भारतीय संविधान की रचना का इतिहास The History of The Creation of The Indian Constitution
संविधान की रचना के पूर्व की घटनाएं
हमारा संविधान क्रांति का परिणाम नहीं है। यह लगभग सौ वर्ष के प्रयासों का परिणाम है। इसके लिए अनेक प्रकार से प्रयास किए गए। इनमें असंख्य लोगों की भागीदारी थी। कुछ शस्त्रधारी थे, और कुछ अहिंसकस्वतंत्रता के लिए समर्पित अनेक व्यक्तियों और संस्थाओं के सामूहिक प्रयत्नों का फलन हमारा संविधान है।
1857 का संग्राम और महारानी की घोषणा
1857 में उत्तर भारत में स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए सैनिकों और जनता ने शस्त्र ग्राम और धारण कर अंग्रेजों से संघर्ष किया । अनेक कारणों से यह आंदोलन असफल रहा। अंग्रेजों ने इसका दमन करते हुए नृशंस अत्याचार किए। राजनीतिक परिवर्तन यह हुआ कि ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त होकर इंग्लैंड के शासक का सीधा शासन लागू हो गया। महारानी विक्टोरिया ने 1 नवंबर 1858 को एक विस्तृत घोषणा की। देशी रियासतों के राजाओं को यह आश्वासन दिया गया कि उनके साथ जो संधियां और वचनबंध हुए हैं उनका सम्मान होगा और अक्षरशः पालन किया जाएगा। घोषणा में यह स्पष्ट कहा गया कि स्थानीय जनता को बलपूर्वक ईसाई नहीं बनाया जाएगा।
भारतीय संसद की मांग
लगभग इसी समय हिंदू पेट्रियट में लिखकर भारतीय संसद् की मांग श्री हरिश्चंद्र मुखर्जी ने की।
भारतीय परिषद् अधिनियम, 1861
1858 की विक्टोरिया की घोषणा के पश्चात् भारतीय परिषद् अधिनियम, 1861 और उसके बाद भारतीय परिषद् अधिनियम, 1892 पारित किए गए। इन अधिनियमों में सपरिषद् गवर्नर और सपरिषद् गवर्नर जनरल का गठन और उनकी शक्तियां अधिकथित की गई। अभी तक परिषद् में केवल शासन के प्रतिनिधि होते थे। अब पहली बार इसमें परिवर्तन किया गया। परिषद् में (कम से कम 6 और अधिक से अधिक 12) अतिरिक्त सदस्य सम्मिलित करने की छूट दी गई। इनका कार्यकाल 2 वर्ष रखा गया। यह विहित किया गया कि इनमें से कम से कम आधे अशासकीय होंगे। ये अशासकीय सदस्य जनता द्वारा निर्वाचित नहीं होते थे। इन्हें सरकार अपनी पसंद से चुनती थी।
परिषद् का कार्य विधि और विनियम बनाना था। परिषद् में विधान बनाने का ही प्रस्ताव आ सकता था और कोई नहीं। विधान निर्माण में भी गवर्नर जनरल में अध्यारोही शक्तियां निहित थीं। सभी महत्त्वपूर्ण विधेयकों के लिए उसकी पूर्व मंजूरी की अपेक्षा थी। वह किसी भी विधेयक को वीटो कर सकता था या सम्राट की अनुमति के लिए आरक्षित कर सकता था। वह अध्यादेश द्वारा विधायन कर सकता था।
भारतीय परिषद् अधिनियम, 1892
भारतीय परिषद् अधिनियम, 1892 द्वारा अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गई। अब ये कम से कम 10 और अधिक से अधिक 16 हो सकते थे। विधान परिषदों की शक्तियों में भी वृद्धि की गई। इस अधिनियम के अधीन नए नियम बनाकर सदस्यों को प्रश्न पूछने की अनुमति दी गई इस पर कुछ निर्बधन भी थे अर्थात् कुछ विषयों पर प्रश्न नहीं पूछे जा सकते थे। सदस्य बजट पर भी विचार विमर्श कर सकते थे।
मिंटो मार्ले सुधार, 1909
1892 के अधिनियम के पश्चात् जो संविधायी अधिनियम बना वह था भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909। उस समय भारत के लिए सेक्रेटरी आफ स्टेट थे लार्ड मालें और भारत में गवर्नर जनरल थे लार्ड मिंटो। इन दोनों ने जिन सुधारों का प्रस्ताव किया था उन्हें इस अधिनियम द्वारा लागू किया गया था।
परिषद् की सदस्य संख्या बढ़ा दी गई। अशासकीय अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 24 कर दी गई किंतु बहुमत शासकीय सदस्यों का ही बना रहा। इनके कृत्य भी अधिक हो गए। उन्हें यह अधिकार दिया गया कि बजट पर विभाजन की मांग कर सकें। जो सदस्य प्रश्न पूछता था वह अनुपूरक प्रश्न भी पूछ सकता था।
इस अधिनियम से जो परिवर्तन किया गया उसमें सबसे दुखदायी था पृथक् निर्वाचक मंडल और मुसलमानों के लिए स्थान आरक्षण। इसी बीज का परिणाम हुआ देश का विभाजन।
मुस्लिम लीग की मूमिका
1 अक्तूबर 1906 को महामहिम आगा खां के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने गवर्नर जनरल से यह निवेदन किया कि, “हमें ऐसी स्थिति दी जानी चाहिए,जो न केवल हमारे संख्या बल के बल्कि हमारे राजनीतिक महत्व के अनुरूप हो। हमने आपके साम्राज्य की रक्षा के लिए जो अभिदान किया है उसका मूल्य भी आंका जाए। यह भी देखा जाए कि लगभग सौ वर्ष पूर्व हमारी भारत में क्या स्थिति थी”। गवर्नर जनरल लार्ड मिंटो ने आगा खां को उत्तर देते हुए कहा, “मैं आपसे पूर्णतया सहमत हूं, मुस्लिम समाज आश्वस्त रहे कि उनके राजनीतिक अधिकारों की. रक्षा की जाएगी”।
यह सुविज्ञात है कि मुस्लिम लीग ने जो अभ्यावेदन किया था वह ब्रिटिश सरकार की इच्छा और इशारे से किया गया नाटक था। इसके दो सूत्रधार थे – आर्चबोल्ड जो अलीगढ़ कालेज के प्रधानाचार्य थे (आगे चलकर यही कालेज, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना और कर्नल डनलप स्मिथ जो वाइसराय के निजी सचिव थे,मुस्लिम लीग राजनीतिक संगठन नहीं था। इसके सदस्य कुल छह व्यक्ति थे। इनमें प्रमुख थे आगा खां, मुर्शिदाबाद के नवाब और महमूदाबाद के राजा। लार्ड मिन्टो ने जो आश्वासन दिया था उसके परिणामस्वरूप लीग की स्थापना हुई लीग का पहला अधिवेशन दिसंबर 1906 में हुआ। लेडी मिन्टो ने यह लिखा है कि लार्ड मिन्टो ने 6.2 करोड़ मुसलमानों को राज के विरोधी समूह में सम्मिलित होने से खींचकर अलग कर दिया।
सर सैयद अहमद खां ने सन् 1887 में ही विभाजन के बीज बो दिए थे। सर सैयद अहमद ने मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कालेज की अलीगढ़ में स्थापना की थी। सर सैयद अहमद ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि मुसलमान एक राष्ट्र हैं। उन्होंने मुसलमानों से आग्रह किया कि वे कांग्रेस में सम्मिलित न हों। यह उनके दो भाषणों में है। एक जो दिसम्बर,1887 को लखनऊ में दिया गया था और दूसरा जो मार्च, 1888 को मेरठ में। उच्च वर्ग के मुसलमानों को (जो अशरफ कहलाते थे) प्रोत्साहित करके अंग्रेजों ने उनमें सांप्रदायिकता और अलगाव की प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया जिससे वे मुख्यधारा से दूर होते गए।
भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909
भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909 के अधिनियम द्वारा जो परिवर्तन किए गए । थे वे संक्षेप में इस प्रकार हैं
- उससे केंद्रीय और प्रांतीय परिषदों की सदस्य-संख्या में वृद्धि हुई।
- मुसलमानों को मद्रास, मुंबई, यू.पी., बंगाल और असम प्रांतों में पृथक निर्वाचक मंडल और प्रतिनिधित्व दिया गया।
- अब विधान परिषद् में तीन प्रकार के सदस्य थे।
- वे सदस्य जो वाइसराय या गवर्नर की कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य थे – शासकीय सदस्य
- नामनिर्दिष्ट अशासकीय सदस्य
- जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि
- इसमें निर्वाचन के सिद्धांत को मान्यता दी गई।
- निर्वाचन प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से नहीं होना था। प्रतिनिधित्व वगों या हितों का था या निगमित निकायों या संगमों का था सभी निर्वाचन अप्रत्यक्ष थे।
- परिषद् के कृत्य बढ़ा दिए गए। सदस्यों को बहस करने और अनुपूरक प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया।
- कुछ विषयों पर बहस नहीं की जा सकती थी। जैसे विदेशों से संबंध, देशी राजाओं से संबंध, ऐसे विषय जो न्यायालय के विचाराधीन हों, आदि।
मार्ले के मस्तिष्क में यह बात स्पष्ट थी कि 1909 के अधिनियम का ध्येय संसदीय लोकतंत्र को स्थापित करना नहीं था
विभाजन की शुरुआत
1909 के अधिनियम द्वारा ब्रिटिश सरकार ने मुसलमानों के लिए पृथक् निर्वाचक मंडल बनाए। इसका उद्देश्य उन्हें कांग्रेस के विरुद्ध मजबूत बनाना था। यह उपबंध विभेदकारी था। मुस्लिम मतदाता पृथक् निर्वाचक मंडल के माध्यम से अपने प्रतिनिधि प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा प्रांतीय और केंद्रीय विधानमंडलों के लिये चुन सकते थे। किंतु साधारण मतदाता अपने प्रतिनिधि अप्रत्यक्ष रूप से ही चुन सकते थे। दूसरे मुसलमानों के लिये पृथक निर्वाचक मंडल से उनमें अलगाव की भावना उत्पन्न हुई जिससे आगे चलकर जातीय आधार पर देश का विभाजन हो गया। तीसरे, मुसलमानों के लिये पृथक् निर्वाचक मंडल बनने से अन्य अल्पसंख्यकों को भी इसी प्रकार की मांग प्रस्तुत करने के लिए प्रोत्साहन मिला। अन्य अल्पसंख्यक थे सिक्ख, भारतीय ईसाई, यूरोपीय, आंग्ल भारतीय और अस्पृश्य। इससे देश की एकता को खतरा उत्पन्न हो गया। भारत शासन अधिनियम, 1919 में सिक्खों के लिए विशेष निर्वाचक मंडल बने। अस्पृश्य समाज, भारतीय ईसाई, यूरोपीय और आंग्ल भारतीयों को ओने प्रतिनिधि निर्वाचित करने का अधिकार भारत शासन अधिनियम, 1935 में प्रदान किया गया।
भारतीय राष्ट्रवाद का उदय
इसी बीच महान राष्ट्रवादी नेता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने यह घोषित मारतीय राष्ट्रवाद का उदय दिया था कि स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है उसे लेकर रहेंगे। क्रांतिकारियों ने बहुत से संगठन बना लिए थे और वे भारत के बहुत बड़े भूभाग में सक्रिय थे। 1909 में मदनलाल धींगरा ने सर कर्जन वायली की लंदन में हत्या कर दी। कर्जन वायली लार्ड मार्ले का अंगरक्षक था। श्री अरविंद घोष और अन्य अनेक लोग स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भाग ले रहे थे। सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलनों से भी राष्ट्रवाद की अभिवृद्धि हुई। उत्तर भारत में अर्थात् पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कुछ भागों में इस आंदोलन को स्वामी दयानंद द्वारा स्थापित आर्य समाज ने बढ़ाया। 1883 में स्वामी दयानंद की मृत्यु के पश्चात् इस आंदोलन को लाला हंसराज, गुरुदत्त, लाला लाजपत राय और स्वामी श्रद्धानंद ने दिशा और गति प्रदान की।
1875 में न्यूयार्क में थियोसोफिकल सोसाइटी की स्थापना हुई। यह सोसाइटी ऐनी बेसेंट के भारत आने के बाद 1893 से लोकप्रिय हुई। बेसेंट ने भारत को अपनी मातृभूमि के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने होमरूल आन्दोलन चलाया और कांग्रेस के 1917 के अधिवेशन की अध्यक्षता की। स्वामी विवेकानंद ने 1893 में समस्त विश्व को प्रभावित किया। देशवासियों ने उन्हें बाद में देशभक्त संत माना। उन्होंने 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। यद्यपि स्वामीजी राजनीति से अलग रहे किंतु वे सभी देशभक्तों और स्वतंत्रता सेनानियों के प्रेरणा स्रोत थे।
राष्ट्रवादी
19वीं शताब्दी की समाप्ति के वर्षों में यह देखने में आया कि राष्ट्रवादियों का एक वर्ग कांग्रेस की आलोचना करने लगा। इस समय कांग्रेस का नेतृत्व नरम नेताओं के हाथ में था। राष्ट्रवादियों की (जिन्हें अंग्रेज अतिवादी कहते थे) अंग्रेजों से प्रार्थना करने और उनके समक्ष आवेदन करने में कोई आस्था नहीं थी वे स्वाधीनता, स्वशासन और ब्रिटिश राज का खुला विरोध करने के पक्षधर थे। श्री अरविंद घोष और लोकमान्य तिलक ने इस आंदोलन को विचारभूमि प्रदान की। इनके प्रेरणा के स्रोत वेद, उपनिषद् और गीता थे।
सूरत में 1907 में जो अधिवेशन हुआ उसमें दोनों दलों के बीच मारपीट हुई और अधिवेशन अनिश्चित काल के लिये निलंबित कर दिया गया। इससे अंग्रेज प्रसन्न हुये। लार्ड मिंटो ने इसे अपनी महान विजय बताया।
क्रांतिकारी
1917 में लाला हरदयाल ने संयुक्त राज्य अमरीका में और कनाडा में क्रांतिकारी आंदोलन का श्रीगणेश किया। रासविहारी बोस, शचींद्रनाथ सान्याल, सशस्त्र विद्रोह की योजना बनाई। इसके लिये 21 फरवरी 1915 का दिन निश्चित किया गया किंतु एक व्यक्ति के देशद्रोह से योजना प्रगट हो गई। राजा महेंद्रप्रताप, वी.एन. चट्टोपाध्याय, भूपेंद्र और बरकतउल्लाह ने भी सशस्त्र विद्रोह का प्रयत्न किया। राजा महेंद्रप्रताप ने काबुल में संक्रमणकालीन सरकार की स्थापना की। बंगाल में बाघा जतिन ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया। विनायक दामोदर सावरकर ने इंग्लैंड और यूरोप में क्रांतिकारी गुट निर्मित किए।
चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद विस्मिल, योगेशचंद्र चटर्जी, भगत सिंह आदि ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन बनाई। इसने बहुत सी क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लिया और उसके सदस्यों में से अधिकांश ने स्वतंत्रता के लिये अपने प्राणों की आहुति दी। स्वतंत्रता की मांग को दबाने के लिये सरकार ने बहुत से दमनकारी उपाय किए।
भारतीय प्रेस अधिनियम, 1910, भारतीय प्रेस अधिनियम, 1913 और भारत रक्षा अधिनियम, 1913 का उद्देश्य स्वतंत्रता आंदोलन का दमन करना था। भारत शासन अधिनियम, 1915 पारित करके पूर्ववर्ती अधिनियमों को समेकित किया गया।
प्रथम विश्व युद्ध और नीति में परिवर्तन
1914 में प्रथम विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ। युद्ध के लिए ब्रिटेन को भारत से जन और नीति में और धन दोनों प्रकार का सहयोग चाहिए था। इससे विवश होकर उन्होंने नीति में परिवर्तन की घोषणा की। कांग्रेस पर इस समय गरम दल का नियंत्रण था। श्रीमती ऐनी बेसेंट और अन्य व्यक्तियों ने होमरूल आंदोलन आरंभ कर दिया था। जनता की मांग के प्रत्युत्तर में ब्रिटिश सरकार ने 20 अगस्त 1917 को एक घोषणा की। यह घोषणा ई.एस. मोंटेग्यू ने हाउस आफ कामन्स में की। मोंटेग्यू उस समय सेक्रेटरी आफ स्टेट फार इंडिया थे।
मॉटेग्यू की यह घोषणा मालें-मिंटो की नीति के स्पष्टतया विरुद्ध थी क्योंकि इससे पहले ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर स्वशासन की मांग स्वीकार नहीं की गई थी।
लखनऊ समझौता
1916 में कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने लखनऊ में अपने अधिवेशन एक ही समय में किए। दोनों ने एक समझौता किया जिसे लखनऊ समझौता कहते हैं। इसके द्वारा मुसलमानों के लिए केवल मुसलमानों के निर्वाचक मंडल के माध्यम से प्रतिनिधित्व का उपबंध किया गया। आरक्षण का अनुपात निम्नलिखित था-
पंजाब | 50% | सी.पी. (अब मध्य प्रदेश) | 15% |
यू.पी. | 30% | मद्रास | 15% |
बंगाल | 40% | मुंबई | 33½% |
बिहार | 25% |
सम्राट की विधान परिषद् के लिए 1/3 स्थान आरक्षित किए गए। इनका निर्वाचन मुस्लिम मंडल द्वारा होगा।
मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड प्रतिवेदन या मोंट-फोर्ड सुधार 1918
सुधार की स्कीम तैयार करने के लिए मोंटेग्यू 1917 में भारत आए। उन्होंने भारतीय नेताओं से भेंट की और उनकी आकाँक्षाओं को समझने का का प्रयास किया। गवर्नर जनरल लार्ड चेम्सफोर्ड से परामर्श करके उन्होंने सांविधानिक सुधारों पर एक रिपोर्ट दी जिसे मोंटफोर्ड सुधार के नाम से जाना जाता है। यह जुलाई 1918 में प्रकाशित हुई और भारत शासन अधिनियम, 1919 का आधार बनी। कांग्रेस इस समय उग्र दल (गरम दल भी कहा जाता था) के नियंत्रण में थी। उग्र दल को मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट पसंद नहीं आई। ऐनी बेसेंट ने कहा कि इसका इंग्लैंड द्वारा प्रस्तावित किया जाना और भारत द्वारा स्वीकार किया जाना दोनों ही अशोभनीय हैं। अगस्त 1917 में मुंबई में कांग्रेस के एक विशेष अधिवेशन में यह घोषणा की गई कि मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट अपर्याप्त, असंतोषजनक और निराशाकारी है।
भारत शासन अधिनियम, 1919
1919 के अधिनियम के मुख्य उपबंध इस प्रकार थे-
- द्वैध शासन- इस अधिनियम का उद्देश्य प्रांतों में उत्तरदायी शासन प्रारंभ करना नहीं था। यद्यपि सदैव यह दिखावा किया जाता था कि धीरे धीरे उत्तरदायी सरकार प्रारंभ की जाएगी। अंग्रेजों ने एक नई प्रणाली का अविष्कार किया, जिसे आगे चलकर द्वैध शासन का नाम दिया गया। प्रशासन के विषयों को दो सूचियों में विभाजित किया गया- केन्द्रीय और प्रांतीय- था। अंतरित विषय कम महत्व वाले थे और उनमें स्थानीय जानकारी की अपेक्षा थी जैसे सड़क, भवन, स्थानीय स्वशासन, स्वच्छता, स्वास्थ्य आदि। ये विषय उन मंत्रियों में वितरित किये जा सकते थे जिन्हें गवर्नर निर्वाचित सदस्यों में से नियुक्त किया करता था। सपरिषद् गवर्नर आरक्षित विषयों का प्रशासन करता था और पार्लमेंट के प्रति उत्तरदायी था। संसद् में एक भी भारतीय नहीं था। वह पूर्णतया अभारतीय थी। गवर्नर, मत्रियों और कार्यकारी परिषदों का अध्यारोहण कर सकता था अर्थात् उनके निर्णय उलट सकता था। प्रांतीय विधानमंडल द्वारा बनाई गई प्रत्येक विधि गवर्नर और गवर्नर जनरल दोनों की अनुमति पाकर ही विधिमान्य होती थी। प्रांतीय विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों का अनुपात बढ़ाकर 70 प्रतिशत कर दिया गया।
- एकल संरचना- प्रांतों को जो शक्तियां प्रदान की गई थीं वह परिसंघ प्रणाली जैसा वितरण नहीं था। परिसंघ प्रणाली में केंद्र, राज्य के या प्रांतीय विषयों में अतिक्रमण नहीं कर सकता है। केंद्रीय विधानमंडल को सभी विषयों पर विधान बनाने की शक्ति थी चाहे वह विषय केंद्रीय हो या प्रांतीय। गवर्नर जनरल को यह विनिश्चित करने की शक्ति थी कि कोई विषय केंद्रीय सूची में आता है या राज्य सूची में। परिसंघ में यह काम न्यायालय करता है।
- केंद्र में उत्तरदायी सरकार का न होना – केंद्रीय शासन, सपरिषद् गवर्नर जनरल के अधीन था। गवर्नर जनरल, सेक्रेटरी आफ स्टेट के माध्यम से लंदन स्थित पार्लमेंट के प्रति उत्तरदायी था। केंद्रीय विधान मंडल में राज्य परिषद् थी जिसमें 60 सदस्य थे। इनमें से 34 निर्वाचित होते थे। दूसरा सदन विधान सभा थी जिसमें 144 सदस्य थे। इनमें से 104 निर्वाचित होते थे 40 नामनिर्दिष्ट। इन नामनिर्दिष्ट सदस्यों में से 26 पदधारी थे। एक ध्यान देने योग्य बात यह है कि दोनों सदनों की शक्तियां एक समान थीं। वित्त विधेयक के बारे में भी दोनों को समान शक्तियां थीं किंतु प्रदाय करने की शक्ति केवल विधान सभा की थी।
- पृथक् निर्वाचक मंडल – इस अधिनियम में मुसलमानों के लिए पृथक् निर्वाचक में सिक्खों के लिए, भारतीय ईसाइयों के लिए, आंग्ल-भारतीयों के लिए, यूरोपीय लोगों के लिए, मद्रास प्रेसिडेंसी में अब्राह्मणों के लिए और मुंबई में मराठा लोगों के लिए। इसे इस आधार पर उचित ठहराया गया कि मुस्लिम लीग के साथ 1916 में हुए लखनऊ समझौते में कांग्रेस ने भी पृथक् निर्वाचक मंडल स्वीकार किए थे।
मोंट-फोर्ड सुधार की असफलता
1919 के अधिनियम द्वारा जो सुधार किए गए थे वे भारतवासियों की आशाओं को पूरा करने में असफल रहे। इस असफलता के दो कारण रहे : 1) अधिनियम में अंतर्निहित दोष और 2) बाह्य परिस्थितियाँ। सबसे प्रमुख आंतरिक दोष था द्वैध प्रणाली। इससे बहुत असंतोष और कलह उत्पन्न हुआ। राज्यपाल को अध्यारोही वितीय शक्तियां थीं। मंत्रियों को अपने विभागों पर पूरी शक्तियां नहीं थीं। उनके विभागों के लिए कितना धन आबंटित किया जाए इसका निर्णय दूसरे लोग करते थे। प्रत्येक मंत्री की नियुक्ति अलग-अलग होती। वे गवर्नर के सलाहकार होते थे। मंत्रियों के सामूहिक उत्तरदायित्व के लिए कोई स्थान नहीं था। मंत्री का उत्तरदायित्व वास्तविकता न होकर कपोल कल्पना थी। कुछ प्रांतों में शासकीय और अशासकीय खंडों के बीच विचार विमर्श की कोई प्रणाली नहीं थी। प्रशासन के विषयों को आरक्षित और अंतरित में विभाजित किया गया था किंतु उनके बीच इतना निकट का अंतःसंबंध था कि व्यवहार में सरकार के दो विभागों के बीच भेद करना कठिन था। यह विभाजन अव्यावहारिक और दोषपूर्ण था। उदाहरण के लिए, कृषि अंतरित विषय था जबकि सिंचाई आरक्षित। कभी-कभी यह तय करना कठिन हो जाता था कि कोई विषय किस वर्ग में आता है।
इंडियन सिविल सर्विस के सदस्य स्थायी नौकरशाही के अंग थे। सेक्रेटरी आफ स्टेट उन्हें नियुक्त करता था और वे उसी के नियंत्रण में रहते थे। वे उसी के प्रति उत्तरदायी थे। मंत्रियों के प्रति नहीं।
गवर्नर की शक्तियां इतनी व्यापक थीं कि वह अंतरित विषयों के बारे में भी हस्तक्षेप कर था। गवर्नर को यह अधिकार था कि वह मत्रियों द्वारा दी गई सलाह की अनदेखी करे। परिषद् द्वारा अस्वीकार किए गए अनुदान को भी वह प्रमाणित कर सकता था। यदि आरक्षित विषय के बारे में किसी विधेयक को परिषद् ने नामंजूर कर दिया हो तो भी वह उसे लागू कर सकता था । द्वैध प्रणाली का आशय एक सुनिश्चित सीमा के भीतर निर्वाचित विधानमंडल के प्रति उत्तरदायित्व स्थापित करना था। इस आशय को पूरा नहीं किया जा सका। जो सांविधानिक विभाजन किए गए और शक्तियों और तथ्यों का वितरण जिस जटिल ढंग से किया गया उससे इन उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो पाई। इस अधिनियम के अधीन जो मताधिकार दिया गया था वह सीमित था और ऐसी अर्हताएं लगाई गई थीं कि 1920 में 24 करोड़ की कुल जनसंख्या में से केवल 17,364 को विधान परिषद् के लिए और 9,09,874 को विधान सभा के लिए मत देने का अधिकार था।
महात्मा गाँधी और कांग्रेस ने 1919 के अधिनियम का स्वागत किया।1 जनवरी 1920 को अमृतसर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में गाँधी जि ने इस बात पर बल दिया कि कांग्रेस को सम्राट के आगे बढ़े हाथ को अपने हाथ में लेना चाहिए और सुधारों का अधिकतम लाभ उठाना चाहिए।
गांधीजी की प्रेरणा से कांग्रेस ने एक संकल्प पारित करके ई.एस. मोंटेग्यू को इस बात के लिए धन्यवाद दिया कि इन सुधारों के लिए उन्होंने बहुत परिश्रम किया। किंतु आठ मास पश्चात् 8 सितम्बर 1920 को कोलकाता के अधिवेशन में गांधीजी ने इसका विरोध किया। कांग्रेस ने उनके विचारों का अनुमोदन किया और एक संकल्प पारित करके गांधी जी द्वारा प्रारंभ किये गये प्रगामी, अहिंसक असहयोग की नीति अंगीकार की गई।
उदारवादी और निर्वाचन
1919 में कांग्रेस का एक भाग अलग हो गया। इसके नेता थे सुरेंद्रनाथ बनर्जी, तेज बहादुर सप्रू, और वी.एस. श्रीनिवास शास्त्री। इन्होंने अलग होकर नेशनल लिबरेशन फेडरेशन का गठन किया। 1920 में केन्द्रीय और प्रांतीय विधान सभाओं के लिए निर्वाचन हुए। कांग्रेस ने और खिलाफत कमेटी ने निर्वाचन का बहिष्कार किया। उदारवादियों ने निर्वाचन में भाग लिया। बनर्जी, सच्चिदानंद सिन्हा और सी.वाइचिंतामणि मंत्री बन गए।
साइमन आयोग या सांविधानिक आयोग
कांग्रेस ने यह तय किया की वह विधान सभाओं में प्रवेश नहीं करेगी। चितरंजन दास और कुछ अन्य प्रवेश के पक्ष में थे। उन्होंने 1922 में कांग्रेस के भीतर स्वराज्य पार्टी बनाई। एक वर्ष बाद 1923 में कांग्रेस ने सभाओं में प्रवेश की अनुमति दे दी। स्वराज्य पार्टी का उद्देश्य था-
- डोमिनियन की प्रास्थिति प्राप्त करना
- सविधान बनाने का अधिकार लेना।
दूसरी ओर स्वराज्य पार्टी ने परिषद् में प्रवेश का संकल्प लिया और यह तय किया कि इस प्रकार का वातावरण बनाया जाए जिससे नौकरशाही द्वारा शासन चलाना असंभव हो जाए। स्वराज्य पार्टी के प्रमुख नेता थे पंडित मदनमोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, चितरंजन दास और लाला लाजपत राय। इस प्रकार के राजनीतिक वातावरण में साइमन आयोग की नियुक्ति हुई। वैसे आयोग का उद्गम 1919 के अधिनियम से माना जाता है। इस अधिनियम में यह उपबंध था कि अधिनियम के पारित होने के 10 वर्ष पश्चात् एक सांविधानिक आयोग नियुक्त किया जाएगा जो नए संविधान के अधीन भारत की दशा की जांच करेगा और उस पर अपना प्रतिवेदन देगा। तदनुसार प्रधान मंत्री बाल्डविन ने 8 नवम्बर 1927 को (निश्चित अवधि से 2 वर्ष पूर्व) सर जान साइमन की अध्यक्षता में एक सांविधानिक आयोग की नियुक्ति की घोषणा की। आयोग में अध्यक्ष को मिलाकर 7 सदस्य थे और वे सभी ब्रिटिश थे। इसकी तुरंत प्रतिक्रिया हुई। भारतीयों को इस बात से चोट पहुंची कि आयोग में सभी गोरे लोग थे। भारत में सभी लोगों ने इसका बहिष्कार किया।
साइमन आयोग का विरोध
16 नवम्बर 1927 को अखिल भारतीय नेताओं के घोषणा पत्र में साइमन आयोग के इस भेदभाव का विरोध किया गया। साइमन आयोग जहां जहां गया वहां-वहां उसे विरोधी प्रदर्शनकारियों द्वारा काले झंडे दिखाए गए और वापस लौट जाने के लिये कहा गया। ऐसे ही एक प्रदर्शन पर किए गए लाठीचार्ज में महान नेता लाला लाजपत राय को चोट पहुंची और अंततोगत्वा उनकी मृत्यु हो गई।
मद्रास की जस्टिस पार्टी और शफी के नेतृत्व वाले मुस्लिम लीग के एक गुट ने साइमन कमीशन का स्वागत किया।
सर्वदलीय समिति या नेहरु समिति का प्रतिवेदन
जीन राजनितिक दलों ने साइमन आयोग का बहिष्कार किया था उन्ही ने भारत के लिए संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए एक समिति गठित की। इसके लिए संविधान का प्रारूप तैयार के लिए एक समिति गठित की। इसके अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू थे (अन्य सदस्य थे सर तेजबहादुर तपू, सर अली इमाम, सरदार मंगल सिंह, कुशी, जीआर. प्रधान और सुभाषचंद्र बोस) इसका प्रतिवेदन 10 अगस्त 1928 को प्रकाशित हुआ। नेहरू समिति ने निम्नलिखित सिफारिशें कीं-
- भारत के साथ वैसा ही व्यवहार किया जाए जैसा अन्य उपनिवेशों के साथ होता है।
- भारतीयों को मूल अधिकार दिए जाने चाहिए।
- संसद् में दो सदन हों : निचला सदन, वयस्क मताधिकार द्वारा निर्वाचित हो। गवर्नर जनरल कार्यकारी परिषद् की सलाह पर कार्य करे। कार्यकारी परिषद् सामूहिक रूप से संसद् के प्रति उत्तरदायी हो। इसी प्रकार के उपबंध प्रांतों में लागू किए जाएं।
- निर्वाचक मंडल संयुक्त और मिश्रित हो। केंद्र में मुसलमानों के लिए स्थान आरक्षित हो। जिन प्रांतों में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं वहां भी उनके लिए आरक्षण हो।
- सिंध को अलग करके मुस्लिम बहुल प्रांत बनाया जाए।
- पश्चिमोत्तर प्रांत को, प्रांत का दर्जा दिया जाए।
- स्थानों का आरक्षण 10 वर्ष के लिए हो।
- जहां आरक्षण किया गया है वहां भी मुस्लिम या गैर मुस्लिम अतिरिक्त स्थानों पर चुनाव लड़ सकेंगे।
सर्वदलीय समिति के सम्मेलन में इस रिपोर्ट को अंगीकार नहीं किया जा सका। कांग्रेस ने 1928 के वार्षिक अधिवेशन में नेहरू समिति के प्रतिवेदन पर विचार किया। किंतु इसे स्वीकार नहीं किया क्योंकि इसमें औपनिवेशिक स्थिति की मांग थी। मुस्लिम लीग ने उसे नामंजूर कर दिया। इसके मुख्यतः दो कारण दिए (क) शक्तिशाली केंद्रीय सरकार और (ख) संयुक्त निर्वाचक मंडल।
मुस्लिम लीग चाहती थी कि परिसंघ कमजोर रहे जिससे पांच प्रांतों पर मुसलमानों का पूरा नियंत्रण रहे, यह पांच प्रांत थे पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, बलूचिस्तान, सिंध, बंगाल और पंजाब।
साइमन आयोग का प्रतिवेदन
साइमन आयोग की रिपोर्ट मई 1930 में प्रकाशित हुई। उसमें प्रांतों में प्रतिनिधि सरकार की सिफारिश थी किन्तु केंद्र में प्रतिनिधि सरकार साइमन आयोग का प्रतिवेदन। रिपोर्ट में ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों का परिसंघ बनाने का प्रयास था। मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल पहले जैसे चलने थे। दलित वर्गों के लिए संयुक्त निर्वाचक मंडलों में स्थान आरक्षित किए गए। प्रांतीय विधानमंडलों के लिए मताधिकार को व्यापक बनाया जाना था। द्वैध शासन प्रणाली समाप्त की जानी थी।
असहयोग और खिलाफत आन्दोलन
1920 में कांग्रेस ने असहयोग आंदोलन प्रारंभ किया था जिसमें खिलाफत आंदोलन सम्मिलित था। प्रथम विश्व युद्ध विश्वयुद्ध के पश्चात् ब्रिटेन ने तुर्की साम्राज्य को नष्ट कर दिया। तुर्की का शासक स्वयं को खलीफा घोषित करता था। खलीफा का अर्थ है मुसलमानों का धार्मिक नेता। ब्रिटेन ने खलीफा की उपाधि समाप्त कर दी। इससे भारत के मुसलमानों को बहुत दुख पहुंचा। किसी अन्य देश के मुसलमानों ने इसके प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं की। मोहानी और हकीम अजमल खां थे एक खिलाफत समिति बनाई। इस समिति का उद्देश्य तुर्कों के सुल्तान के पक्ष में आंदोलन करना था। इसका उद्देश्य भारत की स्वतंत्रता नहीं थी। गांधी जी ने खिलाफत समिति के ध्येय का समर्थन किया और इसके बदले में समिति ने असहयोग आंदोलन को स्वीकृति प्रदान की। 1922 में तुर्की में क्रांति हुई, मुस्तफा कमाल पाशा के नेतृत्व में एक पंथनिरपेक्ष सरकार बनी। कमाल पाशा ने 1924 में खिलाफत की संकल्पना को स्पष्ट रूप से तिलांजलि दे दी।
फरवरी 1922 में एक हिंसक भीड़ ने गोरखपुर जिले में चौरी-चौरा नाम के गांव में पुलिस थाने पर हमला कर दिया। गांधी जी ने इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप आंदोलन को तुरंत वापस ले लिया। इस पर जवाहरलाल नेहरू ने महात्मा गाँधी का विरोध किया। आंदोलन पूर्णतया असफल रहा। आंदोलन के दो उद्देश्य थे स्वराज्य की प्राप्ति और खिलाफत की पुनः स्थापना। इनमें से कोई भी पूरा नहीं हुआ।
खिलाफत समिति के संकल्पों में मुसलमानों की केवल दो आकांक्षाओं की बात की गई थी, अर्थात् खिलाफत और सल्तनत की स्थापना। समिति ने तुर्की के सुल्तान के प्रति निष्ठा की घोषणा की थी। उसने यह धमकी दी थी कि यदि उसकी मांगें नहीं मानी जातीं तो वह काग्रेस के साथ मिलकर भारत की स्वाधीनता की घोषणा कर देगी। कांग्रेस और मुसलमानों का एक समान शत्रु तो था परंतु समान लक्ष्य नहीं था। इस स्वार्थी गठबंधन का विनाश निश्चित था और वैसा ही हुआ। राष्ट्र को धर्म के आधार पर विभाजित करके एकता की प्राप्ति नहीं हो सकती।
पृथकता के बढ़ते कदम
कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच 1916 में हुए लखनऊ समझौते में पृथक् निर्वाचक मंडल पहले ही स्वीकार कर लिए गए थे। जितने भारतीय सदस्य निर्वाचित होने थे उनमें से एक तिहाई मुसलमान हो यह भी मान लिया गया था। प्रांतों में मुसलमानों के लिए आरक्षण किया गया था। उदाहरण के लिए, पंजाब में 50 प्रतिशत, संयुक्त प्रांत में 30 प्रतिशत, बंगाल में 40 प्रतिशत, बिहार में 25 प्रतिशत। यह प्रतिशत मुसलमानों की जनसंख्या के अनुपात से बहुत अधिक था। यह भी मान लिया गया कि यदि मुस्लिम समाज से संबंधित कोई विषय हो तो मुसलमानों को उसके संबंध में वीटो का अधिकार दिया जाएगा।
1916 में कांग्रेस से तथा 1909 और 1919 में अंग्रेजों से बहुत सी रियायतें प्राप्त करने के पश्चात् जिन्ना ने 1929 में कुछ और मांगें बढ़ाई। उनकी 14 मांगें थीं जिनमें सम्मिलित थीं- सिंध का पृथक् प्रांत, मुसलमानों के लिए सेवाओं में आरक्षण, सभी मंत्रिमंडलों में चाहे केंद्रीय हो या प्रांतीय 1/3 मुस्लिम मंत्रियों का होना।
कांग्रेस जैसे जैसे रियायतें देती जाती थी वैसे वैसे अलगाव की छाया घनी होती जाती थी। 1930 में इकबाल ने यह कहा कि भारत में एक समन्वयवादी एकता की स्थापना के लिए सांप्रदायिकता एक अनिवार्य तत्त्व है। वह पंजाब, पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, सिंध और बलूचिस्तान को मिलाकर एक राज्य के निर्माण के इच्छुक थे चाहे ऐसा राज्य ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर हो या बाहर उनकी पूर्विकता स्वतंत्रता नहीं थी उनकी चाहत मुस्लिम राज थी।
अक्तूबर 1931 तक कांग्रेस इस बात पर सहमत हो गई थी कि एक परिसंघ बनाया जाए जिसमें अवशिष्ट शक्तियां इकाइयों में निहित हों, सिंध का अलग प्रांत बन जाए और सेवाओं में आरक्षण हो। कांग्रेस ने भूतकाल की गलतियों से कोई सीख नहीं ली।
नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा
वाइसराय लार्ड इर्विन ने 31 अक्टूबर 1929 को यह घोषणा की कि भारत की सविनय अवज्ञा और नमक सांविधानिक प्रगति की स्वाभाविक परिणति औपनिवेशिक प्रास्थिति होगी अर्थात् भारत उपनिवेश बन जाएगा। आगे यह भी कहा कि ब्रिटिश सरकार, ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों के प्रतिनिधियों के सम्मेलन में साविधानिक सुधार की स्कीम तैयार की जायेगी। कांग्रेस ने अपने 1929 के लाहौर अधिवेशन में सम्मेलन का बहिष्कार करने का निर्णय लिया और स्वतंत्रता को लक्ष्य बनाकर सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ किया। मुहम्मद अली ने मुसलमानों से अपील की कि वे भाग न लें।
गांधीजी ने सरकार के समक्ष कुछ मांगें रखीं। वे थीं- रुपए और पाउंड के बीच विनियम का अनुपात घटाया जाना, भू राजस्व घटाया जाना, नमक पर कर की समाप्ति, नमक पर सरकार के एकाधिकार को समाप्त करना, उच्चतम श्रेणी में वेतन घटाना, भारतीय कपड़े और नौ परिवहन का संरक्षण आदि।
12 मार्च 1930 को गांधी जी ने साबरमती आश्रम से प्रारंभ करके 79 अनुयायियों के साथ दांडी तक 241 मील की पदयात्रा की। इस पदयात्रा का उद्देश्य नमक बनाकर सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ करना था। उन्होंने 6 अप्रैल को नमक संबंधी विधि को भंग किया। उनका यह आन्दोलन समस्त देश में फैल गया किंतु इसमें मुस्लिम समाज की सहभागिता बहुत कम थी।
पहला गोलमेज सम्मलेन
जब सविनय अवज्ञा आदोलन अपने शिखर पर था तब नवम्बर 1930 में भारतीय गोल मेज सम्मेलन का अधिवेशन प्रारंभ हुआ। इसमें कांग्रेस अनुपस्थित थी। पहला गोलमेज सम्मेलन सफल रहा। परिसंघ बनाने के पक्ष में सभी एकमत थे। सर तेजबहादुर सप्रू परिसंघ के समर्थक थे। बीकानेर के महाराजा और भोपाल के नवाब ने राजाओं की ओर से यह कहा कि वे परिसंघ में मिलने के लिए तैयार हैं। लीग के दोनों गुट, एक शफी वाला और दूसरा जिन्ना वाला, सहमत हो गए। किंतु सभी ने यह अनुभव किया कि कांग्रेस को सम्मिलित किया जाना चाहिए। वाइसराय लार्ड इर्विन और गांधीजी के बीच एक भेंट हुई और दोनों ने 5 मार्च 1931 को एक करार पर हस्ताक्षर किए।
महात्माजी आंदोलन वापिस लेने और गोलमेज सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए सहमत हो गए। इस करार की मिश्रित प्रतिक्रिया हुई। कुछ लोगों ने इस करार को सफलता बताया क्योंकि वाइसराय बातचीत करने के लिए मेज पर आया था। दूसरों की आलोचना का यह आधार था कि भारतीयों को इससे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। असंतोष का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी था कि गांधीजी ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु इन तीन क्रांतिकारियों पर दया करके उन्हें फांसी नहीं देने के लिए वाइसराय से अनुरोध नहीं किया। इन तीनों को 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी गई। पूरा देश इससे आहत हो गया और दुख में डूब गया। स्थान स्थान पर गांधीजी के विरुद्ध प्रदर्शन किए गए। 29 मार्च 1931 को कांग्रेस का जो अधिवेशन कराची में प्रारंभ हुआ उसमें इन तीनों की वीरता और त्याग की प्रशंसा करते हुए एक संकल्प पारित किया गया।
दूसरा गोलमेज सम्मलेन
दूसरे गोलमेज सम्मेलन में गांधीजी ने कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। डा. अंबेडकर ने दलित वगों का प्रतिनिधित्व करते हुए समेलन में भाग लिया और यह मांग की कि जिस प्रकार अन्य अल्पसंख्यकों के लिए पृथक् निर्वाचक मंडल और आरक्षण हैं उसी प्रकार दलितों के लिए भी हो। गांधीजी अंबेडकर से समझौता करने के लिए तैयार नहीं थे जबकि मुसलमानों की मांगों के आगे समर्पण कर चुके थे। गांधीजी ने यह भी प्रयत्न किया कि मुसलमान उनके साथ आएं और डा. अंबेडकर का विरोध करें। अल्पसंख्यक समिति की अंतिम बैठक में कोई सहमति नहीं हो सकी और गांधीजी ने अन्य व्यक्तियों के साथ एक अध्यपेक्षा पर हस्ताक्षर किए जिससे ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को मध्यस्थता करने की शक्ति दी गई। इस सम्मेलन में पहल या नेतृत्व कांग्रेस के हाथ से निकल गया। कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच की खाई और बढ़ गई। कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन पुनः प्रारंभ कर दिया। सभी नेता जेल भेज दिए गए। आगामी वर्षों में कांग्रेस कहीं दिखाई नहीं पड़ी।
सांप्रदायिक अधिनिर्णय
प्रधान मंत्री रेम्से मेक्डोनाल्ड ने 16 अगस्त 1932 को अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व के लिए एक स्कीम की घोषणा की। यह स्कीम सांप्रदायिक निर्णय सांप्रदायिक अधिनिर्णय कहलाती है। इस अधिनिर्णय से मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई आदि के लिए पृथक् निर्वाचक मंडल पहले जैसे बने रहे और दलित वर्गों के लिए भी वैसी ही व्यवस्था की गई।
यह अधिनिर्णय केवल अल्पसंख्यकों के लिए ही नहीं था इसके द्वारा बंगाल, पंजाब, पश्चिमोत्तर प्रांत और सिंध में मुस्लिम बहुमत की सुरक्षा दी गई थी। इनके अतिरिक्त वाणिज्य, व्यापार, उद्योग, के लिए भी स्थान आरक्षित किए गए। इस सांप्रदायिक अधिनिर्णय के परिणामस्वरूप भारतीयों में स्थाई फूट पड़ गई। इसका मुख्य उद्देश्य था हिंदुओं के राष्ट्रीय बहुमत को अल्पमत में परिवर्तित करना।
अधिनिर्णय के अधीन मुस्लिम प्रतिनिधित्व
अधिनिर्णय के अधीन मुसलमानों को जो प्रतिनिधित्व दिया गया वह इस प्रकार था-
प्रांत | मुस्लिम प्रतिशत | कुल स्थान | मुसलमानों के लिए आरक्षित स्थान |
मद्रास | 7.9 | 215 | 29 |
मुंबई | 9.2 | 175 | 30 |
बंगाल | 54.7 | 250 | 119 |
यू.पी. | 15.3 | 228 | 56 |
पंजाब | 57 | 175 | 86 |
सी.पी. | 4.7 | 112 | 14 |
असम | 33.7 | 108 | 34 |
पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत | 91.8 | 50 | 36 |
बिहार और उड़ीसा | 10.8 | 175 | 42 |
पंजाब में सिक्ख जनसंख्या का 13.2 प्रतिशत थे। उन्हें 175 में से 32 स्थान दिए गए।
पुणे समझौता
जब इस पंचाट की घोषणा की गई तब गांधीजी यरवदा जेल में थे। उन्होंने 20 सितंबर 1932 से मृत्युपर्यंत अनशन प्रारंभ कर दिया। इसका उद्देश्य दलित वर्ग के लिए पृथक् निर्वाचक मंडल का विरोध करना और हिंदू समाज के विखंडन को रोकना था। 25 सितंबर 1932 को दलित वर्गों की ओर से बाबा साहेब अंबेडकर और अन्य हिंदुओं की ओर से पंडित मदनमोहन मालवीय ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते को पुणे समझौता कहा जाता है। इसके दो प्रयोजन थे। हिंदू समाज को होने से बचाना और गांधीजी के जीवन की रक्षा। समझौते में दलित वर्गों के लिए स्थान आरक्षित किए गए किंतु दलितों का पृथक् निर्वाचक मंडल नहीं बनाया गया। सांप्रदायिक पंचाट के अनुसार दलितों के लिए 71 स्थान आरक्षित किए गए थे। उसके बदले समझौते में 148 स्थान दिए गए।
तीसरा गोल मेज सम्मेलन और श्वेत पत्र
तीसरा गोल मेज सम्मेलन 17 नवम्बर से 24 दिसम्बर 1932 तक चला। इसके अनुसरण में साविधानिक सुधार पर एक श्वेत पत्र प्रकाशित हुआ इस श्वेत पत्र पर एक संयुक्त समिति ने विचार किया। उस समिति की रिपोर्ट के आधार पर भारत शासन अधिनियम 2 अगस्त 1935 को पारित किया गया।
गांधीजी ने 1933 में अस्थायी रूप से असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। कांग्रेस ने अंतिम रूप से आंदोलन को 1934 में समाप्त किया।
सांप्रदायिक अधिनिर्णय पर कांग्रेस का संकल्प
महात्माजी के मूल्यवान जीवन की रक्षा के लिए अनेक प्रकार के प्रयास करने और पुणे समझौते पर हस्ताक्षर करने के पश्चात् कांग्रेस की कार्यसमिति ने 12-13 जून 1931 को एक संकल्प पारित करके यह कहा कि वह सांप्रदायिक अधिनिर्णय को न तो स्वीकार करती है और न अस्वीकार।
पुणे समझौते का परिणाम
पुणे समझौते के परिणामस्वरूप दलित वर्गों के लिए पृथक् निर्वाचक मंडल का विचार त्याग दिया गया। 1935 के अधिनियम के अधीन विधानमंडल गठित करने के लिए साप्रदायिक निर्णय की आधार बनाया गया था। ब्रिटेन की यह नीति थी कि केवल ऐसी रियायतें दी जाएं जिनका ब्रिटिश साम्राज्य और वाणिज्य पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। उनका उद्देश्य ऐसे संविधान की रचना करना था जिनमें उनके पक्षधर मुस्लिम, ईसाई, बड़े भूस्वामी, नवाब, राजा और अन्य लोग कांग्रेस को बाधा पहुंचाएं और ब्रिटेन के राज्य को बनाए रखने में सहायता करें। यह कहा गया है कि 1935 के सुधार ब्रिटेन द्वारा भारत में अपना शासन कायम रखने और संतुलन बनाये रखने के प्रयत्न में किया गया सर्वाधिक धूर्ततापूर्ण और आखिरी प्रयत्न था।
1935 के भारत शासन अधिनियम की संक्षिप्त रुपरेखा
1935 के भारत शासन अधिनियम में प्रांतीय सरकारों को लोक नियंत्रण में रखा गया। द्वैध प्रणाली स्थापित की गई। गवर्नर की शक्तियां अभी भी ऐसी थी कि उनके कारण मंत्रिमंडल की शक्तियां कम हो जाती थीं। गवर्नर में निहित शक्तियों को न्यायोचित ठहराने के लिए यह कहा गया कि अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा करने के लिए ऐसा करना आवश्यक है। सांप्रदायिक निर्णय के आधार पर प्रांतीय विधानमंडलों के गठन से यह सुनिश्चित हो गया कि विधान मंडल में ऐसे स्थाई गुट रहेंगे जो एक दूसरे से झगड़ते रहेंगे। सरकार का सुचारु रूप से काम करना एक दूर का सपना था। गवर्नर ब्रिटेन के हितों का रक्षक था।
केंद्रीय सरकार परिसंघ के रूप में थी। ब्रिटिश भारत (भारत का वह भाग जिस पर ब्रिटेन का शासन था) और देशी रियासतों (जहां राजाओं का शासन था) से मिलकर परिसंघ बनना था। इस स्तर पर दैध शासन प्रणाली थी। शक्ति का अंतरण सीमित था। प्रतिरक्षा, विदेश कार्य और ईसाई धर्म के मामले पूर्णतया गवर्नर जनरल के विवेकाधीन थे। अवशिष्ट विषय मंत्रियों के अधीन थे। मंत्री विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी थे। किंतु शक्तियों के इस अंतरण में बहुत सी मर्यादाएं थीं जिन्हें रक्षोपाय कहा गया था। इस प्रकार एक हाथ से जो दिया गया उसे दूसरे हाथ से ले लिया गया।
केंद्रीय विधानमंडल के दो सदन थे। दोनों सदनों की शक्तियां एक समान थीं। राजाओं को अधिक प्रतिनिधित्व दिया गया। राज्य परिषद् में 40 प्रतिशत और विधान सभा में 33.33 प्रतिशत।
यद्यपि जनसंख्या की दृष्टि से उन्हें 23.3 प्रतिशत स्थान पाने का अधिकार था। उनसे निर्वाचित प्रतिनिधि भेजने की अपेक्षा नहीं थी। राजाओं को यह अधिकार दिया गया कि वे चाहें तो अपने प्रतिनिधि नामनिर्दिष्ट करें। स्थानों का वितरण सांप्रदायिक अधिनिर्णय के आधार पर किया गया। मुसलमानों को एक तिहाई स्थान दिये गए। राज्य परिषद् का निर्वाचन प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली से था जबकि सभा का निर्वाचन अप्रत्यक्ष होना था।
संक्षेप में सदन इस प्रकार गठित किए गए कि उनका झुकाव ब्रिटेन के पक्ष में और भारत के विरुद्ध हो।
परिसंघ संविधान होने के कारण उसमें परिसंघ के अन्य सामान्य लक्षण थे जैसे परिसंघ न्यायालय, परिसंघ लोक सेवा आयोग, रिजर्व बैंक आदि।
परिसंघ वाला भाग और प्रांतीय भाग एक साथ प्रवर्तन में नहीं आने थे। परिसंघ भाग तभी प्रवर्तित किया जाना था जब अपेक्षित संख्या में देशी राजा परिसंघ में विलय के लिए अपनी सहमति दे दें।
1935 के अधिनियम का प्रवर्तन
सभी भारतीय राजनीतिक दल परिसंघ के प्रारंभ के विरोध में थे यद्यपि उनके कारण भिन्न-भिन्न थे। राजाओं की इच्छा सम्मिलित होने की नहीं थी। उन्हें यह आशंका थी कि जनता को मताधिकार और प्रतिनिधित्व देने से जो आंधी आएगी उसमें उनकी शक्तियां उड़ जाएंगी। द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारंभ हो जाने पर परिसंघ वाले भाग को लागू करने का विचार स्थगित कर दिया गया। इसके अनंतिम उपबंध संविधान के प्रवृत्त होने तक बने रहे।
1937 के निर्वाचन के परिणाम
1937 में साधारण निर्वाचन हुए और प्रांतों में निर्वाचित मंत्रिमंडल आ गए। कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ समझौता किया और मुसलमानों के लिए आरक्षित स्थानों में से कुछ के लिये हो चुनाव लड़ा। काग्रेस को साधारण स्थानों में से 75 प्रतिशत और मुस्लिम स्थानों में से 26 प्रतिशत मिले। यह स्थान मुख्यतया पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में थे जहां उसे खान अब्दुल गफ्फार खां के नेतृत्व वाले लाल कुर्ती दल का समर्थन प्राप्त था।
मुस्लिम लीग की स्थिति बहुत खराब रही। जहां मुसलमान अल्पसंख्यक थे वहां लीग मतदाताओं को आकर्षित कर सकी। पंजाब और बंगाल में, जहां मुसलमान बहुमत में थे, क्रमशः यूनियनिस्ट पार्टी और कृषक प्रजा पार्टी ने बहुमत प्राप्त करके सरकार बनाई। सभी हिंदू बहुमत वाले प्रांतों में कांग्रेस के मत्रिमंडल बने। इसके अतिरिक्त पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में जिसमें मुसलमान लगभग शत प्रतिशत थे, कांग्रेस का मंत्रिमंडल बना।
कांग्रेस की सरकारें
चुनाव के बाद कांग्रेस ने मुस्लिम लीग को मंत्रिमंडल में सहभागी बनाने से इंकार कांग्रेस की सरकारें कर दिया। संविधान में मुस्लिम मंत्री नियुक्त करने का उपबंध था इसे पूरा करने के लिए कांग्रेस ने निर्दलीय मुस्लिम और कांग्रेस के टिकट पर निर्वाचित मुस्लिम मंत्री नियुक्त किए।
कांग्रेस ने एक जनसंपर्क कार्यक्रम प्रारंभ किया। इसका उद्देश्य मुस्लिम जनता को, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों वाली जनता को आकर्षित करना था। इस कार्यक्रम से और मंत्रिमंडल में मुस्लिम लीग को सम्मिलित न करने से कांग्रेस और लीग के संबंधों में तनाव और बढ़ गया। यहां यह कहना उचित होगा कि इन दोनों के बीच संबंध पहले भी कोई बहुत घनिष्ठ और सुखद नहीं थे। लीग ने सरकार के विरुद्ध कुप्रशासन और अन्यायपूर्ण व्यवहार के आरोप लगाए। ये आरोप अधिकतर आधारहीन थे।
युद्ध और कांग्रेस के मंत्रिमंडलों का त्याग पत्र
1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया। कांग्रेस चाहती थी कि ब्रिटेन यह युद्ध और कांग्रेस के घोषणा करे कि युद्ध का उद्देश्य साम्राज्यवाद का उन्मूलन होगा गवर्नर जनरल लार्ड लिनलिथगो के कथन से संतुष्ट नहीं थी। परिणामस्वरूप कांग्रेस के मत्रिमंडलों ने त्यागपत्र दे दिए। इससे मुस्लिम लीग को हर्ष हुआ और उन्होंने 22 सितम्बर 1939 को मुक्ति दिवस मनाया।
पंजाब, बंगाल और सिंध के गैर कांग्रेसी मत्रिमंडल काम करते रहे। जब कांग्रेस मत्रिमंडलों ने त्याग पत्र दिया तब 11 प्रांत थे जिनमें से 8 में कांगेस सत्ता में थी। लार्ड लिनलिथगो का झुकाव अब लीग की ओर तथा कांग्रेस से विपरीत होने लगा। यदि कांग्रेस त्यागपत्र नहीं देती तो इतिहास की धारा किसी और दिशा में होती।
संविधान सभा की मांग
15 नवम्बर 1939 को चक्रवती राजगोपालाचारी ने वयस्क मताधिकार के आधार वि पर निर्वाचित संविधान सभा की मांग प्रस्तुत की। कांग्रेस ने 23 नवम्बर, 1930 को संकल्प पारित करके वयस्क मताधिकार के आधार पर संविधान सभा की मांग की। साथ ही यह स्वीकार किया कि अल्पसंख्यकों के लिए संविधान में ऐसे रक्षोपाय रखे जाएंगे जो उनके लिए समाधानकारी हों। प्रस्ताव में पृथक् निर्वाचक मंडल मान लिए गए। ब्रिटेन से यह कहा गया कि वे जानबूझ कर या अन्यथा किसी एक या अधिक राजनीतिक दल का पक्षपात न करे।
मुस्लिम लीग द्वारा विरोध
संविधान सभा की मांग का जिन्ना ने विरोध किया। लंदन से प्रकाशित टाइम एड टाइड में 19 जनवरी 1940 को प्रकाशित एक लेख में उन्होंने यह आरोप लगाया कि कांग्रेस संविधान सभा के माध्यम से अपने उद्देश्य पूरा करना चाहती है।
पाकिस्तान की मांग
अभी तक जिन्ना मुसलमानों को धार्मिक अल्पसंख्यक बताते आए थे। अकस्मात् 22 मार्च 1940 को लाहौर में उन्होंने अपने एक भाषण में पाकिस्तान की मांग की।
24 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान का संकल्प पारित किया। इसके पश्चात् मुस्लिम लीग का उद्देश्य विभाजन और स्वतंत्रता थी। मुस्लिम लीग चाहती थी कि यदि युद्ध के समय राष्ट्रीय सरकार का गठन किया जाता है तो उसे कांग्रेस के समान दर्जा दिया जाए।
मुसलमानों को संतुष्ट करने के लिए और भारत को अविभाजित रखने के लिए विभिन्न लोगों ने अनेक सुझाव दिये। एक स्कीम सर तेज बहादुर सप्रू ने बनाई थी। राजगोपालाचारी ने 10 जुलाई 1944 को अपना प्रस्ताव रखा इसमें हिंदुस्तान से पृथक् होने के निर्णय का अधिकार स्वीकार किया गया। राजाजी के प्रस्ताव को महात्मा जी का आशीर्वाद प्राप्त था।
इसके बाद ही गांधीजी ने जिन्ना को 24 सितंबर 1944 को एक पत्र लिखा जिसे जिन्ना ने 25 सितंबर 1944 को अस्वीकार कर दिया।
गांधीजी की विभाजन की शर्तें
24 सितंबर 1944 के ठीक बाद गांधीजी ने एक पत्र में जिन्ना को विभाजन की शर्ते लिखकर भेजीं। गांधीजी द्विराष्ट्र सिद्धांत को मान्यता नहीं के देते थे किंतु इस आधार पर विभाजन के लिए तैयार थे कि मुसलमान जहां पर पूर्ण बहुमत में हैं वहां वे शेष भारत से अलग होकर रहने के इच्छुक हैं।
जिन्ना ने तुरंत दूसरे ही दिन गांधीजी के प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया जिन्ना जानते थे कि उन्हें क्या मिल गया है इसलिए उन्होंने उससे आगे की मांग की। एम.आर. जयकर ने गांधीजी को ऐसे परिणाम के विरुद्ध पहले ही चेतावनी दे दी थी। जिन्ना कभी भी कांग्रेस से समझौता नहीं करते थे क्योंकि अंतिम निर्णय अंग्रेजों के हाथ में था और वह अंग्रेजों को यह कह सकते थे कि कांग्रेस मुझे इतना दे रही है। आप बताइये कि आपका क्या प्रस्ताव है।
सप्रू समिति की सिफारिश
सप्रू समिति विभाजन के विरुद्ध थी। उसने यह सिफारिश की थी कि भारत का दो या अधिक पृथक स्वतंत्र प्रभुत्वसंपन्न राज्यों में विभाजन न्यायोचित नहीं है और इससे पूरे देश की शांति और व्यवस्थित प्रगति खतरे में पड़ जाएगी।
व्यक्तिगत सत्याग्रह, 1940
जब कांग्रेस सरकारों ने त्याग पत्र दिए थे, सितंबर 1940 में गांधीजी ने व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आदोलन प्रारंभ करने का निर्णय लिया। पहले सत्याग्रही थे आचार्य विनोबा भावे। विनोबाजी ने 17 अक्तूबर 1940 को युद्ध के विरोध में भाषण देकर सत्याग्रह किया। उन्हें 21 अक्तूबर को गिरफ्तार किया गया। धीरे-धीरे मई 1941 तक बड़ी संख्या में कांग्रेसजन जेल में बंद कर दिए। इनकी संख्या लगभग 25,000। इस आंदोलन से ब्रिटेन के दृष्टिकोण में कोई परिवर्तन नहीं आया और इसे दिसंबर 1941 में निलंबित कर दिया गया।
1920 और 1930 के आंदोलन भी इसी प्रकार निलंबित करके वापस लिए गए थे। अमरीका के राष्ट्रपति रूज़वेल्ट और ब्रिटेन के प्रधान मंत्री चर्चिल के बीच जो अटलांटिक चार्टर स्वीकार हुआ था उसमें उन राष्ट्रों के लिए जो परतंत्र थे, स्वाधीनता का वचन दिया गया था। किंतु चर्चिल ने यह कथन किया कि यह चार्टर यूरोप पर लागू होता है एशिया के राष्ट्रों पर नहीं।
युद्ध की स्थिति
जून 1941 में जर्मनी ने रूस पर आक्रमण किया। अभी तक रूस जर्मनी का तटस्थ मित्र था। इस आक्रमण के कारण रूस, मित्र राष्ट्रों (इंग्लैंड और फ्रांस) में सम्मिलित हो गया। 7 दिसंबर 1941 को जापान ने पर्ल हार्बर स्थित अमरीका की नौसेना पर आक्रमण किया। परिणामतः अमरीका ने धुरी राष्ट्रों के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया और मित्र राष्ट्रों में सम्मिलित हो गया। मार्च 1944 में जापानी सेनाओं ने रंगून पर अधिकार कर लिया (यह नगर म्यांमार की राजधानी है और अब यंगून के नाम से जाना जाता है)।
जापानियों ने कोलकाता पर बम वर्षा की। अंदमान दीप समूह पर कब्जा कर लिया और लगभग इम्फाल तक पहुंच गए। ऐसी आशंका होने लगी कि जापान भारत पर विजय प्राप्त कर लेगा। सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज (इंडियन नेशनल आर्मी) जापान के साथ मिलकर 1944 में नागालैंड, असम और मणिपुर में युद्ध कर रही थी रूज़वेल्ट और च्यांग काइ शेक चीन के राष्ट्रपति ब्रिटेन पर दबाव डाल रहे थे वह भारत की स्वतंत्र कर दे। परिणामस्वरूप ब्रिटेन ने अपनी नीति बदलकर दिसंबर 1944 में कांग्रेस के नेताओं को जेल से मुक्त कर दिया।
क्रिप्स मिशन, 1942
मार्च 1942 में ब्रिटेन ने सर स्टेफर्ड क्रिप्स को, जो युद्ध मंत्रिमंडल के सदस्य थे, नेताओं से वार्ता करने के लिए भारत भेजा। क्रिप्स ने यह प्रस्ताव किया कि युद्ध की समाप्ति पर संविधान की रचना के लिए एक संविधान सभा का गठन किया जाएगा। भारत की उपनिवेश का दर्जा दिया जाएगा। यदि कोई प्रांत जुड़ना नहीं चाहता है तो वह अपना संविधान अलग बना सकेगा और अपने को स्वतंत्र घोषित कर सकेगा। रियासतों को यह अधिकार होगा कि वे स्वतंत्र रहें या भारत में विलीन हो जाएं। यह दूरगामी प्रस्ताव थे और इनमें भारत के विभाजन का बीज अंतर्विष्ट था।
तात्कालिक प्रस्ताव यह था कि वाइसराय की कार्यकारी परिषद् में भारतीयों की नियुक्ति की जाएगी। इस कार्यकारी परिषद् को वैसे ही अधिकार थे जैसे कि आज मत्रिमंडल को हैं। किंतु रक्षा का विषय गवर्नर जनरल के अधीन रखा जाएगा। सभी राजनीतिक दलों ने अलग अलग कारणों से इन प्रस्तावों को नामंजूर कर दिया। गांधीजी ने कहा कि प्रस्ताव एक उत्तरदिनांकित चैक है जो डूबटे बैंक पर लिखा गया है। कांग्रेस ने अलग होने का अधिकार दिए जाने पर आक्षेप किया क्योंकि यह स्पष्ट था कि मुस्लिम बहुमत वाले प्रांत भारत से अलग हो जाएंगे। कांग्रेस यह भी चाहती थी कि राजाओं को यह अधिकार न दिया जाए कि वह प्रतिनिधि नामनिर्दिष्ट कर सकें। वह चाहती थी कि प्रतिनिधि जनता द्वारा निर्वाचित हो। मुस्लिम लीग पृथक् राज्य चाहती थी और अंतरिम सरकार में आधे स्थानों की मांग कर रही थी। इस प्रकार क्रिप्स मिशन पूर्णतया असफल रहा।
राजगोपालाचारी के प्रयास और कांग्रेस
सी. राजगोपालाचारी ने मद्रास की विधानसभा के कांग्रेस के सदस्यों से 23.4.1942 को दो संकल्प पारित करवा लिए। पहले संकल्प में ए.आई.सी.सी. से अनुरोध किया गया कि वह मुस्लिम लीग के विभाजन के दावे को स्वीकार कर ले। किंतु 29 अप्रैल, 1942 को ए.आइ.सी.सी. ने संकल्प को अस्वीकार कर दिया और यह कहा कि कांग्रेस भारत के टुकड़े करने को सहमत नहीं होगी। 15 जुलाई 1942 को राजाजी ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया। कांग्रेस ने 14 जुलाई 1942 को एक संकल्प पारित करके यह मांग की कि ब्रिटिश राज तुरंत समाप्त किया जाए।
राजगोपालाचारी विभाजन को रोकने के लिए प्रयास करते रहे, वे जिन्ना से मिले। जिन्ना सहयोग के लिए तैयार थे। वे वाइसराय से मिले और उनसे गांधीजी से मिलने की अनुमति मांगी। तब गांधीजी जेल में थे। वाइसराय ने अनुमति नहीं दी। बाद में लीग और कांग्रेस दोनों पीछे हट गए। अंबेडकर ने उनके दृष्टिकोण की तीखी आलोचना की।
भारत छोड़ो आंदोलन
सुभाषचंद्र बोस का सदैव यह मत था कि इंग्लैंड की कठिनाई भारत के लिए सुअवसर है। गांधीजी युद्ध के दौरान ब्रिटेन की नैतिक समर्थन देने के पक्ष में थे। नेहरूजी का धुरी राष्ट्रों के विरुद्ध शत्रुभाव था। वे ब्रिटेन को और झंझट में नहीं डालना चाहते थे। जनता का दृष्टिकोण ब्रिटेन के प्रति पूर्णतया परिवर्तित हो चला था। जनसाधारण भी स्वतंत्रता का पक्षधर बन गया था। ऐसी स्थिति में कांग्रेस ने 8 अगस्त 1942 को एक संकल्प पारित करके यह मांग की कि अंग्रेज तुरंत अपना शासन समाप्त कर दें। साथ ही युद्ध में धुरी राष्ट्रों के विरुद्ध पूरे समर्थन का वचन दिया। कांग्रेस ने करो या मरो का नारा दिया। 9 अगस्त 1942 को सूर्योदय के पूर्व कांग्रेस के सभी नेता गिरफ्तार कर लिए गए।
1942 के आंदोलन की कोई व्यवस्थित तैयारी नहीं की गई थी। इसकी कोई योजना नहीं थी और किसी प्रकार का मार्गदर्शन भी नहीं था। जनता में जो भावनाओं का ज्वार था उसकी अभिव्यक्ति सामूहिक हिंसा और तोड़फोड़ में हुई। डाकघर, रेलवे स्टेशन, पुलिस थाने और अन्य सार्वजनिक भवनों पर आक्रमण किए गए। यातायात बाधित हुआ। स्कूल तोड़ डाले गए। औद्योगिक नगरों में श्रमिक हड़ताल पर चले गए। कुछ जिलों में प्रशासन का नाम निशान मिट गया और दो चार जिलों में जनता ने समानांतर सरकार बना डाली।
अंग्रेजों ने इसका क्रूरता से दमन किया। लगभग 1100 लोग मारे गए और 92,000 जेल में बंद कर दिए गए।
मुस्लिम लीग और अधिकांश मुसलमानों ने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग नहीं लिया बल्कि ब्रिटेन के साथ सहयोग किया। साम्यवादियों की भूमिका आंदोलन के विरुद्ध और अंग्रेजों के साथ पूर्ण सहयोग की थी। उन्होंने आंदोलनकारियों के विरुद्ध गुप्तचरी करके सरकार की सहायता की और आंदोलन की आलोचना की।
युद्ध काल में विंस्टन चर्चिल (इंग्लैंड के प्रधानमंत्री) और स्टालिन (रूस) ने अम्रीका के राष्ट्रपति एफ. डी. रूजवेल्ट के आग्रह पर एक घोषणा की जिसे अटलांटिक चार्टर कहते हैं। इसमें यह वचन दिया गया था कि युद्ध की समाप्ति पर सभी उपनिवेशों को स्वतंत्र कर दिया जाएगा। इससे भारत के नेताओं को बल मिला। राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने लुई जान्सन को अपना विशेष दूत नियुक्त कर भारत भेजा। वे भारत अप्रैल 1942 को पहुंचे। इस समय जापान की नौसेना बंगाल की खाड़ी में थी। ब्रिटेन ने यह बता दिया था कि बंगाल सागर की जो तटरेखा है उसकी जापान से रक्षा वह सांकेतिक रूप में ही कर सकेगा। अमरीका युद्ध के लिए कृतनिश्चय था। वह चाहता था कि भारत उसके साथ लड़े। जान्सन ने भारत के नेताओं से समझौते के लिए सूत्र तैयार किया वे भारत के सब नेताओं से और घनश्याम दास बिड़ला, उद्योगपति से भी मिले। उनकी यह धारणा थी कि बिड़लाजी, गांधीजी को समझौता स्वीकार करने के लिए मना लेंगे। किंतु जान्सन अंत में निराश होकर अमरीका लौटा। 1942 में नेहरूजी ने रूजवेल्ट को एक लंबा पत्र लिखा जिसमें यह कहा कि जो ताकतें फासीवाद के विरुद्ध और स्वतंत्रता के पक्ष में संघर्ष कर रही हैं, हम भावना से उनके साथ हैं।
1 अगस्त 1942 को राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने गांधीजी को एक पत्र लिखा जिसमें अंतिम वाक्य के रूप में यह था मैं यह आशा करता हूं हमारी प्रजातंत्र और नैतिक आचरण में जो समान आस्था है उसके फलस्वरूप आपके और मेरे देश के लोग समान शत्रु के विरुद्ध समान रूप से खड़े होंगे। अमरीका की भारत में रुचि बनी रही। 1942 के अंत में रूजवेल्ट ने विलियम फिलिप्स को अपना दूत बनाकर भेजा। 1948 में जब गांधीजी ने उपवास किया था जब फिलिप ने वाइसराय को बताया कि राष्ट्रपति को गांधीजी के स्वास्थ्य की चिन्ता है। फिलिप ने राष्ट्रपति को यह सलाह दी कि वे भारत की स्वतंत्र करने की गांरटी दें क्योंकि ब्रिटेन के आश्वासनों पर किसी को विश्वास नहीं रह गया है। उनका यह मत था कि भारत में जो हमारी सैन्य स्थिति है उसको देखते हुए हमें इस विषय में भागीदार बनना चाहिए।
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति
यूरोप में युद्ध मई 1945 में समाप्त हो गया। जापान के साथ युद्ध अगस्त 1945 द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति तक चला। इंग्लैंड में, लेबर पार्टी की सरकार बनी। इससे वातावरण में परिवर्तन आया।
शिमला सम्मलेन
जून 1945 में वाइसराय लार्ड वेवल ने भारतीय नेताओं को शिमला में एक शिमला सम्मेलन सम्मेलन के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने यह प्रस्ताव रखा कि वे अपनी कार्यकारी परिषद् में भारतीयों को नियुक्त करेंगे और युद्ध को छोड़कर सभी विभाग वितरित कर देंगे। हिंदू अनुसूचित जाति वालों को छोड़कर अर्थात् सवर्ण हिंदू और मुसलमानों को परिषद् में बराबर स्थान दिए जाएंगे। कांग्रेस का आग्रह था कि मुसलमानों के लिए आरक्षित स्थानों पर भी उसे नामनिर्देशन करने का अधिकार होना चाहिए। इसके विरुद्ध मुस्लिम लीग की यह मांग थी कि मुस्लिम सदस्य केवल लीग के द्वारा नामनिर्दिष्ट किए जाने चाहिए। सम्मेलन असफल रहा।
आज़ाद हिन्द फ़ौज का मुकदमा
जापान ने जिन सैनिकों को युद्धबंदी और कुछ अधिकारी नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अधीन राजद्रोह का अभियोग लगाया। इसके विरुद्ध जनता बाहर आई और उसने विचारण के विरुद्ध प्रदर्शन किए। पुलिस ने उन पर गोलियां बरसाई। जनता सुभाष बोस की सेना की उपलब्धियों पर गर्व करती थी और कांग्रेस की अहिंसक गतिविधियों की तुलना में उसकी प्रशंसा करती थी। दिल्ली के लालकिले में एक विशेष न्यायालय बनाकर आजाद हिंद फौज के तीन अधिकारियों शाहनवाज खान (मुस्लिम), प्रेम कुमार सहगल (हिंदू) और गुरुबक्श सिंह दिल्लों (सिक्ख) का विचारण प्रारंभ किया गया। ये तीनों एक ही दिन में राष्ट्र के नायक बन गए। भूला भाई देसाई और तेज बहादुर सप्रू उनके अधिवक्ता बने। सुभाष चंद्र बोस के नाम के जादू से जनता में शौर्य और साहस की लहर दौड़ पड़ी। बड़ी संख्या में लोगों ने प्रदर्शन में भाग लिया। जनता की भावनाओं का आकलन करते हुए सरकार ने सभी मुकदमे वापस ले लिए और जिन्हें दोषसिद्ध ठहराया गया था उन्हें क्षमा कर दिया। आजाद हिंद सेना का विचारण अंग्रेजों की भयंकर भूल थी।
भारतीय नौसेना का विद्रोह 1946
आजाद हिंद सेना के प्रदर्शन के ठीक बाद ब्रिटेन की एक और समस्या का सामना भारतीय नौसेना करना पड़ा। मुंबई और कराची में रायल इंडियन नेवी (नौसेना) के भारतीय नौसैनिक सरकार के विरुद्ध उठ खड़े हुए। उनकी सहानुभूति में 18 से 23 फरवरी 1946 तक मुंबई में हड़ताल रही और प्रदर्शन किए गए। व्यवस्था बनाए रखने के लिए सेना को बुलाया गया। दो चार दिन में ही 228 लोग मारे गए और हजारों लोग आहत हुए। यह आंदोलन कराची, मद्रास और कलकत्ता जैसे अन्य स्थानों पर भी फैलता गया। 23 फरवरी को सरदार पटेल ने आदोलनकारियों को समर्पण करने के लिए राजी कराया। सेना और वायुसेना में भी विद्रोह पनप रहा था।
अब परिस्थितियां ब्रिटेन के प्रतिकूल होती जा रही थी। ब्रिटेन विरोधी प्रदर्शन और संघर्ष अधिकाधिक होने लगे। अप्रैल 1946 में पुलिस बल ने बिहार दिल्ली, पूर्वी बंगाल और कई अन्य स्थानों में हड़ताल कर दी। जुलाई 1946 में डाक कर्मचारी हड़ताल पर चले गए। रेल कर्मचारियों ने भी हड़ताल की सूचना दे दी। अनेक स्थानों पर किसानों ने भी आंदोलन प्रारंभ कर दिए। इनमें बिहार, बंगाल और तेलंगाना उल्लेखनीय हैं।
1945-46 के निर्वाचन
1945-46 के शीतकाल में केंद्रीय और प्रांतीय विधानमंडलों के लिए निर्वाचन हुए। कांग्रेस ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फौज के लिए जनता के मन में जो आदर भाव था उसका पूरा लाभ उठाया। (नेताजी ने 1939 में कांग्रेस छोड़ दी थी और उसकी नीतियों का विरोध किया था)। कांग्रेस को केंद्रीय विधान सभा में 102 में से 57 स्थान मिले। उसे साधारण (गैर मुस्लिम) निर्वाचन 22 क्षेत्रों में 91 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। बंगाल, पंजाब और सिंध को छोड़कर सभी प्रांतों में कांग्रेस को बहुमत मिला। केंद्र के सभी 30 स्थान जो मुसलमानों के लिए आरक्षित थे मुस्लिम लीग ने जीत लिए। लीग को मुस्लिम मतों का 87 प्रतिशत भाग मिला।
प्रांतों में 509 मुस्लिम स्थानों में से लीग को 142 मिले। पहले की अपेक्षा यह बड़ी उपलब्धि थी। 1936-37 में लीग को मुसलमानों के लिए आरक्षित कुल 482 स्थानों में से केवल 109 मिले थे। किंतु मुस्लिम बहुमत वाले पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत और पंजाब में उसे बहुमत नहीं मिला। पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में कांग्रेस का समर्थन करने वाला मत्रिमंडल बना।
अंग्रेज अपनी उसी नीति पर चलते रहे कि कांग्रेस हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करती है और मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाला एक मात्र दल मुस्लिम लीग हैं। कूटनीतिक चालों द्वारा अंग्रेजों ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी कि भारत की स्वतंत्रता और विभाजन लीग के दृष्टिकोण पर आधारित हो गया। जिन्ना ने यह घोषणा की थी कि मुसलमान एक राष्ट्र हैं। गांधीजी ने इसका तीव्र प्रतिरोध किया था।
जिन्ना और गांधीजी दोनों गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र के रहने वाले थे। जिन्ना के पितामह (दादा) हिंदू थे। 1946 की स्थितियां उसे दुर्व्यवस्था कहना उचित होगा, अंग्रेजों को यह समझाने में पर्याप्त थी कि वे अब बल प्रयोग करके भारत पर राज नहीं कर सकते हैं। उन्हें सशस्त्र बलों पर भी विश्वास नहीं रह गया था।
कैबिनेट मिशन, 1946
ऐसी स्थिति में ब्रिटिश सरकार ने अपने तीन मंत्रियों को भारतीय नेताओं और राजनीतिक दलों से विचार विमर्श करने के लिए भारत भेजा।
ये तीन मंत्री थे- लार्ड पेथिक लारेंस, सर स्टेफर्ड क्रिप्स और एवी. एलेक्जेंडर।
ये लोग 23 मार्च 1946 को भारत पहुंचे। कांग्रेस चाहती थी संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए एक संविधान सभा बुलाई जाए। भारत स्वतंत्र घोषित कर दिया जाए और अंतरिम सरकार की स्थापना हो। मुस्लिम लीग की मांग थी कि भारत का विभाजन हो। पश्चिमोत्तर और पूर्व में जो मुस्लिम बहुल प्रांत हैं उन्हें मिलाकर पाकिस्तान का स्वतंत्र राष्ट्र बनाया जाए। कैबिनेट मिशन ने विभाजन की मांग ठुकरा दी और 16 मई 1946 को अपने प्रस्तावों की घोषणा की। उन्होंने एक ऐसी सांविधानिक यंत्ररचना बनाई जिसमें हिंदुओं को संयुक्त भारत का भ्रम होगा किंतु यह एकता इतनी शिथिल और क्षणभंगुर होगी कि कोई भी राज्य उसे तोड़कर अलग हो सकेगा। इस प्रकार लीग को जो देने से इंकार किया जा रहा है वह लीग सरलता से प्राप्त कर लेगी। ये प्रस्ताव दोमुंहेपन का उत्कृष्ट उदाहरण थे।
मंत्रिमंडल मिशन के प्रस्ताव
मंत्रिमंडल मिशन ने निम्नलिखित प्रस्ताव दिए-
भारत राज्यों का परिसंघ होगा। परिसंघ (केंद्र) के कार्यक्षेत्र में केवल प्रतिरक्षा, संसूचना और विदेश कार्य होंगे।
प्रांतों को तीन समूहों में बांटा जाएगा। समूह-क में 6 हिंदू बहुमत वाले प्रांत होंगे। समूह-ख में मुस्लिम बहुमत वाले प्रांत पंजाब, पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, बलूचिस्तान और सिंध होंगे। समूह-ग मुस्लिम बहुमत वाले असम और बंगाल से मिलकर बनेगा।
प्रत्येक समूह का पृथक् संविधान और सरकार होगी। परिसंघ और समूह की सरकारों के गठन के पश्चात् प्रांतों को विलग होने का अधिकार होगा। प्रांतीय विधान सभाएं, संविधान सभा के लिए 292 प्रतिनिधि निर्वाचित करेंगी। विधान सभा के सदस्यों को तीन निर्वाचन क्षेत्रों में बांटा जाएगा। मुस्लिम, सिक्ख और साधारण गैर मुस्लिम या अवशिष्ट। देशी रियासतें अधिक से अधिक 93 प्रतिनिधि भेजेंगी। मुख्य आयुक्त के प्रांतों से 4 प्रतिनिधि होंगे। इस प्रकार संविधान सभा में अधिक से अधिक 389 सदस्य होंगे।
संविधान सभा के सदस्य तीन समूहों में विभाजित होंगे। ये समूह प्रांतों के क, ख और ग और समूहों के अनुरूप होंगे। प्रत्येक समूह या अनुभाग अपने लिए संविधान बनाएगा। सभी समूह मिलकर परिसंघ (केंद्र) के संविधान की रचना करेंगे।
जब संविधान बन जाएगा तब देशी रियासतें यह निर्णय करने के लिए स्वतंत्र होंगी कि उनका संघ या प्रांतों से संबंध कैसा हो। इसमें निहितार्थ यह था कि देशी रियासतें स्वयं को प्रभुत्वसंपन्न घोषित कर सकेंगी। एक अंतरिम सरकार का भी गठन किया गया। प्रजातंत्र में सामान्यतया जो दल बहुमत में होता है वही सरकार बनाता है। किंतु इस मिशन का यह प्रस्ताव था कि राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि सरकार बनाएंगे। उस मंत्रिमंडल में सवर्ण हिंदुओं और मुसलमानों का समान प्रतिनिधित्व होगा। यहाँ 28 को 77 के बराबर बना दिया गया। ऐसा जानबूझ कर किया गया था जिससे भारत कमजोर रहे और आंतरिक संघर्ष होता रहे। संविधान सभा का निर्वाचन वयस्क मताधिकार से नहीं होना था। उसका एक भाग तो विधान सभाओं द्वारा निर्वाचित होना था और दूसरा भाग राजाओं द्वारा नामजद।
पहले तो कांग्रेस और लीग दोनों ने प्रस्तावों को स्वीकार किया। किंतु बाद में दोनों ने ही योजना को नामंजूर कर दिया।
मिशन योजना और कांग्रेस तथा लीग की प्रतिक्रिया
कांग्रेस ने योजना का यह अर्थ लगाया कि प्रत्येक प्रांत को यह विकल्प है कि वह किसी समूह में सम्मिलित हो या नहीं। पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में कांग्रेस का विधान सभा में बहुमत था और वह नहीं चाहती थी कि वह प्रांत समूह में सम्मिलित हो। कोग्रेस यह नहीं चाहती थी कि असम समूह में सम्मिलित हो क्योंकि असम में हिंदुओं का बहुमत था। कांग्रेस को इस बात पर आपति थी कि देशी रियासतों से जो प्रतिनिधि होंगे। वे निर्वाचित नहीं होंगे क्योंकि शासकों को नामनिर्देशन का अधिकार दिया गया था। लीग का यह मत था कि समूह का निर्माण अनिवार्य है। लीग चाहती थी कि केवल ऐसे मुसलमान मंत्रिमंडल में शामिल हों जो लीग द्वारा नामनिर्दिष्ट किए गए हों।
कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने 10 जुलाई 1946 को यह घोषणा की कि कांग्रेस संविधान सभा में भाग लेगी किंतु मिशन योजना का बंधन स्वीकार नहीं करेगी।
मुस्लिम लीग ने 29 जुलाई 1946 को मिशन योजना नामंजूर कर दी और पाकिस्तान की मांग पेश की। लीग ने इससे पहले 6 जून 1946 को योजना को स्वीकृति दे दी थी।
6 दिसंबर 1946 को हिज मजेस्टी की सरकार ने समूह से संबंधित खंडों के निर्वचन पर अपना दृष्टिकोण प्रकाशित किया। उनके विचार में प्रांतों को समूह से बाहर रहने का विकल्प नहीं था किंतु निर्वाचन हो जाने के पश्चात् प्रांत समूह के बाहर आ सकता था जिन्ना ने बलपूर्वक पाकिस्तान प्राप्त करने के लिए मुसलमानों का आह्वान किया।
लीग की सीधी कार्यवाही
27 जुलाई 1946 को लीग की काउंसिल ने अपनी कार्य समिति को यह प्राधिकार दिया कि वह सीधी कार्रवाई की योजना तैयार करे।
16 अगस्त 1946 को लीग ने सीधी कार्रवाई दिवस मनाने की घोषणा की। कोलकाता में मुख्यमंत्री ने, जो मुस्लिम था, एक सार्वजनिक सभा को संबोधित किया और मुस्लिम जनता को यह आश्वासन दिया कि सेना और पुलिस को निष्क्रिय कर दिया गया है। सभा के तुरंत बाद हत्याएं प्रारंभ हो गई। बंगाल में जो अंग्रेज गवर्नर था उसने चार दिन बाद कार्रवाई प्रारंभ की तब तक 5,000 से अधिक लोग मारे जा चुके थे।
अंतरिम सरकार
2 सितंबर 1946 को एक अंतरिम सरकार बनी। पंडित नेहरू को गवर्नर जनरल की परिषद् का उपाध्यक्ष घोषित किया गया। परिषद् में नेहरू सहित 12 सदस्य थे। इसका गठन इस प्रकार था- 5 सवर्ण हिंदू, 3 मुस्लिम, 1 सिक्ख, एक ईसाई, एक पारसी और एक अनुसूचित जाति का हिंदू।
इस परिषद् को सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत के अनुसार मत्रिमंडल के रूप में काम करना था। वाइसराय ने यह वचन दिया था कि वह न्यूनतम हस्तक्षेप करेगा। उसी दिन अहमदाबाद और मुंबई में सांप्रदायिक दंगे हुए।
पहले तो लीग ने सरकार में सम्मिलित होने से इंकार किया किंतु बाद में 26 अक्तूबर 1946 को सम्मिलित हुई उसका उद्देश्य परिषद् के भीतर रहते हुए पाकिस्तान के लिए लड़ना था। उन्होंने सरकार के काम में गतिरोध पैदा करने के लिए हर संभव कदम उठाए। लियाकत अली वित्त मंत्री थे। वे अन्य मंत्रियों द्वारा भेजे गए किसी प्रस्ताव को मंजूरी नहीं देते थे।
विभाजन की स्वीकृति
पंजाब और बंगाल में बार-बार भड़कने वाले दंगे, 1937 की तुलना में 1946 में मुसलमानों द्वारा कांग्रेस को वोट न दिया जाना और अंतरिम सरकार के मुस्लिम सदस्यों के अवरोधक और विनाशकारी दृष्टिकोण से विवश होकर कांग्रेस ने विभाजन स्वीकार कर लिया। वास्तविकता तो यह थी कि कांग्रेस ने विभाजन तभी स्वीकार कर लिया था जब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने विभाजन की योजना प्रस्तुत की थी और गांधीजी ने उसका अनुमोदन किया था तथा उसके आधार पर जिन्ना से वार्ता की थी।
कांग्रेस ने 1916 में मुस्लिम लीग के साथ एक समझौता किया था, जिसे लखनऊ समझौता कहा जाता है जिसका उद्देश्य एकता स्थापित करना था। कांग्रेस ने यह स्वीकार कर लिया था कि मुस्लिम लीग मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है। 1930 में गोलमेज सम्मेलन में गांधीजी ने यह दावा किया की कांग्रेस सभी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती है, अर्थात सवर्ण हिन्दू, मुस्लिम और दलित सभी का। 1935 में जब जिन्ना-राजेन्द्र प्रसाद की वार्ता हुई तब कांग्रेस ने लीग का यह दावा स्वीकार कर लिया की लीग मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि है किन्तु जब अंतरिम सरकार बनी तो कांग्रेस ने मुस्लिम सदस्य नामजद करने का दावा किया। कांग्रेस की मुस्लिम नीति को कभी मानने और कभी नकारने की नीति तथा अंग्रेजों की मुस्लिमों को समर्थन देने की नीति और हिन्दू महासभा और अन्य दलों को दबाने और उनकी उपेक्षा करने की नीति का परिणाम भारत के लिए घटक सिद्ध हुआ। केबिनेट मिशन के साथ कांग्रेस अध्यक्ष ने वार्ता की थी किंतु वे ब्रिटिश नीति में परिवर्तन लाने में असफल रहे
1916 में पट्टाभि सीतारामय्या ने, जो प्रसिद्ध राजनेता और कांग्रेस के अधिकृत इतिहासकार थे, मुसलमानों को प्रसन्न करने की कांग्रेस नीति पर दृष्टिपात करते हुए कहा था कि 1909 में मुसलमानों के लिए पृथक् निर्वाचन क्षेत्र बनाए गए। 1916 में उन्हें विशेष मान दिया गया। इसका परिणाम यह कि मद्रास में जहां उनकी जनसंख्या 7% थी और मध्यप्रांत में 4.5% थी वहां उन्हें प्रांतीय विधानसभा में 15 स्थान मिले। 1981 में अवशिष्ट शक्तियां प्रांतों को दी गई क्योंकि यह मुस्लिम लीग की मांग थी। 1945 के भूलाभाई लियाकत अली करार के अधीन मंत्रिमंडल में मुसलमानों को सवर्ण हिन्दुओं के बराबर संख्या में स्थान देना स्वीकार किया गया। यह भी स्वीकार किया गया की मुस्लिम समाज को प्रभावित करने वाली विधि पारित करने के लिए-
- सदन में पूर्ण नहुमत होना चाहिए
- सदन में उपस्थित मुस्लिमों का बहुमत होना चाहिए
1920 के दशक में स्वराज्य पार्टी का यह उद्देश्य था कि परिषदों में प्रवेश कर उनका बहिष्कार किया जाये और उन्हें काम न करने दिया जाए।
30 के दशक में जवाहरलाल नेहरू ने घोषणा की कि चुनाव लड़ने में कांग्रेस का उद्देश्य यह है कि हम विधान मंडल में जाकर अंग्रेजी साम्राज्य के तंत्र से सहयोग नहीं करेंगे बल्कि हम संघर्ष करके उसका अंत करेंगे। 40 के दशक में लीग ने अवरोध करने और अंदर घुसकर पाकिस्तान के लिए लड़ाई करने के घोषित उद्देश्य के लिए सरकार में भाग लिया था। लीग ने कांग्रेस की नकल की किंतु जहां कांग्रेस असफल रही वहां लीग ने सफलता प्राप्त की।
संविधान सभा
संविधान सभा के सदस्य कैबिनेट मिशन की योजना के अनुसार ब्रिटिश भारत में स्थित विधान सभाओं द्वारा निर्वाचित किए गए थे। जुलाई 1946 की समाप्ति तक ब्रिटिश भारत की संविधान सभा में आबंटित 296 स्थानों के लिए निर्वाचन हो गए थे। जो ‘साधारण’ स्थान थे उनमें से 9 को छोड़कर शेष सभी पर कांग्रेस जीती। मुस्लिम लीग 5 को छोड़कर शेष सभी मुस्लिम स्थानों पर विजयी हुई। वह 78 में से 73 स्थान जीती। सिक्खों के स्थान बाद में भरे गए जब पंथिक बोर्ड सहमत हुआ। रियासतों के शासकों ने अपने प्रतिनिधि नामनिर्दिष्ट किए जो सभा के सदस्य संविधान सभा का एक भाग निर्वाचित था। किंतु निर्वाचन अप्रत्यक्ष था और वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं हुआ था। संविधान सभा की पहली बैठक दिसंबर 1946 को हुई। मुस्लिम लीग ने सभा में सम्मिलित होने से इंकार कर दिया। मुस्लिम लीग ने यह मांग की कि सभा को विघटित किया जाना चाहिए क्योंकि वह भारत के लोगों के सभी अनुभागों का प्रतिनिधित्व नहीं करती।
वाइसराय ने सविधान सभा के अधिवेशन के लिए 20 नवंबर 1946 को निमंत्रण भेजे। चर्चिल ने संविधान सभा की खिल्ली उड़ाई।
20 फरवरी 1947 की घोषणा हिज मजेस्टी की सरकार
ब्रिटेन के प्रधान मंत्री क्लीमेंट एटली ने सत्ता के अंतरण के लिए समय सीमा निर्धारित करते हुए एक वक्तव्य दिया। अंतरण के लिए 30 जून 1948 की तारीख निर्धारित की गई किंतु यदि उस तारीख तर्क कोई संविधान तैयार नहीं होता है तो, मजेस्टी की सरकार को यह विचार करना था कि ब्रिटिश भारत में केंद्रीय सरकार की शक्तियां उस तारीख को किसे सौंपी जाएं। क्या ब्रिटिश इंडिया के लिए किसी रूप में केंद्रीय सरकार की या कुछ क्षेत्रों में विद्यमान प्रांतीय सरकारों को या किसी अन्य प्रकार से। जो भी युक्तियुक्त हो और भारतीय जनता के सर्वोत्तम हित में हो।
इस घोषणा से मुस्लिम लीग को बल प्राप्त हुआ। लीग संविधान सभा में प्रवेश करने से इंकार करती रही और मुस्लिम भारत के लिए संविधान सभा की मांग पर अड़ी रही। वह इस बात की प्रतीक्षा में थी कि अंग्रेज जाते जाते उसे कुछ उपहार दे जाएंगे। पहली बार भारतवासियों को ऐसा लगा कि अब ब्रिटेन निश्चय ही भारत छोड़ जाएगा।
हिज मजेस्टी की सरकार की 3 जून 1947 की घोषणा
जून 1947 में जो घोषणा की गई उससे आगामी घटनाओं के बारे में कोई शंका नहीं रही। सरकार ने यह वक्तव्य दिया, हिज मजेस्टी की सरकार का विद्यमान संविधान सभा के काम में बाधा पहुंचाने का कोई आशय नहीं है. साथ ही यह स्पष्ट है कि इस सभा द्वारा बनाया गया संविधान देश के उन भागों पर लागू नहीं किया जा सकता जो उसे स्वीकार नहीं करना चाहते।
फरवरी 1945 में शब्दों के आडंबर में छिपाकर पाकिस्तान की मांग स्वीकार कर ली गई। अब जून में इस बात को और स्पष्ट किया गया। बंगाल, पंजाब और सिंध के अधिकांश प्रतिनिधि और बलूचिस्तान का एक मात्र प्रतिनिधि मुस्लिम लीग के सदस्य थे। जून में की गई घोषणा के आधार पर अंग्रेजों के जाने के बाद सत्ता उन्हें मिलनी थी।
माउंटबेटन योजना
मार्च 1947 में लार्ड माउंटबेटन, लार्ड वेवेल के स्थान पर वाइसराय नियुक्त हुए। 8 मई 1947 को वी.पी. मेनन ने सत्ता के अंतरण के लिए एक योजना प्रस्तुत की जिसका माउन्टबेटन ने अनुमोदन किया। कांग्रेस (नेहरू, पटेल और कृपलानी) और लीग (जिन्ना, लियाकत अली और अब्दुल निश्तार) के नेताओं से विचार विमर्श हुआ और उन सब ने योजना को साधारणतया स्वीकार कर लिया। उसी दिन वाइसराय ने गांधीजी से मिलकर उनका भी अनुमोदन प्राप्त कर लिया। प्रधान मंत्री एटली ने इस योजना की घोषणा हाउस आफ कामन्स में 3 जून, 1947 को की इसीलिए यह 3 जून की योजना कही जाती है।
जिस दिन जून घोषणा हुई उसी दिन माउंटबेटन ने विभाजन की अपनी घोषणा प्रकाशित की। इसे कांग्रेस और लीग दोनों ने स्वीकार किया। योजना के अनुसार पंजाब और बंगाल के प्रांतीय विधान सभाओं के वे सदस्य जो मुस्लिम बहुमत वाले जिलों का प्रतिनिधित्व करते थे अलग एकत्र होकर और गैर मुस्लिम बहुमत वाले सदस्य अलग एकत्र होकर अपना मत देकर यह तय करेंगे कि प्रांत का विभाजन किया जाए या नहीं। दोनों भागों में विनिश्चय सादे बहुमत से होगा। प्रत्येक भाग यह भी तय करेगा कि विद्यमान विधान सभा में सम्मिलित हुआ जाए या नई सभा में। सिंघ की विधान सभा यह निर्णय लेगी कि उसे भारत में रहना है या पाकिस्तान में। पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में और असम के सिलहट जिले में जहां मुस्लिम बहुमत है जनमत संग्रह होगा। बलूचिस्तान के लिए निर्णय का अधिकार क्वेटा की नगरपालिका को दिया गया। इसके परिणाम क्या होगे यह पहले से सबको मालूम था।
राजर्षि टंडन ने 1916 में धर्म आधारित आरक्षण का विरोध किया था। उन्होंने द्वारा 3 जून की योजना के विरुद्ध आवाज उठाई। 9 जून को वे गांधीजी से मिले। उस दिन सोमवार था। गांधीजी का मौन व्रत था। उन्होंने संकेत से टंडनजी को बताया कि वे इसका विरोध करेंगे, चाहे विरोध में वे अकेले ही क्यों न हो। शनिवार 14 जून को ए.आइ.सी.सी. की बैठक हुई। जे.बी. कृपलानी इसके अध्यक्ष थे। योजना को स्वीकार करने का प्रस्ताव पं. गोविंदवल्लभ पंत ने रखा। टंडन जी ने इसका विरोध करते हुए अपने विचार रखे। उनका कहना था यह निर्णय बताता है कि कांगेस कितनी शक्तिहीन और हताश हो गई है। गांधीजी और मौलाना आजाद ने विभाजन का समर्थन किया। प्रस्ताव स्वीकार हो गया। पक्ष में 157 मत थे, विरोध में 29। 52 लोगों ने मतदान नहीं किया।
वी.पी. मेनन शक्ति के हस्तांतरण से निकटता से जुड़े थे और इस कार्य में वाइसराय की सहायता कर रहे थे। उन्होंने यह मत व्यक्त किया कि कांग्रेस ने दो कारणों से विभाजन के आगे घुटने टेक दिए,
- मुस्लिम लीग का कोई समझौता नहीं करने का रवैया।
- यह आशा कि पाकिस्तान से सांप्रदायिक समस्या का हल हो जाएगा और दोनों देश शांतिपूर्वक रहेंगे।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947
माउंटबेटन योजना को तुरंत प्रभावी करने के लिए ब्रिटेन की संसद् ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 पारित किया। यह विधेयक 16 जुलाई 1947 को पारित हुआ। इस अधिनियम के मुख्य उपबंध इस प्रकार थे-
- दो उपनिवेश गठित किए गए – भारत और पाकिस्तान।
- सम्राट् प्रत्येक उपनिवेश के लिए गवर्नर जनरल नियुक्त करेगा।
- प्रत्येक उपनिवेश के विधानमंडल को विधान बनाने के लिए शक्ति होगी। ब्रिटिश संसद् द्धारा पारित कोई विधान किसी उपनिवेश पर लागू नहीं होगा।
- गवर्नर जनरल को यह शक्ति होगी कि वह हिज मजेस्टी की ओर से किसी भी विधेयक को अनुमति प्रदान करे।
- देशी रियासतों पर हिज मजेस्टी का आधिपत्य समाप्त हो जाएगा।
- जब तक नया संविधान नहीं बनता तब तक 1935 का अधिनियम (अनुकूलन और उपांतरणों के अधीन) सॉवधान के रूप में रहेगा।
- संविधान सभा की शक्तियों पर कोई मर्यादाएं नहीं होंगी।
- सविधान सभा, अंतरिम अवधि के लिए विधान सभा के रूप में कार्य करेगी।
ब्रिटेन द्वारा स्वतंत्रता दिए जाने के कारण
कुछ ऐसी घटनाएं हुई थीं जिनसे ब्रिटेन को यह संकेत मिला कि यदि वे भारत के राष्ट्रीय जागरण का विरोध करेंगे तो सशस्त्र क्रांति से उन्हें मिटा दिया जाएगा। यह घटनाएं थीं- 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ब्रिटेन के विरोध में दंगे, सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिंद सेना का जापान की ओर से युद्ध करना, 1946 में भारतीय नौसेना का विद्रोह अन्य अनेक हिंसक घटनाएं तथा अंग्रेजों के विरुद्ध असंतोष का खुला प्रदर्शन।
जून 1940 में श्री सुभाषचंद्र बोस, श्री विनायक दामोदर सावरकर से मिले। सावरकर ने उन्हें श्री रासबिहारी बोस का अनुसरण करने की सलाह देकर देश के बाहर जाने और आयुध एकत्र करके अंग्रेजों से युद्ध करने के लिए कहा। 1941 में अवसर पाकर नेताजी सुभाष बोस शासन को चकमा देकर देश के बाहर चले गए और काबुल होते हुए जर्मनी पहुंच गए। जर्मनी में उन्होंने मुक्ति सेना का गठन किया। फरवरी 1943 में जापान की सहायता से आजाद हिंद सेना (INA)का गठन हुआ। जून 1943 में नेताजी ने आजाद हिंद सेना की कमान संभाली। 21 अक्तूबर 1948 को म्यांमार (तब बर्मा या ब्रह्मदेश कहलाता था) और फिलिपाइन्स की स्वतंत्र घोषित कर दिया गया। उसी दिन स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार की घोषणा की गई और और अंडमान निकोबार द्वीप में तिरंगा ध्वज फहराया गया। उन द्वीपों को ‘शहीद’ और ‘स्वराज’ नाम दिए गए। आजाद हिंद सेना त्रिपुरा के कुछ भागों तक पहुंच गई। इससे अंग्रेजों का विश्वास डिग गया। बाद में लार्ड एटली ने (जो भारत के स्वतंत्र होते समय इंग्लैंड के प्रधानमंत्री थे) यह स्वीकार किया कि सेना में जो विद्रोह और अविश्वास उत्पन्न हो गया था वह ब्रिटेन के वापस लौटने और स्वतंत्रता देने का कारण था। सत्याग्रह के भय से स्वतंत्रता नहीं दी गई। अमरीका ने जो दबाव बनाया था वह भी एक सक्षम कारण था।
साम्यवादियों का विद्रोह
भारत की साम्यवादी पार्टी (CPI) ने अपने को 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से दूर रखा। गंगाधर अधिकारी ने 1943-1944 में यह स्थापना प्रतिपादित की कि भारत 17 राष्ट्रों का समूह है, कोई एक राष्ट्र नहीं है। इन 17 में हैं पठान, पंजाबी, मुसलमान, सिक्ख, बलोच, सिंधी, हिंदुस्तानी, बिहारी, बंगाली आदि। अर्थात् जितनी भाषाएं उतने राष्ट्र। इन सबको आत्मनिर्णय का अधिकार है। इस स्थापना से मुसलमानों की पाकिस्तान की मांग को समर्थन मिला। साम्यवादियों ने यह घोषणा की कि मुस्लिम लीग प्रगतिशील संगठन है। वे गांधीजी को अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली कहते थे। नेहरूजी को साम्राज्यवादी शक्तियों का दलाल कहते थे। नेताजी बोस को तोजो (जापान के प्रधानमंत्री) की गोद का (कुते का) पिल्ला कहते थे। सरदार पटेल, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अरुणा अली, अशोक मेहता आदि को वे जापानियों के दलाल मानते थे साम्यवादियों ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया, ब्रिटेन का समर्थन किया और उनके लिए गुप्तचरी की। उनकी स्थापना यह थी कि सोवियत संघ ने ब्रिटेन के साथ युद्ध में हाथ मिला लिया है इसलिए यह युद्ध जनता का युद्ध हो गया है। 1947 में साम्यवादियों ने यह कहा कि स्वतंत्रता झूठी है और भारत सरकार के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष प्रारंभ कर दिया।
साम्यवादियों ने मास्को के आदेश पर अगस्त 1939 के स्तालिन-हिटलर समझौते का समर्थन किया। हिटलर को शांतिदूत कहकर उसकी प्रशंसा की गई। उसे फासिस्ट कहना अनुचित बताया गया। जून 1941 में जर्मनी ने रूस पर आक्रमण किया। साम्यवादियों ने तुरंत अपना विचार बदल दिया और ब्रिटेन और युद्ध को समर्थन देना पुनः प्रारंभ कर दिया। अंग्रेजों ने 24 जुलाई 1942 को साम्यवादी दल से प्रतिबंध उठा लिया। साम्यवादियों ने अंग्रेजों के गुप्तचर और दलाल बनकर अपने देशवासियों के विरुद्ध उन्हें सहायता प्रदान की। उन्होंने स्वतंत्रता के आंदोलन को हर तरह से विफल करने का प्रयत्न किया। यही नहीं देश की एकता को भी नष्ट किया। साम्यवादियों को ब्रिटिश सरकार से उनके समर्थन के बदले में वित्तीय सहायता दी जाती थी। इसके अतिरिक्त साम्यवादियों ने मुस्लिम लीग से एक गुप्त समझौता किया था।
मुस्लिमों द्वारा पाकिस्तान की मांग
कांग्रेस का 1885 में उसके जन्म से ही यह प्रयास रहा कि मुस्लिम समाज स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आंदोलन में सम्मिलित हो। इसी उद्देश्य से गांधीजी ने मुसलमानों के पक्ष में खिलाफत आंदोलन से कांग्रेस को जोड़ा। 1888 में सर सैयद अहमद ने यूनाइटेड पैट्रियाटिक एसोसिएशन की स्थापना की जिसमें मुस्लिम और हिंदू सदस्य थे। वे सभी कांग्रेस के विरोध में एकमत थे। 1893 में सर सैयद अहमद ने मोहम्मडन एंग्लो ओरियंटल डिफेंस एसोसिएशन आफ अपर इंडिया की रचना की। इसमें केवल मुसलमान और अंग्रेज ही सदस्य हो सकते थे। उनका यह पूरा प्रयास था कि मुसलमान कांग्रेस से दूर रहें। 1923 में गांधीजी ने मोहम्मद अली को काकीनाड़ा के अधिवेशन में कांग्रेस का अध्यक्ष बनवाया। 1927 के मद्रास अधिवेशन में एम.ए. अंसारी अध्यक्ष बनाए गए।
1939 से 1946 तक मौलाना आजाद कांग्रेस के अध्यक्ष रहे किंतु मुसलमान कांग्रेस से दूर ही बने रहे। मौलाना वेशभूषा से मुसलमान थे। अरबी के विद्वान थे। कुरान पर उन्होंने भाष्य लिखा था। फिर भी मुस्लिम समाज मुहम्मद अली जिन्ना को नेता मानता था जिन्हें अरबी का ज्ञान नहीं था। नमाज पढ़नी नहीं आती थी और जो खानपान, वेशभूषा से अंग्रेज थे। जनवरी फरवरी 1937 में प्रांतीय विधान सभाओं के लिए निर्वाचन हुए। 11 प्रांतों में कुल 1585 स्थान थे जिनमें से 482 मुसलमानों के लिए आरक्षित थे। कांग्रेस को 1585 में से 716 स्थान मिले। मुस्लिम आरक्षित स्थानों में केवल 58 के लिए उसे अभ्यर्थी मिले, जिनमें से 26 जीत पाए। इनमे से 19 स्थान पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में थे जहां अब्दुल गफ्फार खान का प्रभावी नेतृत्व था। मुस्लिम लीग की स्थिति भी बेहतर नहीं रही। उसे 482 में से केवल 105 स्थान मिले। सिंध और पश्चिमोत्तर प्रांत में उसे एक भी स्थान नहीं मिला। पंजाब में उसे 86 मुस्लिम स्थानों में केवल 1 स्थान पर सफलता मिली। बंगाल में उसे 119 में से 37 स्थान प्राप्त हुए
1940 में लीग ने पाकिस्तान की मांग उठाई जो पुर्णतः धर्म पर आधारित थी। 1946 के निर्वाचन में लीग का आधार पाकिस्तान था जबकि कांग्रेस का था अखण्ड भारत। मुस्लिम समाज ने पाकिस्तान का पक्ष लिया। मातृभूमि और राष्ट्र की एकता के नारों का उन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ।
1946 में लीग को पंजाब में 79/86, बंगाल में 113/119, सिंध में 27/35 और पश्चिमोतर सीमा प्रांत में 17/36, स्थान मिले। इन प्रांतों में मुस्लिम बहुमत था। जहां मुसलमान अल्पसंख्यक थे वहां वे और भी अधिक विभाजन के पक्ष में थे। परिणाम इस प्रकार रहे, मद्रास 29/29, मुंबई 30/30, ओडिशा 4/4 , मध्य प्रांत और विदर्भ 13/14, असम 31/34, बिहार 34/50, उत्तर प्रदेश 54/66।
अनुमानतः पाकिस्तान के पक्ष में 90% मुसलमानों ने मतदान किया।
भारत के एकीकरण में सरदार पटेल की भूमिका
कैबिनेट मिशन के 16 मई 1946 के प्रस्ताव में 3 प्रकार के संविधानों की परिकल्पना थी।
- परिसंघ का संविधान
- समूहों के संविधान (तीन समूह थे)
- प्रांतों के संविधान (12 प्रांत थे)
564 देशी रियासतों से ब्रिटिश सर्वोपरिता समाप्त हो जाएगी। प्रत्येक राज्य अपने स्वाधीन होने की घोषणा कर सकेगा। एक प्रकार से भारत के सैकड़ों टुकड़े करने के लिए यह विधि अपनाई गई थी।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा का अध्यक्ष पद ग्रहण करते हुए कहा पहले ही दिन यह घोषित कर दिया था कि यह सभा प्रभुत्व संपन्न है। इसके प्राधिकार पर कोई बंधन नहीँ लगाए जा सकते।
किंतु नींव निर्माण का कार्य सरदार पटेल ने किया। उनके प्रयासो के परिणाम स्वरुप 216 रियासतें अपने अपने निकट के राज्य में विलीन हो गई। 61 को केंद्र शासित राज्य क्षेत्र बनाया गया। 275 रियासतों को आपस मेँ मिल कर संघ बनाए गए। 3 रियासतों का पृथक अस्तित्व बना रहा – हैदराबाद, मैसूर और जम्मू कश्मीर। सभी राज्योँ ने अंगीकार पत्र पर हस्ताक्षर किए।
देशी रियासतो जनसंख्या भारत कि जनसंख्या कि 28% थी और उनका राज्यक्षेत्र भारत के राज्य क्षेत्र का 40 प्रतिशत था। सरदार पटेल ने देश की सीमा तय की और देश को टुकड़ों में बिखर जाने से रोका। भारत के वर्तमान रुप के लिए प्रत्येक भारतीय सरदार पटेल के प्रति आभारी है।
हैदराबाद का भारत में विलय सरदार पटेल के प्रयासों के फलस्वरूप ही हो सका। हैदराबाद ने अंगीकार पत्र पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था और हैदराबाद को स्वतंत्र देश घोषित कर दिया था। वहां के शासक निजाम, उस्मान अली ने आयुध जमा करना प्रारंभ कर दिया था और समुद्र से संपर्क के लिए पुर्तगाल से गोवा को क्रय करने कि वार्ता शुरु कर दी थी। कुछ यूरोपीय देशोँ मेँ अपने व्यापार प्रतिनिधि नियुक्त कर दिए थे। कॉसिम रिजवी के नेतृत्व मेँ एक मुस्लमान स्वयंसेवक बल (जिसे रजा कार कहा जाता था) खड़ा किया। इनकी संख्या 2 लाख तक पहुंच गई। बमवर्षक विमान क्रय करने होने के लिए 20 करोड़ रुपए पाकिस्तान को अग्रिम दिए गए। सरदार पटेल के दृढ़ संकल्प और ठीक समय पर कि गई कार्रवाई के फलस्वरुप निजाम को 17 सितंबर 1947 को समर्पण करना पड़ा। हैदराबाद कि उस समय जनसंख्या 1.63 करोड़ थी और क्षेत्रफल 83,000 वर्ग मील था।
रियासतो का विलय निरंतर होता रहा। रियासतो के प्रतिनिधि, संविधान सभा मेँ पहली बार 28 अप्रैल 1947 को आए और प्रतिनिधि 23 नवम्बर 1949 को विन्ध्य प्रदेश से आए। सरदार संविधान सभा के भीतर और बाहर दोनों स्थानोँ पर देश को एक संवैधानिक इकाई बनाने के प्रयास मेँ लगे हुए थे।
संविधान की रचना में सर बी. एन. राव की भूमिका
भारत के वायसराय लॉर्ड वावेल ने 19 सितम्बर 1945 को संविधान सभा बनाने के लिए अपने आशय ही कि घोषणा कर दी थी। 22 अक्टूबर 1945 को लार्ड वावेल ने लार्ड पैथिक लारेंस (भारत सचिव) को लिखा कि सर बेनेगल नरसिंह राव को सुधार विभाग मेँ नियुक्त करना चाहते हैं। वावेल के कहने पर राव ने पंडित नेहरु के साथ 21 नवंबर 1945 को एक लंबी वार्ता की। राव और नेहरु एक ही समय मेँ कैम्ब्रिज के छात्र थे और नेहरु राव की विद्वता और उपलब्धियोँ से प्रभावित थे। 11 जुलाई 1946 को कांग्रेस अध्यक्ष ने जो संविधान सभा बनने वाली थी उसके विचारार्थ सामग्री एकत्र करने के लिए 7 व्यक्तियोँ कि एक समिति नियुक्त की। राव को 1946 मेँ संविधान सभा का सलाहकार नियुक्त किया गया। इसके पहले राव भारतीय सिविल सेवा के सदस्य थे। वे कोलकाता उच्च नन्यायालय के नयायाधीश के पद से सेवानिवृत्त हो चुके थे। तत्पश्चात वे जम्मू कश्मीर के प्रधानमंत्री रहे थे। यदि वे संविधान सलाहकार नहीँ बनाए जाते तो संभवतः उन्हें फेडरल न्यायालय का न्यायाधीश बनाया जाता। राव ने ब्रिटेन, कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, आयरलैंड आदि के दृष्टांत एकत्र किए। तिन जिल्दों में ये उदाहरण संविधान सभा के सदस्योँ को दिए गए। 9 मार्च 1947 को उन्होंने डॉ. राजेंद्र प्रसाद और पंडित नेहरु के लिए एक टिप्पणी तैयार की। 17 मार्च 1947 को उन्होंने प्रांतीय विधान सभा के सदस्योँ को एक प्रश्नावली भेजी। यही प्रश्नावली 5 मई 1947 को संविधान सभा के सदस्योँ को भेजी गई थी।
राव ने अक्टूबर 1947 मेँ संविधान का प्रारुप तैयार किया। इसी प्रारुप और प्रारुपण समिति ने विचार किया। पुनरीक्षित प्रारुप 21 फरवरी 1948 को परिचालित किया गया। यही प्रारूप संविधान सभा मेँ विचार विमर्श का आधार था। राव सभी समितियो कि बैठकोँ मेँ भाग लेते थे और सदस्योँ के लिए टिप्पणियाँ तैयार करते थे। संविधान सभा की अंतिम बैठक मेँ डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने राव कि बहुत प्रशंसा की।
उनकी सेवाओं की भारत के बाहर भी प्रशंसा की गई और बर्मा (म्यांमार) के संविधान का प्रारूप बनाने का श्रेय भी उन्हीं को दिया जाता है।
30 नवंबर, 1953 को श्री राव के निधन पर शोक प्रस्ताव में लोक सभा में भारत के सभी नेताओं ने गहरा शोक व्यक्त किया।
डॉ. अम्बेडकर की भूमिका
6 मई 1945 को डॉ. अम्बेडकर ने सार्वजानिक घोषणा की कि संविधान सभा की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि 1935 का अधिनियम पर्याप्त है। दूसरे दिन उन्होंने संविधान सभा के निर्माण के प्रस्ताव का विरोध किया। संविधान सभा को उन्होंने एक ज्ञापन दिया जिसमें कुछ नए विचार थे। जैसे एक व्यक्ति, एकमत का विरोध किया गया था।
जब संविधान सभा के लिए निर्वाचन हुए तो डा. अंबेडकर मुस्लिम लीग की सहायता से बंगाल से निर्वाचित हुए। मुंबई विधान सभा में उनके दल को एक भी स्थान नहीं मिला था। विभाजन के पश्चात् उनकी सदस्यता समाप्त हो गई। तब डा. राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल ने मुंबई के मुख्यमंत्री बी.जी. खेर को लिखा कि एम.आर. जयकर के त्यागपत्र से जो स्थान रिक्त हुआ है उस पर डा. अंबेडकर को निर्वाचित कराया जाए। इस प्रकार वे पुनः 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा के सदस्य बने।
डा. साहब के लिए यह आश्चर्य था कि उन्हें प्रारूपण समिति का सदस्य और बाद में उसका अध्यक्ष बनाया गया। इस समिति में मुख्यतः अधिवक्ता थे। समिति 29 अगस्त 1947 को बनी जबकि सभा दिसंबर 1946 से कार्य कर रही थी। इस समिति को बी.एन. राव द्वारा तैयार किए गए प्रारूप का पुनरीक्षण करने का कार्य सौंपा गया।
प्रारूपण समिति में अध्यक्ष डा. अंबेडकर के अतिरिक्त सदस्य थे अर्थात् अल्लादि कृष्णस्वामी , बी.एल. मित्तर सभी निर्दलीय, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, एन. गोपालस्वामी आयंगर, डी.पी. खेतान (सभी कांग्रेस) और सैयद मोहम्मद सआदुल्ला मुस्लिम लीग। बाद में बी.एल. मितर के स्थान पर एन. माधवराव नियुक्त हुए। 1918 में डी.पी. खेतान की मृत्यु के पश्चात् उनके स्थान पर टी.टी. कृष्णमाचारी आए। प्रारूपण समिति की 141 वैठकें हुई। |
इस समिति के कार्य के पुनर्विलोकन के लिए सभापति ने एक विशेष समिति नियुक्त की थी। बाबा साहेब या प्रारूपण समिति के सदस्यों ने कभी यह दावा नहीं किया कि संविधान उन्होंने बनाया है।
सआदुल्ला इस समिति के सदस्य और असम के पूर्व मुख्य मंत्री थे।
बाद के वर्षों में भी डा. अंबेडकर यह कहने पर कि आपने ही तो संविधान बनाया है, तुरंत निराकरण करते थे।
9 मार्च 1955 राज्यसभा में अनु 31 के संबंध में उन्होंने कहा कि मैं और प्रारूपण समिति इसके लिए उत्तरदायी नहीं हैं। यह हमारा प्रारूप नहीं है। संविधान सभा के अंतिम सत्र में पट्टाभि सीतारामय्या ने समिति के अध्यक्ष और प्रत्येक सदस्य का उल्लेख करके उनके योगदान का उल्लेख किया।
संविधान सभा ने प्रक्रिया संबंधी विषयों के लिए 10 और अधिष्ठायी विषयों के संबंध में 11 समितियां बनाई थीं। उप-समिति और तदर्थ समितियां भी अनेक थीं। संपूर्ण सभा की भी एक समिति थी। डा. अंबेडकर का योगदान विशाल और प्रशंसनीय था। उसकी प्रशंसा संविधान सभा के सभापति और अन्य सदस्यों ने की है।
हमारा संविधान, सम्मिलित प्रयास का परिणाम है। यह एक कठिन कार्य था जिसमें अनेक लोगों के श्रम की आवश्यकता थी। यह अनेक व्यक्तियों का संयुक्त प्रयास है और इसमें अनेक दृष्टिकोण प्रतिबिंबित होते हैं। डा. अंबेडकर प्रारूपण समिति के अध्यक्ष थे। वे संविधान सभा की निम्नलिखित समितियों के सदस्य थे, अर्थात् प्रकार्य समिति, राष्ट्रध्वज तदर्थ समिति, सलाहकार समिति, मूल अधिकार उपसमिति, अल्पसंख्यक उपसमिति, संघ संविधान समिति और उच्चतम न्यायालय तदर्थ समिति।
भारत के लिए संविधान सभा
20 नवंबर 1946 को वाइसराय ने सदस्यों को संविधान सभा के पहले अधिवेधन में उपस्थित होने का निमंत्रण भेजा। अविभाजित भारत के लिए जो संविधान सभा गठित हुई थी और जो पहली बार दिसंबर 1946 को समवेत हुई थी उसका अधिवेशन 14 अगस्त 1947 को बुलाया गया और वही विभाजित भारत के लिए, जिसे ‘डोमिनियन आफ इंडिया’ नाम दिया गया था प्रभुत्व-संपन्न विधान सभा बन गई। बंगाल, पंजाब, सिंध, पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत आदि का प्रतिनिधित्व करने वाले सदस्य संविधान सभा के सदस्य नहीं रहे। इस प्रक्रिया में बाबा साहेब अंबेडकर का स्थान भी रिक्त हो गया क्योंकि वे बंगाल से निर्वाचित हुए थे। बाद में उन्हें मुंबई के कांग्रेस विधायक दल ने चुनकर भेजा।
मुस्लिम लीग, अंतरिम सरकार में सम्मिलित हो गई थी किंतु उसने संविधान सभा में अपने प्रतिनिधि नहीं भेजे थे। यद्यपि यह कैबिनेट योजना का अविभाज्य अंग था। 9 दिसंबर 1946 को पडित नेहरू ने उद्देश्य संकल्प प्रस्तावित किया था। डा. जयकर और डा. अंबेडकर की सलाह पर सभा सप्ताह तक इस बात की प्रतीक्षा में रही कि मुस्लिम लीग और देशी रियासतों के प्रतिनिधि सभा में सम्मिलित हो जाएंगे। इसलिए उद्देश्य संकल्प 22 जनवरी 1947 को अंगीकार किया गया।
सभा के सांविधानिक सलाहकार सर बी.एन. राव ने अक्तूबर 1947 में संविधान का पहला प्रारूप तैयार किया था। इसमें 243 अनुच्छेद और 13 अनुसूचियां थीं। 29 अगस्त 1947 को संविधान सभा ने एक प्रारूप समिति का निर्वाचन किया। डा. भीमराव अंबेडकर समिति के सभापति निर्वाचित हुए प्रारूप समिति द्वारा निर्मित संविधान 21 फरवरी 1948 को परिचालित किया गया। यह संविधान सभा के भीतर और बाहर विचार विमर्श का आधार बना। इसमें 315 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां थीं। इसे 4 नवम्बर 1947 को बाबा साहेब अंबेडकर ने पुरःस्थापित किया। प्रारूप संविधान के लिए कुल 7,635 संशोधन प्रस्तावित किए गए इनमें से 2,478 संशोधन सभा में वास्तव में प्रस्तुत किए गए।
संविधान सभा के लिए निर्वाचन
संविधान सभा का निर्वाचन प्रांतीय विधान सभा के सदस्यों द्वारा अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली से हुआ था। यह कैबिनेट योजना द्वारा बनाई गई स्कीम के अधीन था। इस स्कीम के मुख्य लक्षण इस प्रकार थे-
- प्रत्येक प्रांत और देशी रियासत (या जहां छोटी रियासतें थीं वहां उनका समूह) को अपनी जनसंख्या के अनुपात में स्थानों का आबंटन किया गया। मोटे तौर पर 10 लाख की जनसंख्या पर 1 स्थान आबंटित हुआ। परिणामस्वरूप प्रांतों को 292 सदस्य निर्वाचित करने थे। देशी रियासतों को कम से कम 93 स्थान मिलने थे।
- प्रत्येक प्रांत में स्थानों का वितरण तीन समुदायों के बीच उनकी जनसंख्या के अनुपात में किया गया। ये तीन समुदाय थे- मुस्लिम, सिक्ख और साधारण।
- प्रांतीय विधान सभाओं में प्रत्येक समुदाय के प्रतिनिधियों ने आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार एकल अंतरणीय मत से सदस्यों का निर्वाचन किया।
- देशी रियासतों में चयन किस प्रकार हो यह परामर्श से तय होना था। वास्तव में अधिकांश रियासतों में शासक द्वारा सदस्य नामनिर्दिष्ट किए गए।
3 जून 1947 की योजना के अधीन पाकिस्तान के लिए एक पृथक् विधान सभा बनी। बंगाल, पंजाब, सिंध, पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, बलूचिस्तान और असम के सिलहट जिले के सदस्य भारत की विधान सभा के सदस्य नहीं रहे।
पश्चिम बंगाल और पूर्वी पंजाब में पुनः निर्वाचन हुए।
संविधान का अधिनियमित किया जाना
जब विभाजन के पश्चात् 1 अक्तूबर 1947 को संविधान सभा बुलाई गई तब उसमें कुल 299 सदस्य थे जिनमें से 70 रियासतों के प्रतिनिधि थे।
संविधान सभा की इस बात के लिए प्रशंसा की जाती है कि उसके सभी विनिश्चय ध्वनि मत से पारित हुए, कोई विभाजन नहीं हुआ। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि सभी विनिश्चय एकमत या पूर्ण सहमति से पारित हुए। प्रारूप संविधान 4 नवंबर 1947 को पुरःस्थापित हुआ (प्रथम वाचन)।
दूसरा वाचन या जिसे खंडशः विचारण कहते हैं 15 नवम्बर 1948 को प्रारंभ हुआ और 17 अक्तूबर 1949 को समाप्त हुआ। इसमें अनेक अधिवेशन हुए। 8 प्रमुख समितियां बनाई गई जिन्हें विशिष्ट कार्य सौंपे गए इसके अतिरिक्त कुछ गौण समितियां भी बनाई गई थीं। प्रारूप समिति का काम, प्रारूप संविधान के बारे में विभिन्न समितियों के विचार और प्रतिवेदन को प्रभावी करना था। इस प्रकार प्रारूप समिति की स्वतंत्रता सीमित थी।
तृतीय वाचन 17 नवम्बर 1949 को प्रारंभ हुआ और 26 नवम्बर 1949 को समाप्त हुआ। इसी तारीख को यह घोषणा हुई कि संविधान पारित हो गया। 26 नवम्बर 1949 को प्रभावी हो गए इसी तारीख का उद्देशिका में उस तारीख के रूप में उल्लेख किया गया है जिस तारीख को भारत के लोगों ने इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया। संविधान के शेष उपबंध 26 जनवरी 1950 को प्रभावी हुए। इस तारीख को संविधान के प्रारंभ की तारीख कहा गया है।
1949 में अंगीकृत संविधान में 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां थीं।
24 जनवरी 1950 को संविधान पर सदस्यों ने हस्ताक्षर किए। उसी दिन संविधान सभा की अंतिम बैठक हुई।
समिति का नाम | अध्यक्ष |
प्रक्रिया विषयक नियमों संबंधी समिति | राजेन्द्र प्रसाद |
संचालन समिति | राजेन्द्र प्रसाद |
वित्त एवं स्टाफ समिति | राजेन्द्र प्रसाद |
प्रत्यय-पत्र संबंधी समिति | अलादि कृष्णास्वामी अय्यर |
आवास समिति | बी. पट्टाभि सीतारमैय्या |
कार्य संचालन संबंधी समिति | के.एम. मुन्शी |
राष्ट्रीय ध्वज संबंधी तदर्थ समिति | राजेन्द्र प्रसाद |
संविधान सभा के कार्यकरण संबंधी समिति | जी.वी. मावलंकर |
राज्यों संबंधी समिति | जवाहरलाल नेहरू |
मौलिक अधिकार, अल्पसंख्यकों एवं जनजातीय और अपवर्जित क्षेत्रों संबंधी सलाहकारी समिति | वल्लभभाई पटेल |
मौलिक अधिकारों संबंधी उप-समिति | जे.बी. कृपलानी |
पूर्वोत्तर सीमांत जनजातीय क्षेत्रों और आसाम के अपवर्जित और आंशिक रूप से अपवर्जित क्षेत्रों संबंधी उपसमिति | गोपीनाथ बारदोलोई |
अपवर्जित और आंशिक रूप से अपवर्जित क्षेत्रों (असम के क्षेत्रों को छोड़कर) संबंधी उपसमिति | ए.वी. ठक्कर |
संघीय शक्तियों संबंधी समिति | जवाहरलाल नेहरु |
संघीय संविधान समिति | जवाहरलाल नेहरु |
प्रारूप समिति | बी.आर. अम्बेडकर |
संविधान सभा के सदस्यों की सूची
(नवंबर, 1949 की स्थिति के अनुसार)
मद्रास | बम्बई | पश्चिम बंगाल | संयुक्त प्रांत |
पूर्वी पंजाब | बिहार | मध्य प्रांत और बरार | असम |
उड़ीसा | दिल्ली | अजमेर – मारवाड़ | कूर्ग |
मैसूर | जम्मू और कश्मीर | त्रावणकोर – कोचीन | मध्य भारत |
सौराष्ट्र | राजस्थान | पटियाला एवं पूर्वी पंजाब रियासत संघ | बम्बई की रियासतें |
उड़ीसा की रियासतें | मध्य प्रांत की रियासतें | संयुक्त प्रांत की रियासतें | मद्रास की रियासतें |
विंध्य प्रदेश | कूचबिहार | त्रिपुरा और मणिपुर | भोपाल |
कच्छ | हिमाचल प्रदेश |
संविधान सभा के सत्र
पहला सत्र | : | 9-23 दिसंबर, 1946 |
दूसरा सत्र | : | 20-25 जनवरी, 1947 |
तीसरा सत्र | : | 28 अप्रैल – 2 मई, 1947 |
चौथा सत्र | : | 14-31 जुलाई, 1947 |
पाँचवां सत्र | : | 14-30 अगस्त, 1947 |
छठा सत्र | : | 27 जनवरी, 1948 |
सातवाँ सत्र | : | 4 नवंबर, 1948 – 8 जनवरी, 1949 |
आठवाँ सत्र | : | 16 मई-16 जून, 1949 |
नौवां सत्र | : | 30 जुलाई-18 सितंबर, 1949 |
दसवां सत्र | : | 6-17 अक्टूबर, 1949 |
ग्यारहवां सत्र | : | 14-26 नवंबर, 1949 |
[सभा 24 जनवरी, 1950 को पुन: समवेत हुई जब सदस्यों ने भारत के संविधान पर अपने हस्ताक्षर संलग्न किए]
1 दिसंबर, 1947 की स्थिति के अनुसार भारत की संविधान सभा के सदस्यों की राज्य वार संख्या प्रांत – 229
क्रम सं. |
राज्य | सदस्यों की संख्या |
1. | मद्रास | 49 |
2. | बम्बई | 21 |
3. | पश्चिम बंगाल | 19 |
4. | संयुक्त प्रांत | 55 |
5. | पूर्वी पंजाब | 12 |
6. | बिहार | 36 |
7. | मध्य प्रांत एवं बरार | 17 |
8. | असम | 8 |
9. | उड़ीसा | 9 |
10. | दिल्ली | 1 |
11. | अजमेर-मारवाड़ | 1 |
12. | कूर्ग | 1 |
भारतीय रियासतें-70 | ||
1. | अलवर | 1 |
2. | बड़ौदा | 3 |
3. | भोपाल | 1 |
4. | बीकानेर | 1 |
5. | कोचीन | 1 |
6. | ग्वालियर | 4 |
7. | इंदौर | 1 |
8. | जयपुर | 3 |
9. | जोधपुर | 2 |
10. | कोल्हापुर | 1 |
11. | कोटा | 1 |
12. | मयूरभंज | 1 |
13. | मैसूर | 7 |
14. | पटियाला | 2 |
15. | रीवा | 2 |
16. | त्रावणकोर | 6 |
17. | उदयपुर | 2 |
18. | सिक्किम और कूचबिहार समूह | 1 |
19. | त्रिपुरा, मणिपुर और खासी रियासत समूह | 1 |
20. | यू.पी. रियासत समूह | 1 |
21. | पूर्वी राजपुताना/रियासत समूह | 3 |
22. | मध्य प्रांत रियासत समूह (बुंदेलखंड और मालवा समेत) | 3 |
23. | पश्चिमी भारत रियासत समूह | 4 |
24. | गुजरात रियासत समूह | 2 |
25. | दक्कन एवं मद्रास रियासत समूह | 2 |
26. | पंजाब रियासत समूह I | 3 |
27. | पूर्वी रियासत समूह I | 4 |
28. | पूर्वी रियासत समूह II | 3 |
29. | शेष रियासत समूह | 4 |
कुल | 299 |