भारतीय संघवाद: मुद्दे एवं चुनौतियां Indian Federalism: Issues and Challenges
सरकार राज्य का महत्वपूर्ण अंग है परंतु सभी राज्यों की सरकारों का स्वरूप एक समान नहीं होता है। सरकार के स्वरूप का चयन देश की विशेष परिस्थितियों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए किया जाता है। यही कारण है कि किसी देश की सरकार एकात्मक और किसी की संघात्मक होती है। एकात्मक प्रणाली में सम्पूर्ण शक्ति केंद्र में निहित होती है और संघात्मक प्रणाली में सम्पूर्ण शक्ति केंद्र तथा राज्यों के बीच विभाजित होती है। संघात्मक सरकार दो कारणों से अस्तित्व में आती है-
- स्वतंत्र तथा संप्रभुता सम्पन्न राज्यों के समूह आर्थिक, प्रतिरक्षा अथवा अन्य कारणों से संघ की स्थापना करते हैं, जैसे-संयुक्त राज्य अमेरिका, तथा;
- यदि एकात्मक राज्य का क्षेत्रफल बहुत विशाल है तो ऐसी स्थिति में उसे द्वि-स्तरीय सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन संवैधानिक स्वायत्तता को बनाए रखटे हुए कर दिया जाता है, जैसे-कनाडा।
भारतीय संघवाद
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 1 (1) के अनुसार, भारत राज्यों का संघ है। दूसरी ओर सरकार की प्रणाली संघात्मक है। भारतीय संघवाद का उद्भव कनाडा की प्रणाली से हुआ है, जबकि भारतीय संघ की स्थापना राज्यों की सहमति या करार द्वारा नहीं हुई है, साथ ही राज्यों की संघ से अलग होने का अधिकार नहीं है। केंद्र सरकार के अधिक शक्तिशाली होने की वजह से भारतीय संघ के असली स्वरूप को विवादों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया गया है, जबकि संघात्मक राज्य की परिभाषा को लेकर कोई मतैक्य नहीं है। अब प्रश्न यह उठता है कि कौन-सा राज्य संघात्मक अथवा एकात्मक है? इस प्रश्न का उत्तर जानने हेतु संघात्मक तथा एकात्मक प्रणाली के लक्षणों को जानना आवश्यक है।
संघात्मक लक्षण
भारतीय संविधान मूलतः संघात्मक है। संघात्मक प्रणाली में निम्नलिखित लक्षणों का होना आवश्यक है-
दोहरी शासन प्रणाली
एकात्मक राज्य में एक ही राष्ट्रीय सरकार होती है, जबकि संघात्मक राज्य में दो सरकारें होती हैं-एक राष्ट्रीय तथा दूसरी राज्य सरकार। भारत में एक केंद्र तथा दूसरी अन्य राज्य सरकारें होती हैं। दूसरे शब्दों में भारतीय संविधान द्वारा दोहरी शासन प्रणाली की स्थापना की गई है।
शक्तियों का विभाजन
केंद्र तथा राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन, संघ सरकार की मुख्य विशेषता है। राष्ट्रीय महत्व वाले विषय केंद्र की तथा स्थानीय महत्व वाले विषय राज्य सरकारों को प्रदान किए गए हैं। इसीलिए भारतीय संविधान में तीन सूचियां अंकित हैं, जो इस प्रकार हैं-(i) संघ-सूची, (ii) राज्य-सूची,तथा; (iii) समवर्ती-सूची।
संविधान की सर्वोच्चता
भारतीय संविधान की देश का सर्वोच्च कानून माना गया है। संविधान के अनुसार निर्मित कानूनों का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। कोई भी सरकारी अधिकारी अथवा देश का शासक संविधान के विरुद्ध कोई कार्य नहीं कर सकता है। संसद या राज्य विधानमंडल किसी ऐसे कानून का निर्माण नहीं कर सकता जो संविधान के किसी अनुच्छेद के विरुद्ध हो। भारत के सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों को न्यायिक पुनर्समीक्षा का अधिकार दिया गया है। इसके अनुसार न्यायालय, संसद के ऐसे कानून को या कार्यपालिका के ऐसे आदेश को असंवैधानिक घोषित कर सकता है, जो संविधान में उल्लिखित किसी प्रावधान का उल्लंघन करते हों।
द्वि-सदनीय विधायिका
संघीय सरकार में विधानपालिका का द्वि-सदनीय होना आवश्यक है। प्रायः निम्न सदन जनता का तथा उच्च सदन संघ के राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। निम्न सदन की लोक सभा तथा उच्च सदन को राज्य सभा कहते हैं।
स्वतंत्र न्यायपालिका
संघात्मक प्रणाली में न्यायालयों को संविधान की पुनव्याख्या करने की अंतिम शक्ति प्राप्त है, जिंससे संघ तथा राज्य सरकारों द्वारा संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन न हो सके। भारत में सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों के वितरण तथा संवैधानिक प्रावधानों की संरक्षित रखने का अधिकार प्राप्त है।
कठोर संविधान
कठोर संविधान वह है, जिसमें संशोधन करने की एक विशेष विधि निश्चित की गई हो। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में विशेष संशोधन विधि उल्लिखित की गई है। संशोधन करने के लिए भारतीय संविधान की तीन भागों में बांटा जा सकता है- एक भाग वह है, जिसकी संसद केवल साधारण बहुमत से बदल सकती है, यह भारतीय संविधान के लचीलेपन का प्रमाण है। दूसरा भाग वह है, जिसको बदलने के लिए संसद के दोनों सदनों के अपने-अपने सदस्यों की कुल संख्या का स्पष्ट बहुमत तथा उपस्थित तथा मत देने वालों का दो-तिहाई बहुमत आवश्यक है, यह भाग भारतीय संविधान के कठोर होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। तीसरा भाग वह है, जिसको बदलने के लिए संसद के सदस्यों की कुल संख्या का स्पष्ट बहुमत तथा उपस्थित व मत देने वाले सदस्यों के लिए दो-तिहाईबहुमत के अतिरिक्त कम-से-कम आधे राज्यों के विधान मंडलों का समर्थन भी आवश्यक है, भारतीय संविधानका यह भाग इसके अति कठोर होने का प्रमाण है।
न्यायपालिका की सर्वोच्चता
संघात्मक प्रणाली में केंद्र तथा राज्य सरकारों में परस्पर विवाद उत्पन्न होते रहते हैं। ऐसे विवादों का निर्णय सर्वोच्च न्यायपालिका ही कर सकती है। अतः भारत के संविधान में स्वतंत्र तथा सर्वोच्च न्यायपालिका की व्यवस्था की गई है। संविधान की व्याख्या और संविधान की रक्षा करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के पास है। इन न्यायालयों के द्वारा की गई संविधान की व्याख्या अंतिम मानी जाती है। यह न्यायपालिका की सर्वोच्चता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। अतः उपरोक्त लक्षण संविधान के संघात्मक होने के परिचायक हैं।
एकात्मक लक्षण
संघात्मक व्यवस्था के लक्षणों के होते हुए भी भारतीय संविधान को पूर्ण संघीय संविधान नहीं माना गया है क्योंकि भारतीय संविधान में कुछ ऐसे प्रावधान हैं, जो एकात्मक होने के साक्षात् प्रमाण हैं। वे विशेषताएं जो भारतीय संविधान को एकात्मक रूप देती हैं, वे निम्नलिखित हैं-
एक संविधान
भारत में केंद्र तथा राज्यों के लिए एक ही संविधान है, अपवाद जम्मू-कश्मीर राज्य है। अमेरिका तथा स्विट्जरलैण्ड आदि देशों में संघात्मक प्रणाली है तथा वहां राज्यों के अपने पृथक् संविधान हैं, जबकि भारत मैं समस्त देश के लिए एक ही संविधान है, जिसमें केंद्र तथा राज्यों के शासन की व्यवस्था के संबंध में प्रावधान है।
अवशिष्ट शक्ति
भारतीय संविधान ने अनुच्छेद 248 के अनुसार अवशिष्ट शक्तियां केंद्र सरकार को प्रदान की है। अवशिष्ट शक्ति का अर्थ किसी ऐसे विषय से है जो तीनों में से किसी भी सूची में अंकित नहीं है। यह व्यवस्था कनाडा के संविधान में उपलब्ध है।
संविधान संशोधन
संविधान के संशोधन करने के संबंध में केंद्र को राज्यों की अपेक्षा अधिक अधिकार प्राप्त हैं। संविधान के अधिकांश भाग को संसद साधारण बहुमत से निश्चित विधि द्वारा परिवर्तित कर सकती है। संविधान का बहुत कम भाग ऐसा है, जिसमें संशोधन के लिए कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों का समर्थन आवश्यक है। अतः संविधान संशोधन संशोधन में भी केंद्र सरकार की श्रेष्ठता है, जो कि एकात्मक प्रणाली का मुख्य लक्षण है।
शक्तियों का विभाजन
संविधान में शक्तियों का विभाजन केंद्र के पक्ष में है। संघ-सूची में राज्य-सूची की अपेक्षा बहुत महत्वपूर्ण विषय अंकित किये गये हैं। इसके अतिरिक्त संघ-सूची के विषयों की कुल संख्या 97 है, जब कि राज्य-सूची में कम महत्व वाले 66 विषय अंकित किये गये हैं। इसके अतिरिक्त समवर्ती-सूची में कुल 47 विषय अंकित है। संघ-सूची में अंकित विषयों पर केंद्र अथवा संसद कानून बनाती है। राज्य-सूची में अंकित विषयों पर राज्य विधान मंडल कानून बनाता है, किंतु कुछ विशेष अवस्थाओं में संसद भी राज्य-सूची में अंकित विषयों पर कानून बना सकती है। समवर्ती-सूची में अंकित विषयों पर दोनों यानी केंद्र तथा राज्य सरकारें कानून बना सकती हैं परंतु यदि राज्य सरकार द्वारा निर्मित कानून केंद्रीय कानून का विरोध करता है तो राज्य सरकार द्वारा निर्मित कानून उस सीमा तक रद्द कर दिया जाता है जिस सीमा तक वह केंद्र सरकार के कानून का विरोध करता है और तब केंद्र का कानून लागू कर दिया जाता है। अतः शक्तियों का यह विभाजन केंद्र को शक्तिशाली बनाता है जो कि एकात्मक सरकार का मुख्य लक्षण है।
आपात शक्ति
प्रायः संघात्मक संविधान को एकात्मक रूप देने के लिए संशोधन करना आवश्यक होता है परंतु भारतीय संविधान की विशेषता यह है की संशोधन किए बिना इसकों एकात्मक रूप दिया जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 के अनुसार राष्ट्रपति आपात स्थिति की घोषणा कर सकता है। अनुच्छेद 352 के अनुसार यदि राष्ट्रपति को विश्वास हो जाये कि युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण भारत की सुरक्षा खतरे में है तो समस्त देश में या देश के किसी एक भाग में वह आपात स्थिति की घोषणा कर सकता है। अनुच्छेद 356 के अनुसार, यदि राष्ट्रपतिको राज्य के राज्यपाल या किसी अन्य साधन द्वारा सूचना मिलने पर विश्वास हो जाये कि उस राज्य में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है जिसमें राज्य का शासन संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है तो राष्ट्रपति आपातकाल की घोषणा कर सकता है। अनुच्छेद 360 के अनुसार यदि राष्ट्रपति को विश्वास हो जाए की ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है, जिसके कारण भारत या इसके किसी भाग की वित्तीय स्थिरता संकट में है तो वह उस समय वित्तीय संकट की घोषणा कर सकता है।
राज्यसभा में राज्यों का असमान प्रतिनिधित्व
संघीय प्रणाली में दूसरा सदन प्रायः समानता के आधार पर राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। जिस प्रकार अमेरिका के द्वितीय सदन सीनेट में प्रत्येक राज्य दो-दो प्रतिनिधि भेजता है परंतु भारत की राज्यसभा में राज्यों की प्रतिनिधित्व समानता के आधार पर नहीं बल्कि जनसंख्या के आधार पर दिया गया है जो संघात्मक प्रणाली के सिद्धांतों के विरुद्ध है।
एकल नागरिकता
अमेरिका तथा स्विट्जरलैंड के संविधानों में दोहरी नागरिकता की प्रथा है। प्रत्येक व्यक्ति संघ का नागरिक होने के साथ-साथ अपने राज्य का भी नागरिक होता है। उस राज्य की ओर से उसकी कुछ विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं। भारतीय संविधान में दोहरी नागरिकता की प्रथा नहीं है। अपितु सभी व्यक्ति भारत के ही नागरिक हैं तथा सभी की समानता के आधार पर संविधान की ओर से अधिकार प्राप्त हैं।
प्रारम्भिक बातों में एकरूपता
कुछ प्रारम्भिक बातों की एकरूपता भारतीय संविधान की मुख्य विशेषता है, जैसे- (i) समस्त देश के लिए एक ही प्रकार के दीवानी तथा फौजदारी कानून का प्रबंध किया गया हैं। (ii) समस्त देश के लिए एक ही चुनाव आयोग है। (iii) अखिल भारतीय सेवाओं के सदस्य केंद्र तथा राज्यों में शासन का प्रबंध करते हैं जबकि इन सेवाओं के अधिकारियों की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है, परंतु वे राज्य सरकारों के उच्च पदों पर कार्य करते हैं। इन बातों से संविधान की एकात्मकता की ओर झुकाव प्रतीत होता है।
एकल संगठित न्याय व्यवस्था
अमेरिका तथा आस्ट्रेलिया में राज्यों की न्याय प्रणाली केंद्रीय न्याय प्रणाली से पृथक् है परंतु भारत में प्रत्येक न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के अधीन कार्य करता है। राज्यों के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। इसी प्रकार राज्यों के छोटे न्यायालय उच्च न्यायालय के अधीन होते हैं। इन छोटे न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। अतः एकल संगठित न्याय प्रणाली संघात्मक राज्य की नहीं बल्कि एकात्मक राज्य का लक्षण माना जाता है।
राज्यों को पृथक् होने का अधिकार नहीं
भारत संघ के राज्यों को संघ से पृथक् होने का अधिकार नहीं है। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि, 1963 में संविधान के 16वें संशोधन द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि, संघ से पृथक् होने के पक्षपोषण को वाक् स्वातंत्र्य का संरक्षण प्राप्त नहीं होगा।
सीमाओं में परिवर्तन हेतु राज्यों की सहमति अनिवार्य नहीं
अमेरिकी संविधान के विपरीत भारतीय संविधान के अनुसार संघीय संसद राज्यों की सहमति के बिना भी राज्यों का पुनर्गठन अथवा उनकी सीमाओं में परिवर्तन कर सकती है। ऐसा विधान की सामान्य प्रक्रिया के अनुसार साधारण बहुमत से किया जा सकता है [अनुच्छेद-4(ख)]। इसके लिए संसद को प्रभावित राज्य के विधानमण्डल की सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है। केवल संसद को सिफारिश करने के प्रयोजन हेतु राष्ट्रपति के लिए यह आवश्यक है कि वे प्रभावित राज्य के विधानमण्डल के विचार ज्ञात कर लें। यह बाध्यता भी पूर्णतः आज्ञापरक नहीं है। प्रभावित राज्य द्वारा अपने विचार अभिव्यक्त करने हेतु राष्ट्रपति द्वारा समय सीमा का निर्धारण किया जा सकता है। इस प्रकार भारत संघ में राज्य उस प्रकार अविनाशी नहीं हैं, जिस प्रकार अमेरिका में हैं।
लोक सेवाओं का विभाजन नहीं
अमेरिका में संघ एवं राज्य दोनों के अपने-अपने प्रशासनिक पदाधिकारी होते हैं, जो उनकी स्वयं की (यथास्थिति संघ अथवा राज्य) विधियों एवं कृत्यों का प्रशासन करते हैं, किंतु, भारत में लोक सेवकों के मध्य इस प्रकार का विभाजन नहीं है। अधिकांश लोक सेवकों का नियोजन राज्यों द्वारा किया जाता है किंतु वे अपने-अपने राज्यों पर लागू होने वाली संघ एवं राज्य दोनों द्वारा निर्मित विधियों का प्रशासन करते हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-312 के अंतर्गत अखिल भारतीय सेवाओं के सृजन से सम्बन्धित प्रावधान किए गए हैं, किंतु ये सेवाएं संघ एवं राज्य दोनों के लिए सामान्य हैं। संघ द्वारा नियुक्त भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्य या तो संघ के किसी विभाग (जैसे-गृह अथवा प्रतिरक्षा) के अधीन नियोजित किए जा सकते हैं अथवा किसी राज्य सरकार के अधीन। लोक सेवकों की सेवाएं अंतरणीय होती है। संघ के अधीन नियोजित किए जाने पर भी वे प्रश्नगत विषय पर लागू होने वाली संघ एवं राज्य दोनों द्वारा निर्मित विधियों का प्रशासन करते हैं। राज्यों के अधीन सेवा करते हुए भी अखिल भारतीय सेवा के सदस्य को केवल संघीय सरकार द्वारा ही पद से हटाया जा सकता है। राज्य सरकार इस प्रयोजनार्थ अनुषंगी कार्यवाही शुरू करने हेतु सक्षम है।
अमेरिकी संघवाद और भारतीय संघवाद का तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य |
भारत में भी राज्यों को संघ से अलग होने का कोई अधिकार नहीं है किंतु संसद राज्यों के नाम, स्थिति और राज्य क्षेत्र में परिवर्तन के लिए राज्यों की सहमति लेने के लिए बाध्य नहीं है। वह अपने सामान्य बहुमत से (अनुच्छेद 4(ख) के तहत) यह करने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त 1963 में संविधान के 16वें संशोधन द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि पृथक् होने के पक्षपोषण की वाक् स्वतंत्रता का संरक्षण नहीं मिलेगा।
इसके अलावा राज्य सभा में राज्यों एवं संघ राज्यक्षेत्रों के 238 प्रतिनिधियों के अतिरिक्त 12 नामनिर्दिष्ट सदस्यों के कारण भी हमारी संघीय व्यवस्था का उच्च सदन अमेरिका से भिन्न है।
इसके अतिरिक्त एकल नागरिकता, अखिल भारतीय सेवाएं, एकल न्यायपालिका, एकल निर्वाचन आयोग, एकल लेखा और परीक्षण आदि या अनुच्छेद 258(क) के तहत् किसी राज्य द्वारा अपनी कार्यपालिका या व्यवस्थापिका संबंधी कृत्यों को संघ को सौंपने से प्रभुता के समर्पण का प्रश्न उपस्थित न होना, अनुच्छेद 352, 360 के आपातकालीन उपबंध, अनुच्छेद 249 के अंतर्गत राज्य सभा की दो-तिहाई बहुमत की स्वीकृति से संसद द्वारा राज्य-सूची के किसी विषय पर कानून बनाना, अनुच्छेद 256-257 के अंतर्गत संघ द्वारा राज्यों को निर्देश देना, अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राज्य सरकार की बर्खास्तगी या केंद्र के किसी निर्देश के पालन में किसी राज्य के असमर्थ होने पर अनुच्छेद 365 के अधीन राष्ट्रपति का यह समझ लेना कि अमुक राज्य सरकार शासन चलाने में अक्षम है इत्यादि भारतीय प्रावधान अमेरिकी संघवाद से मेल नहीं खाते हैं। इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 269, 270, 272 के अधीन संघ के कर स्रोतों के समानुदेशन और वितरण की प्रणाली के अंतर्गत एक बड़ी सीमा तक राज्यों का संघ पर निर्भर रहना भी भारतीय संघवाद का एक विशेष लक्षण है। भारत के संविधान में राज्यों के गठन और पुनर्गठन से संबंधित प्रावधानों का उल्लेख संविधान के भाग-1 में निर्दिष्ट चार अनुच्छेदों द्वारा किया गया है। संविधान का प्रथम अनुच्छेद भारत को राज्यों का संघ घोषित करता है। इससे स्पष्ट होता है कि संविधान में राज्यों से संबंधित जितने भी उपबंध हैं, वे सभी राज्यों में एक समान रूप से लागू होते हैं, केवल जम्मू-कश्मीर राज्य को छोड़कर। अनुच्छेद 2 के अनुसार, भारतीय संसद को यह अधिकार प्राप्त है कि वह अपनी उपयुक्त शर्तों के आधार पर नये राज्यों को संघ में सम्मिलित कर सकती है अथवा नये राज्यों की स्थापना कर सकती है। इसके अतिरिक्त किसी राज्य से कोई क्षेत्र पृथक् करके या दो और अधिक राज्यों अथवा उनके कुछ भागों को मिलाकर नए राज्यों का निर्माण कर सकती है। इस प्रकिया में संसद किसी राज्य के क्षेत्र को बढ़ा भी सकती है और कम भी कर सकती है। अनुच्छेद 3 में यह भी निर्दिष्ट है कि संसद राज्यों की सीमाएं और नाम परिवर्तित कर सकती है, लेकिन संविधान में राज्यों के विधान मंडलों की इस विषय पर अपनी सम्मति प्रकट करने का अधिकार दिया गया है। उपरोक्त परिवर्तन संबंधी विधेयक राष्ट्रपति की सिफारिश पर ही संसद में प्रस्तुत किया जा सकता है। हालांकि उसके पूर्व राष्ट्रपति को संबद्ध राज्य के विधान मंडल की सहमति लेनी पड़ती है ताकि संसद की उस राज्य की जनता के मनोभावों का पता चल सके। अनुच्छेद 4 में यह उपबंध है कि ऐसी विधि में ऐसे अनुपूरक, अनुषंगी और पारिणामिक उपबंध भी होंगे जो उस विधि को प्रभावित करने के लिए आवश्यक हैं और उस विधि द्वारा संविधान की पहली और चौथी अनुसूची का संशोधन किया जा सकेगा। इसके लिए अनुच्छेद 368 द्वारा विहित संविधान के संशोधन के लिए विधि बनाने की विशेष प्रक्रिया नहीं अपनानी पड़ेगी। |
इस प्रकार भारतीय संविधान में अनेक ऐसे प्रावधान हैं जो इसकी कुछ सीमा तक एकात्मक स्वरूप प्रदान करते हैं। इसमें भी कोई संदेह नहीं कि भारतीय संविधान में संघात्मक प्रणाली के सभी आवश्यक लक्षण भी विद्यमान हैं। वास्तव में भारतीय संघात्मक प्रणाली की व्यवस्था देश की विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए की गई है। इसलिए यह कहा जाता है कि भारतीय संविधान न तो विशुद्ध रूप से संघात्मक है तथा न ही एकात्मक, बल्कि इसमें दोनों प्रणालियों के लक्षण विद्यमान हैं। भारतीय संविधान में अर्द्ध-संघात्मक या संघात्मक और एकात्मक प्रणालियों के लक्षणों का मिश्रण होना भारत की विशेष परिस्थितियों के अनुकूल है।
भारतीय संघवाद की सहकारी प्रवृत्तियां
संघवाद एक आधुनिक अवधारणा है। इसका सिद्धांत एवं व्यवहार अमेरिकी संघ से पुराना नहीं है, जो 1787 में अस्तित्व में आया था। संघीय विचार सरकार की एक ऐसी योजना है, जिसमे संलग्न राज्य एक संघ बना लेते हैं तथा वे न तो एक-दूसरे से पृथक् होते हैं और न ही संयुक्त। यह संकल्पना अत्यधिक पुरातन है तथा प्राचीन यूनान में व्यवहार में लाई गई थी। किंतु पिछली दो शताब्दियों के दौरान यह व्यापक स्तर पर क्रियान्वित हुई है।
संघवाद ऐतिहासिक विकासका परिणाम है। यह कुछ स्वतंत्र राज्यों की एकता की जरूरत से उपजा है, जो बाहरी खतरों से निजी स्तर पर निबटने में सक्षम नहीं होते हैं। उनका संघ उनकी सुरक्षा तथा आर्थिक हितों के संवर्द्धन को संभव बनाता है। हालांकि ये राज्य अपनी स्वतंत्रता का पूर्णतः परित्याग नहीं करते हैं। एक परिसंघ के निर्माण को प्रेरित करने वाले तत्व हैं- राष्ट्रीय एकता का विचार, सामान्य आर्थिक हितों व अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा संबंधी विचार-विमर्श।
ए.वी. डायसी के अनुसार किसी परिसंघ के निर्माण हेतुदो अपेक्षित स्थितियां होती हैं- प्रथम, ऐतिहासिक रूप से राज्यों का एक ऐसा निकाय होना आवश्यक है, जो स्थानीयता, नस्ल अथवा सामान्य राष्ट्रीयता की छाप (जो अपने मूल निवासियों की नजरों में उन्हें समर्थ बनाती है) के आधार पर निकटता से जुड़ा हो। द्वितीय, राज्यों के बीच मनोभावों की बहुत ही विशिष्ट स्थिति विद्यमान होनी चाहिए, जो संगठित होने के लिए प्रेरित करती हो। एक होने की इच्छा के अभाव में संघवाद का कोई भी आधार नहीं बन सकता।
इसलिए संघ-राज्य का निर्माण करने वाले मनोभाव कम या ज्यादा सम्बद्ध राज्यों के सभी नागरिकों में व्याप्त होते हैं। इनमें दो प्रकार की भावनाएं शामिल होती हैं- राष्ट्रीय एकता की इच्छा तथा प्रत्येक राज्य की अपनी पहचान एवं स्वतंत्रता कायम रखने की प्रतिबद्धता। संघवाद का उद्देश्य इन दोनों भावनाओं को, जहां तक संभव हो सके, सम्मान देना है। इस प्रकार संघ- राज्य एक राजनीतिक युक्ति है, जो राष्ट्रीय एकता को स्थापित करती है तथा राज्यों के अधिकारों को कायम रखने की शक्ति रखती है। यह स्वतंत्र राज्यों का एक ऐसा संघ होता है, जो भौगोलिक संलग्नता रखते हैं तथा जिनके नागरिकों में जाति, नस्ल या परंपरा के आधार पर सादृश्यता उपस्थित होता है। ये नागरिक सामान्य ऐतिहासिक पृष्ठभूमि या विरासत, सामान्य आर्थिक हितों तथा आध्यात्मिक व राष्ट्रीय एकता की अभिलाषा के कारण परस्पर जुड़े रहते हैं। किंतु, साथ ही ये अपने-अपने राज्यों की पहचान एवं स्वतंत्रता के प्रति भी चिंतित होते हैं, जो वर्तमान समय में बाहरी औद्योगिक प्रतिस्पर्द्धा अथवा सैनिक खतरों का सामना करने में असमर्थ हैं। यह एक सावयव या मूलभूत संघ होता है।
कुछ भारतीय एवं विदेशी विद्वानों द्वारा भारत को अर्द्ध-संघ के रूप में विवेचित किया गया है, जबकि कुछ इसे संघात्मक की बजाय एकात्मक व्यवस्था बताते हैं। ब्रिटिश राजनीतिवेत्ता के.सी. व्हेयर द्वारा भारत को एक ऐसे एकात्मक राज्य के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जो गौड़ या उप-संघात्मक लक्षणों से युक्त है। चार्ल्स एलेक्जेंड्रोविच भारत को एक सच्चा संघ मानते हैं, यद्यपि अन्य दूसरे संघों की भांति यह भी भिन्न-भिन्न लक्षणों को प्रकट करता है। इन भिन्न लक्षणों के आधार पर भारत की अर्द्ध-संघ मानना गैर-तर्कसंगत है। नॉर्मन डी. पामर के अनुसार भारतीय गणराज्य एक संघ खाई यद्यपि यह कई ऐसे विशिष्ट लक्षणों को प्रकट करता है जो राज्य के अनिवार्य संघीय स्वरूप को रूपांतरित कर देते हैं। सर आइवर जेनिंग्स भारत की मजबूत केंद्रीकृत प्रवृत्तियों वाला संघ मानते हैं। संविधान सभा के सदस्य तथा विख्यात राजनेता के.एम. मुंशी का विचार है कि संविधान द्वारा भारत में एक अर्द्ध-संघीय व्यवस्था स्थापित की गयी है, जिसमें एकात्मक सरकार के कई महत्वपूर्ण लक्षण समाहित हैं।
संविधान द्वारा केंद्र को नियंत्रण के अनेक ऐसे साधन उपलब्ध कराये गये जिनके द्वारा संघीय व्यवस्था में संघ सरकार की आवाज निर्णायक बन गयी। आपातकालीन शक्तियों के संवैधानिक प्रावधानों ने केंद्र को राज्यों के ऊपर पूर्ण सर्वोच्चता प्रदान कर दी। साथ ही सर्वोच्च नौकरशाही उपकरण के रूप में योजना आयोग राज्यों पर इस बात का नियंत्रण रखता था कि वे अपने-अपने सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए क्या करें और क्या न करें। किंतु 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार पर आधारित चुनावी राजनीति में अंतर्निहित लोकतांत्रिक संघटन के तर्क ने नये भाषायीव क्षेत्रीय अभिजात्य वर्गों को जन्म दिया, जो राज्यों के लिए अधिक शक्तियों की मांग करने लगे। यह 1967 में कांग्रेस दल व्यवस्था के पतन के तुरंत बाद घटित हुआ। नये क्षेत्रीय नेताओं के अधीन गठित राज्य सरकारों द्वारा न केवल केंद्र की चरम श्रेष्ठता पर आधारित राजनीतिक संस्कृति पर प्रश्नचिन्ह लगाया गया बल्कि राज्यों को मजबूत एवं स्वायत्त बनाने के लिए नीतिगत मसौदे भी तैयार किये गये। इस दिशा में पहला कदम तमिलनाडु सरकार द्वारा 1969 में राजमन्नार समिति के गठन द्वारा उठाया गया। इस समिति द्वारा मुख्यतः तीन सुझाव दिये गये-
- संविधान की सातवीं अनुसूची का पुनर्व्यवस्थापन, ताकि राज्यों को अवशिष्ट शक्तियों का हस्तांतरण संभव हो सके;
- अनुच्छेद 249 का निरसन, तथा;
- वित्त आयोग एवं योजना आयोग का रूपांतरण
केंद्र-राज्य संबंध विषयक प. बंगाल सरकार के स्मरण-पत्र (दिसंबर 1977) में अनुच्छेद 356, 357, तथा 360 के निरसन का सुझाव दिया गया। 1978 के आनंदपुर साहिब प्रस्ताव में तर्क दिया गया कि केंद्र को रक्षा, विदेशी मामले,संचार,मुद्रा तथा रेलवे को छोड़कर बाकी सभी विषयों से जुड़ी अवशिष्ट शक्तियां राज्य सरकारों को सौंप देनी चाहिए।
शक्तिशाली राज्यों तथा शक्तिशाली केंद्र के बीच बढ़ती खाई ने संघ सरकार को 1983 में सरकारिया आयोग के गठन के लिए विवश कर दिया। सरकारिया आयोग द्वारा 1987 में प्रस्तुत की गई अपनी सिफारिशों में संघीय प्रणाली के आधारभूत लक्षणों में परिवर्तन करने का कोई प्रयास नहीं किया। किंतु आयोग ने शक्तियों के केंद्रीकरण को राष्ट्रीय एकीकरण के लिए घातक बताया।
हमारी राज्य व्यवस्था अत्यधिक केंद्रीकृत है। केंद्र द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति, राष्ट्रपति शासन का आरोपण तथा संघ या समवर्ती सूची में अत्यधिक विषयों का शामिल होना मूलतः एक केंद्रीकृत संरचना का उदाहरण है। यहां प्रश्न मजबूत केंद्र के अस्तित्व का नहीं है। कोई भी विवेकवान व्यक्ति एक मजबूत केंद्र की आवश्यकता पर विवाद नहीं उठा सकता। मूल प्रश्न यह है कि कमजोर राज्यों के रहते केंद्र कैसे मजबूत हो सकता है? केंद्र निर्णायक क्षेत्रों में अपने प्राधिकार के कारण मजबूत होने के लिए बाध्य है। यह समझना जरूरी है कि संघवाद अनिवार्यतः एक राजनीतिक संस्कृति तथा राष्ट्रीय जीवन से जुड़ा एक दृष्टिकोण है। यह मात्र केंद्र-राज्य संबंधों का प्रश्न नहीं है।
भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी.बी. गजेंद्रगडकर का मत है कि संविधान में संघीय संरचना के कुछ लक्षणों के शामिल होने के आधार पर भारत की वास्तविक अर्थों में एक संघ नहीं कहा जा सकता। मॉरिस जोन्स के दृष्टिकोण के अनुसार भारतीय संघवाद एक प्रकार का सहकारी संघवाद है, जिसमें केंद्र व् राज्यों के बीच सौदेबाजी चलती रहती है किन्तु अंत में किसी समाधान के तहत दोनों सहयोग करने के लिए राजी ही जाते हैं।
भारतीय संविधान में संघ द्वारा एकत्रित करों के बंटवारे, प्रत्यक्ष अनुदान तथा योजना कोषों के वितरण (जो संघवाद की अवधारणा के अनिवार्यतः विपरीत नहीं होते) आदि प्रावधानों के माध्यम से सहकारी संघवाद को आत्मसात किया गया है। इसी कारण ग्रेनविल ऑस्टिन भारत को एक सहकारी संघ कहना पसंद करते हैं। भारत में एक शक्तिशाली केंद्र सरकार है किन्तु यह कमजोर राज्य सरकारों के अस्तित्व का कारण नहीं बनती है। राज्य सरकारें केंद्रीय नीतियों को क्रियान्वित करने वाली बड़ी एजेंसियां हैं।
वास्तव में भारतीय संविधान में निहित संघीय व्यवस्था दी विरोधी विचारों के मध्य एक समझौता है-
- शक्तियों का ऐसा कोई सामान्य विभाजन मौजूद हो जिसके अंतर्गत राज्य सरकारें अपने-अपने क्षेत्रों में स्वायत्तता का उपभोग कर सकें अथवा राजस्व आरोपित कर सकें।
- राष्ट्रीय एकता तथा एक शक्तिशाली केंद्र सरकार की जरूरत विवेकशील लोगों के समूह द्वारा संविधान के कार्य करने के 63 वर्ष बाद भी महसूस की जा रही है।
उक्त दोनों कारकों की भूमिका को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी संविधान के कई प्रावधानों की व्याख्या करते समय स्वीकार किया गया है।
पिछले 65 वर्षों में हमारे संविधान के वास्तविक कामकाज से स्पष्ट होता है की सहयोगी प्रवृत्तियां कुछ सीमा तक मजबूत हुई हैं, हालाँकि राज्य अपने विशिष्ट क्षेत्रों में केंद्रीय प्रभाव से खिन्न रहे हैं। सामान्य समय में भी योजना आयोग जैसी संविधानेत्तर संस्थाओं द्वारा राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप किया जाता रहा है। साथ ही यह भी सत्य है कि एकात्मक बंधन भी कुछ मामलों में निरंतर मजबूत हुए हैं। निम्नलिखित दो कारकों द्वारा सहकारी संघवाद की प्रवृत्तियों को निरंतर कमजोर किया गया है-
- संघ की व्यापक वित्तीय शक्ति तथा राज्यों की, अपना कामकाज चलाने हेतु, संघीय अनुदानों पर पूर्ण निर्भरता।
- योजना आयोग का व्यापक आकार।
उपर्युक्त आलोचना की मात्रा के आधार पर सत्यापित किया जा सकता है, सिद्धांत के आधार पर नहीं। वास्तविक रूप में दो सरकारों (केंद्र व राज्य) के बीच अंतर्निर्भरता के परम्परागत सिद्धांत द्वारा विश्व के अधिकांश देशों में सहकारी संघवाद के लिए जमीन तैयार की गयी है। भारत में संविधान के 73वें तथा 74वें संशोधनों के माध्यम से संवैधानिक स्थिति एवं शक्तियों सहित स्थानीय ग्रामीण एवं शहरी स्वशासन संस्थाएं स्थापित की गयी है, ताकि स्थानीय स्वायत्त एक खोखला कवच या तुच्छ प्रतीक बनकर न रह जाए। वर्तमान त्रिस्तरीय शासन संरचना (जो राष्ट्रीय, राज्यीय एवं स्थानीय सरकारों के बीच सहयोग पर आधारित है) सहकारी बंधन की मजबूत करने की दिशा में उठाया गया एक कदम है।
यद्यपि संविधान संघ के विषय में बात करता है, केंद्र के बारे में नहीं। फिर भी केंद्र द्वारा खुद के तरीकों से स्थापित किया जाने वाला व्यापक प्रभाव सहकारी संघवाद की योजना से असंगत होता है।
किसी भी समय एवं कहीं भी मानव जाति का ⅙ से अधिक हिस्सा एकमात्र राजनीतिक सत्ता के रूप में स्वतंत्रतापूर्वक साथ-साथ नहीं रहा है। इस तथ्य की विशिष्टता को इस बात के द्वारा अच्छी तरह व्यक्त किया जा सकता है कि 1950 तक भारत कभी भी एक राष्ट्र के रूप में संगठित नहीं रहा था। ऐसी स्थिति में केंद्र व राज्यों एवं विभिन्न राज्यों के बीच मतभेदों एवं विवादों का जन्म लेना स्वाभाविक था। इस समस्या का हल सहकारी संघवाद की भावना में छुपा हुआ था। संविधान राज्यों का एक सहकारी संघ उपलब्ध कराता है, जो केंद्र के प्रति कुछ हद तक पक्षपातपूर्ण है। इस प्रकार का पक्षपात, कुछ सीमाओं के तहत, हमारे देश में मौजूद परिस्थितियों को देखते हुए अनिवार्य है। केंद्र-राज्य संबंधों में निहित समस्याओं को एक सहकारी संघ के ढांचे में ही सुलझाया जाना चाहिए, जिसमें राज्यों को संघ का मातहत न माना जाए।
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राज्यों की शिकार्तीं को संवैधानिक संशोधनों की बजाय हितकर परंपराओं के निर्माण द्वारा सुलझाया जाना चाहिए। यही संविधान की सच्ची भावना के अनुकूल है। वर्तमान में केंद्र-राज्य संबंधों की समस्या अपनी तीव्रता तक पहुंच चुकी है क्योंकि एक लम्बे समय से केंद्र द्वारा संविधान की भावना के प्रतिकूल कार्य किया गया है। कुछ लोग मानते हैं कि संविधान के क्रियान्वयन से उसकी गंभीर कमियां उजागर हुई हैं किंतु सत्य यह है की संविधान एक पवित्र दस्तावेज है जिसका अनुपालन निकृष्ट भावना के साथ किया गया है। उपर्युक्त समस्या का सम्यक समाधान सहकारी संघवाद में ही निहित है।