97वां संविधान संशोधन के कुछ उपबंध असंवैधानिक: गुजरात उच्च न्यायालय Certain provisions of the 97th constitutional amendment is unconstitutional: Gujarat High Court
सहकारी समितियों से सम्बद्ध 97वां संविधान संशोधन अधिनियम के कुछ उपबंधों को 22 अप्रैल, 2013 को गुजरात उच्च न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित किया और उन्हें रद्द करने का आदेश दिया।
गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भास्कर भट्टाचार्य और न्यायाधीश जे.बी. परडीवाला की बेंच ने यह फैसला उपभोक्ता संरक्षण विश्लेषण समिति के राजेन्द्र शाह द्वारा दायर जनहित याचिका पर कार्य करते हुए दिया। न्यायालय ने कहा है कि केंद्र सरकार को सहकारी समितियों के लिए कानून बनाने का कोई अधिकार नहीं है जो की भारत के संविधान के अंतर्गत विशिष्ट रूप से राज्य सूची का विषय है। बेंच ने कहा कि 97वां संशोधन संघवाद के आधारिक ढांचे का उल्लंघन था, जहां मात्र राज्य सहकारी समितियों के लिए कानून बना सकता है।
97वां संविधान संशोधन की दिसम्बर, 2011 में लोक सभा एवं राज्य सभा द्वारा पारित किया गया, जिसे जनवरी 2013 में राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हुई, एवं अगले दिन भारत के राजपत्र में प्रकाशित हुआ और 15 फरवरी, 2013 से प्रभावी हो गया। इस संशोधन का उद्देश्य था संविधान के अनुच्छेद-19(1)(ग) के तहत् सहकारी समिति की मूलाधिकार बनाना और अनुच्छेद-43(ख) में शामिल करके समिति का प्रोत्साहन करना राज्य का उत्तरदायित्व बनाकर लोगों में सहकारी समिति के प्रति विश्वास बढ़ाना एवं राजनीतिक एवं नौकरशाही दुष्प्रभावों से इसे बचाना था।
याचिकाकर्ता ने कहा कि 97वां संविधान संशोधन की जरूरत नहीं है जैसाकि यह राज्य विधान के क्षेत्र का अतिक्रमण करता है और इस पर संवैधानिक शक्तियों को हस्तगत करता है। संविधान संशोधन अधिनियम की राज्य सूची पर विधान बनाने के लिए अप्रत्यक्ष तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, जबकि प्रत्यक्ष रूप से ऐसा करना निषिद्ध है।
याचिकाकर्ताओं ने यह भी कहा कि 97वेवां संविधान संशोधन के मामले में अनुच्छेद-368(2) में उल्लिखित संविधान संशोधन प्रक्रिया का भी स्पष्ट उल्लंघन हुआ है।
संविधान के अनुच्छेद-368 के अनुसार, यदि संसद सातवीं अनुसूची में किसी सूची को हटाना या संशोधित करना चाहती है तो ऐसे संशोधन को कुल राज्यों के आधे राज्यों की विधान सभाओं द्वारा अनुमोदित होना आवश्यक है।