लिया जा सकता था। बाद में उसी प्रकार तथा उसी मात्रा में वही वस्तु लौटा दी जाती थी। यह प्रथा कुरीटिरपरई कहलाती थी। विनिमय दर निश्चित नहीं थी। धान और नमक दो ही ऐसी वस्तुएँ थीं, जिसकी निश्चित विनिमय दर थी। धान की समान मात्रा के बराबर नमक दिया जाता था।
दूरस्थ व्यापार- उत्तर भारत एवं सुदूर दक्षिण के बीच व्यापार की चर्चा चौथी ई.पू. से ही ज्ञात होती है। प्राचीन बौद्ध ग्रंथों से जिस मार्ग का संकेत मिलता है वह गंगा घाटी से गोदावरी घाटी तक जाता था। यह दक्षिणापथ के नाम से जाना जाता है। कौटिल्य ने दक्षिण मार्ग के अनेक नाम गिनाए है। उत्तर और दक्षिण के बीच व्यापार के अधिकांश मुद्दे विलास की वस्तुएँ थीं, जैसे मोती, रत्न और स्वर्ण। उत्तम किस्म के वस्त्रों का व्यापार भी होता था। उत्तर के उत्तरी काली मृदभांड सुदूर दक्षिण में भी लोकप्रिय था। दक्षिण भारत में भी आहत सिक्के मिले हैं।
विदेश व्यापार- निर्यात की वस्तुएँ, मसाले, रत्नमणि, इमारती लकड़ी और हाथी दांत थे। पेरीप्लस के अनुसार टिंडिस, मुजरिस, नेलसिंडा पश्चिम समुद्र तट पर महत्त्वपूर्ण बंदरगाह थे। पेरीप्लस अरगूडु या उरैयूर नामक स्थान की भी चर्चा करता है। यहाँ से अरगटिक नामक मलमल का निर्यात होता था। लेखक आगे कहता है, मलमल बहुत बड़े पैमाने पर मसालिया में होता था। उत्तर में बसे प्रदेश दोसरने (उड़ीसा) का विशेष उत्पादन हाथी दांत था। चोल राज्य में पुहार (कावेरीपटनम्) पांडय युग में शालीयूर और चेर राज्य में बंदर नामक बंदरगाह प्रमुख है। चेरों की प्राचीन राजधानी करुयुर (बंजीपुर) से रोमन सामग्री प्राप्त होती है। मुजरिस में रोमन सम्राट् अगस्त्य का मंदिर रोमनों के द्वारा बनाया गया है। विरूक्काम्पलिया नामक स्थान चोर चेल और पांड्य राज्य के संगम स्थल के रूप है। रोम के अतिरिक्त मिस्र, अरब, चीन और मालद्वीव के साथ व्यापार होता था। इस समय व्यापारिक (स्थल मार्ग) कारवां का नेतृत्व करने वाले सार्थवाह को बासातुस्बा एवं समुद्री सार्थवाह मानानिकम कहा जाता था।
सिक्के- प्राचीन तमिल साहित्य में कुछ सिक्कों की भी जानकारी मिलती है, उदाहरण के लिए काशु, कनम, पोन और वेनपोन। दस्तकारों को अपने उत्पादों पर शुल्क देना पड़ता था उसे कारूकारा कहा जाता था।
माप और तौल- भूमि निर्वतन के अनुसार मापी जाती थी। सुदूर दक्षिण में मा और वेली भूमि के माप थे। यहाँ कर देने के लिए अनाज को अम्बानम् में तौला जाता था। संभवतः यह बड़ा तौल था। छोटे तौल के रूप में नालि, उलाकू और अलाक प्रचलित थे।
धर्मं
ऋग्वेद में उल्लेखित उत्तरी भारत में आर्य-दस्यु संघर्ष के समान उत्तर और दक्षिण भारत के सांस्कृतिक संपर्क में संघर्ष के तत्त्व नहीं मिलते। अगस्त्य और कौडीन्य ऋषि का दक्षिण भारत से पर्याप्त संबंध (संपर्क) रहा है। वहाँ अनेक मंदिर अगस्तेश्वर नाम से प्रसिद्ध है, जहाँ शिव की मूर्तियाँ स्थापित हैं। एक परंपरा के अनुसार पांड्य राजवंश के पुरोहित अगस्त्य वंश के पुरोहित होते थे। ऐसी ही एक परम्परागत अनुश्रुति में ऐसा माना जाता है कि तमिल भाषा तथा व्याकरण की उत्पत्ति अगस्त्य ने की। पुरनानुरू तथा तोल्कापियम के अनुसार अगस्त्य का संबंध द्वारका से था। महाभारत या पुराणों में भी दक्षिण में कृषि के विस्तार से अगस्त्य का संबंध स्पष्ट जोड़ा गया है।
तमिल देवता- दक्षिण भारत में मुरूगन की उपासना सबसे प्राचीन है। बाद में मुरूगन का नाम सुब्रमण्यम हो गया और स्कद-कार्तिकेय से इस देवता का एकीकरण हो गया। पुहार में इन्द्र के सम्मान में उत्सव मनाया जाता था। कोरनाबाई, विजय की देवी थी। मुरूगन शिकार के देवता थे। बहेलिए जाति के लोग कोर्रलै की उपासना करते थे तथा पशुचारक कृष्ण की पूजा करते थे।
उस समय पूजे जाने वाले मुख्य देवता इस प्रकार थे- कुरुंजि (पर्वत)-मुरूगन, पल्लै (निर्जलस्थल)-कोरनावाई, मुल्लै (जंगल)-मेयन (विष्णु), मरूदम (जुते क्षेत्र)-इन्द्र, नेयतल (समुद्रतट)-वरूण।
इस प्रकार संगम साहित्य हमें दक्षिण के राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति का बोध कराता है। इस साहित्य ने भारतीय साहित्य की न केवल धरोहर में वृद्धि की है बल्कि तत्कालीन समाज का सही चित्रण करके भारतीय इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी का कार्य किया है।