वैदिक साहित्य Vedic Literature

आर्यों के सम्बन्ध में समस्त ज्ञान वेदों से प्राप्त होता है। वैदिक साहित्य से तात्पर्य उस विपुल साहित्य से है जिसमें वेद, ब्राह्मण, अरण्यक एवं उपनिषद् शामिल हैं। वेद शब्द विद् धातु से बना है जिसका अर्थ होता है जानना अर्थात् ज्ञान। वेद ऐसा साहित्यिक भंडार है जो अनेक शताब्दियों के बीच विकसित हुआ जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी लोग कंठस्थ कर सुरक्षित रखते आये हैं। इसीलिए को श्रुति भी कहा जाता था। वैदिक साहित्य को हम दो भागों में बाँटते हैं मंत्र और ब्राह्मण। मंत्र चारों वेदों में संकलित हैं और ब्राह्मण का अर्थ होता है मंत्र से संबंधित ज्ञान। ब्राह्मण को हम तीन भागों में बाँट सकते हैं- ब्राह्मण, अरण्यक और उपनिषद्। ब्राह्मण गद्य ग्रन्थ हैं जिसमें यज्ञ का अनुष्ठानिक महत्त्व दर्शाया गया है।

ऋग्वेद- यह सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण वैदिक ग्रन्थ है। इसमें 1017 सूक्त हैं और अगर बालखिल्य सूक्त को जोड़ देते हैं तो इसकी संख्या 1028 हो जाती है। अष्टम मण्डल में 49वें से 56वें तक आए हुए सूक्त बालखिल्य सूक्त कहलाते हैं। ये सूक्त बाद में जोड़े गए प्रतीत होते हैं। इन सूक्तों को स्वाध्याय के समय पढ़ने का विधान है। इसमें प्रार्थनाएँ संकलित हैं, यह 10 मंडलों में विभाजित है। मंडल दूसरे से सातवें तक ऋग्वेद के पुराने अंश हैं। प्रत्येक मंडल किसी न किसी ऋषि से जुड़ा है। दूसरा मंडल गृत्समद को, तीसरा मंडल विश्वामित्र को, चौथा मंडल बामदेव को, पाँचवां मंडल अत्रि को, छठा मंडल भारद्वाज को, सातवाँ मंडल वशिष्ठ को अर्पित है। चतुर्थ मंडल के तीन मंत्रों की रचना तीन राजाओं ने की है। इनके नाम हैं- त्रासदस्यु, अजमीढ़ और पुरमीढ़। आठवाँ मण्डल ऋषि कण्व एवं अगिरा से जुड़ा हुआ है। नौवां मण्डल सोम को समर्पित है। ऋग्वेद का पाठ होता या होतृ नाम पुरोहित करते थे। लोपामुद्रा, घोषा, सच्ची, पौलोमी, कक्षावृत्ति- ये पाँच स्त्रियाँ ऋग्वेद की कतिपय ऋचाओं की रचना थीं। ऋग्वेद की तिथि का निर्धारण काफी विवादास्पद रहा है। जहाँ जर्मन विद्वान् जैकोली ने ज्योतिष विज्ञान के आधार पर ऋग्वेद का तिथि निर्धारण 4520 ई.पू. किया है, तिलक ने भी यही निष्कर्ष निकाला है। मैक्समूलर ने ऋग्वेद का रचनाकाल (1200-1000 ई.पू.) ब्राह्मण ग्रंथों का काल 800-600 ई.पू. तथा सूत्र साहित्य का काल 600-200 ई.पू. निर्धारित किया है। र्विटरनित्स वैदिक साहित्य का प्रारंभिक काल 2500 ई.पू. माना है। हाल ही में नई एन.सी.ई.आर. टी. के लेखक मक्खन लाल ने ऋग्वेद को 3000 ई.पू. की रचना माने जाने का संकेत दिया है, लेकिन अभी यह विवाद से मुक्त नहीं है। इस संदर्भ में बहुमान्य मत 1500 ई.पू. का है।

ऋक् का अर्थ है छन्दों तथा चरणों से युक्त मंत्र। इस प्रकार ऋग्वेद से तात्पर्य ऐसे संग्रह से है जो छन्दों अथवा ऋचाओं में आबद्ध हो। ऋग्वेद की संहिताओं में शाकल संहिता एकमात्र उपलब्ध संहिता है- ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ हैं- शाकाल, वाष्कल, आश्वलायन, शंखायन तथा मांडूक्य।

ब्राह्मण ग्रन्थ- ऋग्वेद के अपने दो ब्राह्मण है, ऐतरेय ब्राह्मण, दूसरे शांखायन अथवा कौशीतकी ब्राह्मण। ऐतरेय ब्राह्मण के साथ ऐतरेय उपनिषद् भी सम्बद्ध है। इसी तरह कौषीतकि ब्राह्मण में कौषीतकि आरण्यक भी सम्मिलित है, जिसका एक अंश कौषीतकि उपनिषद् के नाम से जाना जाता है।

सामवेद- कुल 75 सूक्तों को छोड़कर शेष सूक्त ऋग्वेद से लिए गये हैं और उन्हें गाने योग्य बनाया गया है। यह भारतीय संगीत शास्त्र पर प्राचीनतम पुस्तक थी। इसका पाठ उदगाता या उदगातृ नामक पुरोहित करते थे। सामवेद के तीन पाठ (वाचनाएँ) हैं, गुजरात की कोंथुम संहिता, कर्नाटक की जैमिनीय संहिता एवं महाराष्ट्र की राणायनीय संहिता। सामवेद का प्रधान भाग हैं- आर्चिक तथा गान। आर्चिक का अर्थ है ऋचाओं का समूह। आर्चिक के दो पूर्वाचिक जेमिनी को माना जाता है। कालांतर में इसके रहस्य को जानने के लिए सामवेद को जानना जरूरी है। सामवेद के इसी महत्व की ओर संकेत करते हुए श्री कृष्ण ने कहा कि- मैं वेदों में सामवेद हूँ।

ब्राह्मण- प्राचीनतम ब्राह्मणों में सबसे महत्त्व का तांड्य महाब्राह्मण है, इसमें पच्चीस अध्याय हैं। इसी तरह षडविंश ब्राह्मण पञ्चविंश ब्राह्मण में एक जोड़ मात्र कहा गया है। इसी प्रकार जैमिनीय ब्राह्मण का उललेख किया जा सकता है। छान्दोग्य उपनिषद् जिसका प्रथम भाग आरण्यक है, इसका सम्बन्ध सामवेद के तांड्य महाब्राह्मण से है।

यजुर्वेद- यह एक गद्य ग्रंथ था। इसमें यज्ञ की विधियों पर बल दिया गया था। इसके दो भाग हैं- कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद। काठक संहिता (कठ संहिता), मैत्रायिणी संहिता एवं तैत्तिरीय संहिता कृष्ण यजुर्वेद से संबंधित है जबकि वाजसनेयी संहिता- शुक्ल यजुर्वेद से संबंधित है। यजुर्वेद से संबंधित पुरोहित अर्ध्वयु था। वह इसका पाठ भी करता था और साथ ही कुछ हस्तकार्य भी करता था। चौथा पुरोहित ब्रह्मा होता जो यज्ञ का निरीक्षण करता था और यह देखता था कि मंत्रों का उच्चारण हो रहा है अथवा नहीं। जहाँ ऋग्वेद और अन्य दो संहिताओं में परलोक संबंधी विषयों का प्रतिपादन किया गया है, वही अथर्ववेद लोकिक फल देने वाली भी है। इसमें मानव जीवन को सुखी और दु:खरहित बनाने के लिए किए जाने वाले अनुष्ठानों का उल्लेख मिलता है। अथर्वा नामक ऋषि इसके प्रथम द्रष्टा हैं और इन्हीं के नाम पर इसे अथर्ववेद की संज्ञा दी गई। इसके दूसरे द्रष्टा अंगिरस ऋषि हैं और इस कारण इस वेद को अथवागिरस वेद भी कहा जा सकता है।


ब्राह्मण ग्रन्थ- तैत्तिरीय ब्राह्मण कृष्ण यजुर्वेद से सम्बद्ध है एवं मूल संहिता में ब्राह्मण भी निबद्ध है। शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित शतपथ ब्राह्मण सर्वाधिक दीर्घाकार ही नहीं, ब्राह्मण ग्रन्थों में सबसे महत्त्व का है। इसमें न केवल प्राचीन भारत के यज्ञ विधानों का विवेचन मिलता है बल्कि इनसे तत्कालीन धर्म और दर्शन, विचारधारा, रहन-सहन एवं रीति रिवाजों का भी पता चलता है। तैत्तिरीय आरण्यक तैत्तिरीय ब्राह्मण का प्रायः क्रमागत अगला अंश है तथा उसके अन्तिम भाग है- तैत्तिरीय उयनिषद् और महानारायण उपनिषद्। महानारायण उयनिषद् तुलनात्मक दृष्टि से बहुत परवर्ती रचना है। शतपथ ब्राह्मण के 14वें काण्ड का एक भाग बृहदारण्यक उपनिषद् है। मैत्रायणी, काठक एवं श्वेताश्वतर उपनिषद्, कृष्ण यजुर्वेद से सम्बद्ध है। इशोपनिषद् वाजसनेयी संहिता का एक भाग है।

अथर्ववेद- यह निम्न स्तरीय संस्कृति से जुड़ा हुआ था। अत: इसे वह प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं थी जो अन्य वेदों को प्राप्त थी। ऊपर के तीनों वेदों की त्रयी कहा जाता था और इसे उससे बाहर रखा गया है। इसका कारण है कि तीनों वेदों का संबंध वैदिक यज्ञों से था जबकि अथर्ववेद में तंत्र-मंत्र थे। इस वेद में तत्कालीन भारतीय औषधि एवं विज्ञान संबंधी जानकारी। इसमें अंग और मगध जैसे पूर्वी क्षेत्रों का उल्लेख हुआ है। अथर्ववेद के पाठ उपलब्ध हैं- (1) और (2) पैप्लादि। जहाँ ऋग्वेद और अन्य दो संहिताओं में परलोक सम्बन्धी विषयों का प्रतिपादन किया गया गया है, वहीँ अथर्ववेद लोकिक फल देने वाला भी है। इसमें मानव जीवन को सुखी और दु:खरहित बनाने के लिए, किए जाने वाले अनुष्ठानों का उल्लेख मिलता है। अथवा नामक ऋषि इसके प्रथम द्रष्टा हैं और इन्हीं के नाम पर इसे अथर्ववेद की संज्ञा दी गई। इसके दूसरे द्रष्टा अंगिरस ऋषि हैं और इस कारण इस वेद को अथर्वागिरस वेद भी कहा जा सकता है।

अथर्ववेद में बीस काण्ड, 731 सूक्त तथा 5987 मंत्रों का संग्रह है। इनमें से लगभग 1200 मंत्र ऋग्वेद से लिये गये हैं। इसकी कुछ ऋचाएँ यज्ञ संबंधी तथा ब्रह्मविद्या विषय से सम्बन्धित हैं। इसी कारण इसे ब्रह्मवेद भी कहा जाता है। किन्तु इसके अधिकांश मंत्र लौकिक जीवन से सम्बन्धित हैं। इसमें आर्य और आर्येतर तत्वों के बीच समन्वय के संकेत भी प्राप्त होते हैं।

ब्राह्मण- अथर्ववेद के प्राचीन ब्राह्मण ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। इसके ब्राह्मण नाम से ज्ञात गोपथ ब्राह्मण को वेदांग साहित्य से सम्बद्ध माना गया। इसके तीन उपनिषद् हैं- मुण्डक, प्रश्न एवं माण्डूक्य, ये तीनों अपेक्षाकृत पीछे की रचनाएँ हैं।

अरण्यक- अरण्य (जंगल) से बना है, जिसका अभिप्राय है वन में लिखे हुए शास्त्र। ये ग्रन्थ सम्भवत: वृद्ध ऋषियों द्वारा लिखे गये थे जो जीवन के अन्य कायों से निवृत होकर वनों में निवास करने लगते थे एवं उनके लिए आवश्यक साधन सामग्री के अभाव में जटिल कर्मकाण्ड युक्त अनुष्ठानादि करना सम्भव नहीं था। इसमें से कुछ तो ब्राह्मण ग्रन्थों में ही निहित हैं अथवा उनसे सम्बद्ध हैं और कुछ स्वतंत्र रचना के रूप में पाये जाते हैं। आरण्यकों में आत्मा, परमात्मा, संसार और मनुष्य सम्बन्धी ऋषि मुनियों के दार्शनिक विचार निबद्ध हैं। इस प्रकार इन ग्रन्थों ने उपनिषदों के विकास के लिए उचित पृष्ठभूमि तैयार कर दी। इसके अतिरिक्त वेदों के दार्शनिक मनन का सूत्रपात भी किया जिसके कारण हिन्दू उपनिषद् हिन्दू विचार दर्शन के महान् स्रोत के रूप में विकसित हो पाये।

उपनिषद्- उपनिषद् शब्द का अर्थ है वह शास्त्र या विद्या जो गुरु के निकट बैठकर एकांत में सीखी जाती है। उपनिषद् ज्ञान पर बल देता है एवं ब्रह्म एवं आत्मा के संबंधों को निरूपित करता है। उपनिषदों की रचना की परंपरा मध्य काल तक चलती रही। माना जाता है कि अल्लोपनिषद् अकबर के युग में लिखा गया। अत: उपनिषदों की संख्या बहुत बड़ी है। मुक्तिका उपनिषद् के अनुसार कुल 108 उपनिषद् हैं। शंकराचार्य ने 11 उपनिषदों पर टीकाएँ लिखी हैं। 13 उपनिषद् बहुत महत्त्वपूर्ण है इसमें से दो ऐतरेय एवं कौषतिकी उपनिषद् ऋग्वेद से संबंधित है। दो अन्य छांदोग्य एवं केन उपनिषद् सामवेद से संबंधित हैं। चार, तैत्तिरीय, कठ, श्वेताश्वतर तथा मैत्रायिणी का संबंध कृष्ण यजुर्वेद से है, तो वृहदारण्यक तथा इश उपनिषद शुक्ल यजुर्वेद से। मुंडक, मांडुक्य एवं प्रश्न उपनिषद् अथर्ववेद से संबंधित हैं। उपनिषद् को वेदान्त कहा गया है। कठ, श्वेताश्वर, ईश तथा मुडक उपनिषद् छदोबद्ध है। केन और प्रश्न उपनिषद् के कुछ भाग छंद एवं कुछ भाग गद्य है। शेष सात गद्य हैं। तत्त्वमसि तुम अर्थात् पुत्र के प्रति कथित शब्द उपनिषदों का प्रधान प्रसंग है।

पी.एल. भार्गव नामक इतिहासकार ने उपनिषदों की क्रमावली बनायी है:

  1. मूल रूप में ब्रह्म सिद्धांत उल्लेख करने वाले वृहदाराण्यक, तैत्तिरीय, ऐतरेय, कौषितकी, केन तथा ईश उपनिषद् सबसे प्राचीन हैं। वृहदारण्यक उपनिषद् से संकेत मिलता है कि प्राचीनकाल के बुद्धिमान मनुष्य सन्तान नहीं चाहते थे।
  2. सांख्य शब्दों की जानकारी तथा विष्णु के प्रति झुकाव के कारण कठ उपनिषद् उसके बाद का है। कठोपनिषद् में आत्मा को पुरूष कहा गया है। वृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद बड़ा रोचक है। उसी प्रकार कठोपनिषद् का यम-नचिकेता संवाद उल्लेखनीय है। मुण्डकोपनिषद् में यह घोषित किया गया कि सत्यमव जयते।
  3. श्वेताश्वतर उपनिषद् में परमात्मा को रूद्र कहा गया है, इस आधार पर इसे कठ उपनिषद् के बाद का माना जाता है।
  4. मैत्रायिणी उपनिषद् में त्रिमूर्ति तथा चार आश्रमों के सिद्धांत का उल्लेख है। साथ ही इसमें पहली बार निराशावाद के तत्व मिलते हैं। अत: इसे सबसे बाद का उपनिषद् माना जाता है। नृसिंहपूर्वतापनी उपनिषद् संभवत: सबसे प्राचीन उपनिषद् था। छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार, धर्म के तीन स्कंध होते हैं-
  • यज्ञ, अध्ययन और दान
  • तप
  • गुरू के आश्रम में ब्रह्मचारी के रूप में रहना।

छांदोग्य उपनिषद् में सर्वखल्विदं ब्रह्म अर्थात बह्म ही सब कुछ है कहकर अद्वैतवाद की प्रतिष्ठा की गई है।

वैदिक शिक्षा- ज्ञान के दो प्रकार थे-पराविद्या (Metaphysic) उच्च या आध्यात्मिक ज्ञान और अपराविद्या (लौकिक ज्ञान) लौकिक ज्ञान के साधन चार वेद एवं छ: वेदांग माने गए हैं। इसके अतिरिक्त जैसा कि छांदोग्य उपनिषद् में चर्चा की गई है, कुछ विषय निमनलिखित थे- वेद, इतिहास, राशि (गणित), व्याकरण, वाकावाकय (तर्कशास्त्र) निधि, क्षत्र, विद्या, भूत विद्या (जीवशास्त्र)। उपनिषद् में वैदिक शिक्षा की चर्चा की गई है। वैदिक शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तित्व का विकास था। मानसिक शिक्षा पर विशेष बल दिया जाता था।

अध्ययन एवं अध्यापन के निम्नलिखित प्रकार थे-

  1. गुरुकुल की शिक्षा- उपनयन के पश्चात् बालक ब्रह्मचारी एवं अंतेवासी (गुरु के साथ निवास करने वाला) हो जाता था।
  2. कुछ विद्वानों के द्वारा देशाटन एवं भ्रमण के द्वारा लोगों को शिक्षा प्रदान की जाती थी। उन्हें कारक कहा जाता था।
  3. कभी-कभी और किसी विशेष क्षेत्र में शिक्षा के प्रसार के लिए विशिष्ट परिषद् स्थापित की जाती थी जैसे पांचाल परिषद्।
  4. सभा- कहीं-कहीं शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए सभाओं का भी आयोजन किया जाता था। जैसे विदेह ने विद्वानों की एक सभा बुलाई। इसमें याज्ञवल्क्य, उद्दालक आरूणि, गार्गी आदि शामिल हुए। इस सम्मेलन में याज्ञवल्क्य विजेता घोषित किए गए। प्रसन्न होकर विदेह ने उन्हें एक हजार ऐसी गायें प्रदान की, जिनके सींग में कुल पाँच-पाँच पाद बंधे हुए थे।

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