परमाणु उर्जा भौतिकी Atomic Energy Physics
सामान्य परिचय
परमाणुओं के नाभिकों में उर्जा का बहुत बड़ा खजाना छुपा हुआ है, जिसे कई तरह से काम में लाया जा सकता है। नाभिकीय ऊर्जा का प्रयोग अंतरिक्ष क्षेत्र में हो रहा है, जहां रेडियो-एक्टिव पदार्थ के स्वाभाविक क्षय से उत्पन्न ताप ऊर्जा को उपयोग में लाते हैं। विद्युत का उत्पादन भी नाभिकीय ऊर्जा के जरिए हो रहा है, जो विखंडन प्रक्रिया पर आधारित है। भविष्य की ऊर्जा आवश्यकताओं को देखते हुए ऐसे नाभिकीय रिएक्टरों का विकास हो रहा है जो सुरक्षा एवं दक्षता की दृष्टि से काफी अच्छे हों। इन रिएक्टरों से हाइड्रोजन भी उत्पन्न की जाएगी, जो भविष्य में ऊर्जा क्षेत्र में काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी। विश्व में पर्याप्त मात्रा में नाभिकीय ऊर्जा का स्रोत यूरेनियम-238 (प्राकृतिक यूरेनियम में 99.3 प्रतिशत) एवं थोरियम -232 के रूप में उपलब्ध है, जो न्यूट्रॉन द्वारा अवशोषित होकर नाभिकीय ईंधन में परिवर्तित हो जाते हैं। इसके अलावा नाभिकीय ऊर्जा का असीमित भंडार ड्यूटीरियम के रूप में समुद्र के पानी में उपलब्ध है, जो संलयन (फ्यूजन) प्रक्रिया से ऊर्जा पैदा करता है। इस तकनीक के विकास पर अनुसंधान चल रहे हैं। इसके अतिरिक्त थोरियम से विद्युत ऊर्जा का उत्पादन त्वरित्र द्वारा प्रचलित उपक्रांतिक रिएक्टर में करने के लिए विश्व की अनेक प्रयोगशालाओं में इस तकनीक पर भी विकास कार्य हो रहा है। संभवत: अगले पचास वर्षों में इन तकनीकों के माध्यम से भी परमाणु ऊर्जा का उपयोग विद्युत उत्पादन के लिए शुरू हो जाएगा तब आसानी से उपलब्ध, प्रदूषणरहित, सर्वव्यापक एवं असीमित ऊर्जा की प्राप्ति के द्वार सदा के लिए खुल जाएंगे।
नाभिकीय उर्जा उत्पादन अभिक्रियाएं
किसी भी परमाणु का द्रव्यमान उसमें निहित प्रोटॉन, न्यूट्रॉन एवं इलेक्ट्रॉनों के संयुक्त द्रव्यमान से कम होता है। द्रव्यमान के इस अंतर को द्रव्यमान क्षति (मास डिफैक्ट) कहते हैं। परमाणु को स्थिर (स्टेबल) अवस्था में रखने के लिए कुछ ऊर्जा (E) की जरूरत पड़ती है जिसे बंधन ऊर्जा कहते हैं। यह बंधन ऊर्जा द्रव्यमान क्षति (m) के तुल्य ऊर्जा के बराबर होती है, जिसे आइंस्टाइन के प्रसिद्ध द्रव्यमान-ऊर्जा सह-संबंध E=mc2 द्वारा ज्ञात किया जा सकता है। नाभिक की बंधन ऊर्जा, उसकी द्रव्यमान संख्या (मास नंबर) के साथ बढ़ती है। ऐसा देखा गया है कि शुरू में नाभिक की द्रव्यमान संख्या के बढ़ने से औसत बंधन ऊर्जा प्रति न्यूक्लियोन तेजी से बढ़ती है एवं जब द्रव्यमान संख्या 60 के करीब होती है, तब बंधन ऊर्जा प्रति न्यूक्लियोन का मान सबसे अधिक 8.5 मिलियन इलेक्ट्रॉन वोल्ट (meV) होता है। इसके बाद द्रव्यमान संख्या की वृद्धि के साथ बंधन ऊर्जा प्रति न्यूक्लियोन का मान (धीरे-धीरे) घटने लगता है। अत: द्रव्यमान संख्या 60 के निकट वाले परमाणु सबसे ज्यादा स्थिर अवस्था में होते हैं एवं वे परमाणु, जिनकी द्रव्यमान संख्या बहुत कम अथवा बहुत ज्यादा होती है, सबसे कम स्थिर अवस्था में होते हैं। नाभिकों के इस स्वभाव से दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकलते हैं- एक, भारी द्रव्यमान संख्या वाले नाभिक विभक्त होकर दो लगभग समान द्रव्यमान वाले स्थिर नाभिकों में बदल जाते हैं, जिसे विखंडन (फिजन) प्रक्रिया कहते हैं एवं दूसरे, जिसमें दो हलके नाभिक में बदल जाते हैं, जिसे संलयन (फ्यूजन) प्रक्रिया कहते हैं। इन दोनों प्रक्रियाओं का परिणाम स्थिर नाभिक का बनना एवं साथ ही प्रचुर मात्रा में ऊर्जा का उत्पादन है।
सन् 1920 के अंत में ही इस तथ्य का ज्ञान हो गया था कि इन दो तरीकों से परमाणु ऊर्जा का उपयोग विद्युत उत्पादन के लिए किया जा सकता है परंतु संलयन प्रक्रिया द्वारा नियंत्रित ढंग से विद्युत उत्पादन अभी भी एक चुनौती बनी हुई है। इसके अलावा कुछ ऐसे समस्थानिक (आइसोटोप) हैं, जिनके स्वाभाविक क्षय से उत्पन्न ताप ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है। इनका उपयोग लंबी अवधि के अंतरिक्ष कार्यक्रम में किया जाता है।
विखंडन प्रक्रिया
विखंडन प्रक्रिया ही वर्तमान रिएक्टरों का मूल ऊर्जा स्रोत है। जब कोई विशेष नाभिक जिसका द्रव्यमान ज्यादा होता है, एक न्यूट्रॉन को ग्रहण करता है, जब उस नाभिक में एक हलचल-सी पैदा हो जाती है तब उस नाभिक में एक हलचल-सी पैदा हो जाती है। क्योंकि न्यक्लियोनों के आकर्षण बल एवं प्रोटोनों के विकर्षण बल में जो संतुलन बना था, उसमें असंतुलन आ जाता है। इसके फलस्वरूप यह नाभिक दो या दो से अधिक कम द्रव्यमान वाले नाभिकों में विभाजित हो जाता है। इन विभाजित हुए परमाणुओं को विखंडन उत्पाद कहते हैं। ऐसा तभी होता है जब न्यूट्रॉन को ग्रहण करके जो यौगिक नाभिक बनता है, उसका द्रव्यमान विभाजित होने वाले उत्पादों के सम्मिलित द्रव्यमान से अधिक होता है। विखंडन प्रक्रिया में हमेशा द्रव्यमान में थोड़ी-सी कमी आती है जो ऊर्जा के रूप में प्रकट होती है।
तीन ऐसे तत्व हैं, जो लगभग स्थिर अवस्था में रहते हैं, जिनमें तापीय एवं द्रुत न्यूट्रॉन के द्वारा विभाजन हो सकता है। ये तीन तत्व हैं:
– यूरेनियम- 233
– यूरेनियम- 235 एवं
– प्लूटोनियम- 239
इनमें केवल यूरेनियम-235 ही प्रकृति में उपलब्ध है जिसकी मात्रा प्राकृतिक यूरेनियम में 0.7 प्रतिशत होती है। इन तीनों समस्थानिकों को विखंड्य पदार्थ कहते हैं। 235U92 का एक परमाणु एक न्यूट्रॉन का अवशोषण कर विखंडन प्रक्रिया द्वारा विभिन्न प्रकार के परमाणु पैदा करता है। उदाहरण के तौर पर ऐसी ही प्रक्रिया में एक लेंथानम (139La57) परमाणु, एक मॉलिब्डेनम (95Mo42) परमाणु एवं दो न्यूट्रॉन पैदा होता है। इसी के साथ 208.2 मिलियन इलेक्ट्रॉन वोल्ट ऊर्जा का उत्पादन होता है:
235M92 + 1n0 → 139La57 + 95Mo42 + 2x 1no + 208.2MeV
अर्थात् यूरेनियम के एक परमाणु के विखंडन से 200 मिलियन इलेक्ट्रॉन वोल्ट से भी अधिक ऊर्जा का उत्पादन होता है। इसकी तुलना में रासायनिक प्रक्रिया में जब कार्बन के एक परमाणु का ऑक्सीजन की उपस्थिति में दहन होता है तब सिर्फ 4 इलेक्ट्रॉन वोल्ट ऊर्जा ही उत्पन्न होती है। दूसरे शब्दों में, एक किलोग्राम यूरेनियम -235 के विखंडन से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा लगभग 2700 टन (27 लाख किलोग्राम) कोयला के दहन से पैदा होने वाली ऊर्जा के बराबर होती है।
विखंडन प्रक्रिया से दो या तीन न्यूट्रॉन निकलते हैं जबकि इस प्रक्रिया में सिर्फ एक ही न्यूट्रॉन की आवश्यकता होती है। इससे ऐसा लगता है कि किसी भी विखंड्य पदार्थ में यदि एक बार विखंडन प्रक्रिया शुरू की जा सके तब अपने आप विखंडन श्रृंखला चलती रहेगी जिसे क्रांतिकता कहते हैं। विखंड्य पदार्थ के उस द्रव्यमान को, जिससे स्वचालित विखंडन श्रृंखला प्रक्रिया की शुरूआत होती है, क्रांतिक द्रव्यमान कहते हैं।
प्रकृति में दो ऐसे तत्व उपलब्ध हैं, जिनका विखंडन केवल द्रुत न्यूट्रॉनों (ऊर्जा 1 मिलियन इलेक्ट्रॉन वोल्ट से अधिक) के द्वारा संभव है:
– थोरियम-232 एवं
– यूरेनियम-238
प्राकृतिक यूरेनियम में यूरनियम-238 की मात्रा 99.3 प्रतिशत होती है। इन दो तत्वों में एक और गुण है- ये मद् ऊर्जा वाले न्यूट्रॉन को ग्रहण करके क्रमश: यूरेनियम-233 एवं प्लूटोनियम –239 विखंड्य तत्वों में परिवर्तित हो जाते हैं:
संलयन प्रक्रिया
संलयन प्रक्रिया में दो हल्के नाभिक एक साथ जुड़कर एक भारी नाभिक में बदल जाते हैं एवं काफी मात्रा में ऊर्जा पैदा करते हैं। लेकिन ऐसा तभी संभव है, जब दो नाभिकों के बीच की दूरी 1.0×10-15 मीटर से भी कम हो। चूंकि धनात्मक नाभिकों के बीच विकर्षण बल होता है, संलयन प्रक्रिया होने के लिए यह जरूरी है कि इन नाभिकों की गतिज ऊर्जा काफी अधिक हो, जिससे वे एक दूसरे के करीब आ सकें। केवल उच्च तापमान (कई करोड़ डिग्री सेल्सियस) पर ही यह संभव है।
सूर्य एवं अन्य तारों में, जिनका भीतरी तापमान 150 लाख डिग्री सेल्सियस के करीब होता है, ऊर्जा का उत्पादन हाइड्रोजन संलयन प्रक्रिया द्वारा कई करोड़ वर्षों से हो रहा है। इस अभिक्रिया में 25 मिलियन इलेक्ट्रॉन वोल्ट ऊर्जा पैदा होती है। प्रयोगशालाओं में हाइड्रोजन के दो आइसोटोप ड्यूटीरियम (D) और ट्रीटियम (T) के संलयन से ऊर्जा पैदा करने की कोशिश की जा रही है जिसमें काफी अधिक तापमान (10 करोड़ डिग्री सेल्सियस) की आवश्यकता होती है। इस प्रक्रिया में हीलियम-4 एवं न्यूट्रॉन बनता है तथा 17.6 मिलियन इलेक्ट्रॉन वोल्ट ऊर्जा पैदा होती है, जिसमे न्यूट्रॉन की ऊर्जा 14.1 मिलियन इलेक्ट्रॉन वोल्ट होती है। यह न्यूट्रॉन संलयन रिएक्टर के प्रचालन के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं।
वर्तमान परमाणु रिएक्टर
परमाणु रिएक्टरों का मुख्य ध्येय बिजली का उत्पादन करना है। वाणिज्यिक परमाणु रिएक्टरों में विखंडन प्रक्रिया से उत्पन्न ऊष्मा का उपयोग करके वाष्प जनित्र में वाष्प बनती है। इसके बाद इस वाष्प से टर्बाइन को चलाकर इसे यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है। टर्बाइन से निर्सजित वाष्प संघनित्र में जाकर पुनः जल में परिवर्तित हो जाता है, जिसे पंप की सहायता से वाष्प जनित्र में भरा जाता है। इस प्रकार विखंडन प्रक्रिया से उत्पन्न ऊर्जा अंततः विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है।
विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करने वाले रिएक्टरों में दाबित जल, क्वथन जल, दाबित भारी जल, गैस शीतलित एवं द्रुत रिएक्टरों का इस्तेमाल किया जाता है। दाबित जल एवं क्वथन जल रिएक्टरों में ईंधन, आशिक समृद्ध यूरेनियम ऑक्साइड (2-2.5% यूरेनियम -235) होता है, जबकि दाबित भारी जल रिएक्टरों में ईंधन, प्राकृतिक यूरेनियम होता है तथा विमंदक एवं शीतलक भारी जल होता है। विमंदक का काम विखंडन प्रक्रिया से निकलने वाले द्रुत न्यूट्रॉनों की ऊर्जा को कम करना होता है, जबकि शीतलक विखंडन प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न ताप ऊर्जा (गर्मी) को रिएक्टर क्रोड के बाहर लाता है। हल्का जल या साधारण जल, भारी जल (साधारण जल में 0.015 प्रतिशत भारी जल होता है), ग्रेफाइट, बेरीलियम आदि विमंदक के रूप में व्यवहार किया जाता है। रिएक्टर में इस्तेमाल होने वाले शीतलक हैं: हल्का जल, भारी जल, तरल सोडियम, कार्बन डाइऑक्साइड गैस, हीलियम गैस आदि।
सबसे पहले दाबित भारी जल रिएक्टरों का निर्माण कनाडा में शुरू हुआ था एवं इन्हें कैन्डू के नाम से जाना जाता है। भारत में ज्यादातर रिएक्टर इसी प्रकार के हैं। इसकी विशेषता यह है कि इसमें प्लूटोनियम का उत्पादन ज्यादा मात्रा में होता है। प्लूटोनियम को फॉस्ट ब्रीडर रिएक्टर में ईधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
फॉस्ट ब्रीडर रिएक्टर (संक्षेप में एफबीआर) में विखंडन प्रक्रिया द्रुत न्यूट्रॉनों द्वारा होती है एवं इस रिएक्टर में ऊर्जा उत्पादन के साथ-साथ उर्वर पदार्थ का विखंड्य पदार्थ में परिवर्तन भी होता है। इस रिएक्टर में जितने विखंड्य पदार्थ का विखंडन होता है, उससे अधिक विखंड्य पदार्थ का उत्पादन होता है। यही वजह है, इस प्रकार के रिएक्टर को प्रजनक रिएक्टर कहते हैं। विखंड्य पदार्थ (जैसे U-233, U-235 एवं Pu-239) के साथ ईंधन में उर्वर पदार्थ (जैसे Th-232 या U-238) भी होता है। द्रुत न्यूट्रॉन द्वारा विखंडन प्रक्रिया से निकलने वाले न्यूट्रॉनों का एक अंश विखंडन प्रक्रिया को जारी रखता है जबकि बाकी अंश Th-232 का U-233 में एवं U-238, को Pu-239 में परिवर्तित करने के काम आता है। द्रुत रिएक्टरों में ईंधन या तो सृमद्ध यूरेनियम ऑक्साइड अथवा यूरेनियम-प्लूटोनियम ऑक्साइड का मिश्रण होता है। समृद्ध की मात्रा 20 प्रतिशत से 25 प्रतिशत होती है। यूरेनियम कार्बाइड अथवा यूरेनियम-प्लूटोनियम कार्बाइड का मिश्रण भी ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
रिएक्टर में उत्पन्न ऊर्जा का नियंत्रण (जैसे ऊर्जा उत्पादन की शुरूआत, उसे जारी रखना, उसे बंद करना इत्यादि) क्रोड के न्यूट्रॉन घनत्व में परिवर्तन लाकर किया जाता है। ऐसा करने के लिए क्रोड में नियंत्रण छड़ें होती हैं। नियंत्रण छड़ न्यूट्रॉन को ग्रहण करके क्रोड में इनकी संख्या कम कर देती है। इस प्रकार चूंकि नियंत्रण छड़ में प्रयुक्त होने वाला पदार्थ न्यूट्रॉन के लिए जहर जैसा कार्य करता है, ऐसे पदार्थ को न्यूट्रॉन नाशक भी कहते हैं। बोरॉन, कैडमियम, गैडोलिनियम इत्यादि न्यूट्रॉन नाशक के रूप में प्रयुक्त होते हैं।
रिएक्टर ईंधन में विखंडन प्रक्रिया से अनेक विकिरण सक्रिय पदार्थ उत्पन्न होते हैं। रिएक्टर प्रणाली में कोई दुर्घटना होने पर ये सारे विकिरण पदार्थ रिएक्टर कक्ष के बाहर चारों ओर फैल सकते हैं, जिससे जन समूह एवं जीव जगत को व्यापक क्षति होने की आशंका पैदा हो सकती है। इसलिए परमाणु विद्युत केंद्र के इंजीनियरी-डिजाइन में काफी सख्त सुरक्षा व्यवस्था का प्रावधान रखा जाता है। विकिरण को न देखा जा सकता है और न ही अनुभव किया जा सकता है। परंतु इसका स्वास्थ्य पर हानिकारक असर होता है। अत: विकिरण क्षेत्र में कार्यरत व्यक्तियों की निगरानी या मॉनीटरिंग करना अत्यंत आवश्यक है।
भविष्य के प्रगत रिएक्टर
ऊर्जा की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए भविष्य में नाभिकीय ऊर्जा काफी महत्वपूर्ण होगी। इस बात को ध्यान में रख कर नए प्रकार के रिएक्टरों का विकास किया जा रहा है जो वर्तमान रिएक्टरों की तुलना में ज्यादा स्वीकार योग्य होंगे। इस दिशा में स्विट्जरलैंड, अजेंटीना, ब्राजील, दक्षिण कोरिया एवं दक्षिण अफ्रीका मिल कर ऐसे ही रिएक्टरों की रूपरेखा बनाने में जुटे हैं। इन्हें चौथी पीढ़ी के रिएक्टर (जेनरेशॉन फोर रिएक्टर) के नाम से जाना जाता है। इन रिएक्टरों की विशेषता यह है कि ये ज्यादा तापमान पर काम करेंगे जिससे इनकी दक्षता अधिक होगी एवं इनका उपयोग कई और कामों के लिए भी किया जा सकेगा।
इनमें से कुछ रिएक्टरों की कार्य प्रणाली छोटे पैमाने पर 1960 और 1970 के दशकों में ही सिद्ध की जा चुकी है। अब इनका विकास ऊर्जा उत्पादक रिएक्टरों के तौर पर किया जा रहा है, जो संभवत: अगले 10-15 वर्षों में हो जाएगा।
भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र
भारत में भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र में एक ऐसे ही रिएक्टर (लेड शीतलित द्रुत रिएक्टर) के विकास पर काम चल रहा है, जिसे सुसंबद्ध उच्च ताप रिएक्टर (सीएचटीआर) का नाम दिया गया है। इसमें ईधन यूरेनियम-233 कार्बाइड तथा थोरियम कार्बाइड का मिश्रण होगा, जिसका भार सिर्फ 8 किलोग्राम के करीब होगा। यह ईधन 10-15 वर्ष तक 100 किलोवाट तापीय ऊर्जा (करीब 40 किलोवाट-बिजली) उत्पन्न करने में सक्षम हैं अत: इस दौरान ईंधन बदलने की जरूरत नहीं होगी एवं परावर्तक के रूप में बेरीलियम ऑक्साइड तथा ग्रेफाइट का इस्तेमाल किया जाएगा उच्च ताप (1000 डिग्री सेल्सियस) प्राप्त करने के लिए शीतलक के रूप में तरल पदार्थ लेड-बिस्मथ मिश्र धातु का इस्तेमाल होगा। इस बेलनाकार रिएक्टर की ऊंचाई 1.4 मीटर तथा व्यास 1.3 मीटर के करीब होगा, जिसका वजन काफी कम होने से जहां इसकी जरूरत होगी, इसे आसानी से ले जाया जा सकेगा। इसमें ऊष्मा को सीधे विद्युत में परिवर्तन करने की व्यवस्था होगी।
थोरियम इस्तेमाल करने के उद्देश्य से भाभा परमाणु अनुसंधान कद्र में एक और रिएक्टर का विकास कार्य चल रहा है। इसमें थोरियम विखंड्य पदार्थ यूरेनियम-233 में परिवर्तित होकर रिएक्टर में विखंडन प्रक्रिया से ऊर्जा उत्पन्न कर सकेगा। इसे प्रगत भारी-पानी रिएक्टर (एएचडब्ल्यूआर) का नाम दिया गया है, जिसमें उन्नत सुरक्षा व्यवस्था का भी समावेश है। इस रिएक्टर की संकल्पना एवं डिजाइन पूरी तरह से भारत में विकसित हुआ है। रिएक्टर भौतिकी अभिकल्पना करते समय इस बात को ध्यान में रखा गया है कि उत्पादित ऊर्जा का भारी अंश ईंधन में उपस्थित थोरियम, जो यूरेनियम-233 में परिवर्तित होता है, की विखंडन प्रक्रिया द्वारा प्राप्त हो।
विद्युत उत्पादन के लिए लघु नाभिकीय रिएक्टर
विद्युत एवं ऊर्जा उत्पादन के लिए छोटे आकार के तथा सरल ढांचे वाले नाभिकीय रिएक्टरों को फिर से बहाल करने पर विचार किया जा रहा है। इस प्रकार के रिएक्टर कम लागत पर बनाए जा सकेंगे जिन्हें दूरदराज के इलाकों में भी आसानी से बनाया जा सकेगा। इन्हें ग्रिड से जोड़ने की भी आवश्यकता नहीं है। 1950 के दशक में जब विद्युत उत्पादक नाभिकीय रिएक्टरों का निर्माण शुरू हुआ, इनकी क्षमता 60 मेगावाट के करीब हुआ करती थी जो अब बढ़कर 1300 मेगावाट से भी ज्यादा हो गई है, फिर भी कम क्षमता वाले (190 मेगावाट तक) रिएक्टरों का निर्माण नौसैनिक उपयोग एवं न्यूट्रॉन स्रोत के लिए अब भी हो रहा है। ऐसे छोटे आकार के रिएक्टरों का विकास किया जा रहा है, जिनसे विद्युत उत्पादन किया जा सकेगा एवं जरूरत पड़ने पर कई छोटे रिएक्टरों को मिला कर एक बड़ा रिएक्टर भी बनाया जा सकेगा। ज्यादातर ऐसे रिएक्टर गैस शीतलित होंगे।
त्वरित्र प्रचालित उपक्रातिक रिएक्टर
यद्यपि वर्तमान रिएक्टरों का प्रचलन काफी निरापद हैं, परंतु इनसे निकलने वाले अपशिष्टों का निपटान एक समस्या बनती जा रही है क्योंकि इसमें कुछ ऐसे विषैले एक्टीनाइड एवं विखंडन उत्पाद मौजूद होते हैं, जिनकी अर्द्ध-आयु (हाफ लाइफ) कई हजार वर्षों की होती है। जब तक इन्हें उतने वर्षों तक सुरक्षित रूप में संग्रह करने की तकनीक का पूर्ण विकास न हो जाए, दूर भविष्य के लिए ये खतरनाक हो सकते हैं। यही कारण है कि जनता में नाभिकीय ऊर्जा के प्रति एक रोष-सा पैदा हो रहा है। नाभिकीय ऊर्जा की स्वीकृति के लिए ऐसी तकनीकों का विकास करना होगा जो निम्न मानदंडों में खरा उतरता हो:
- बहुत ही सस्ता
- बम बनाने लायक ईंधन के प्रसार का प्रतिरोध
- प्रचालन में वर्धित सुरक्षा
- कम-से-कम अपशिष्टों का उत्पादन।
त्वरित्र द्वारा चालित उपक्रांतिक रिएक्टर के तकनीकी विकास क सिद्ध हो जाने पर नाभिकीय ऊर्जा का उत्पादन न केवल स्वीकार योग्य एवं ज्यादा सुरक्षित ढंग से किया जा सकेगा बल्कि थोरियम ईंधन का भी ईस्तमाल आसानी से हो सकेगा। प्रकृति में उपलब्ध थोरियम में इतनी ऊर्जा छुपी हुई है, जो अगले कई हजार वर्षों तक मनुष्य की ऊर्जा खपत को पूरा करने में सक्षम है।
थोरियम की प्रमुख विशेषताएं निम्न हैं-
- लगभग सभी जगह व्याप्त है।
- इसे यूरेनियम -233 में परिवर्तित कर नाभिकीय ईंधन के तौर पर मंद एवं द्रुत, दोनों प्रकार के रिएक्टरों में उपयोग किया जा सकता है।
- थोरियम/यूरेनियम ईधन चक्र में प्लूटोनियम एवं दूसरे परायूरेनियम तत्वों का उत्पादन यूरेनियम/प्लूटोनियम ईधन चक्र से काफी कम होता है। इसका कारण यह है कि थोरियम -232 की द्रव्यमान संख्या यूरेनियम -238 से 6 कम है, जिसकी वजह से थोरियम से प्लूटोनियम बनने में क्रमश: 7 न्यूट्रॉन के अवशोषण की आवश्यकता पड़ेगी, जबकि सिर्फ 1 न्यूट्रॉन का अवशोषण ही यूरेनियम को प्लूटोनियम में परिवर्तित कर देगा। अत: थोरियम/यूरेनियम ईंधन चक्र के नाभिकीय अपशिष्ट में विषैले पदार्थों की मात्रा हजार गुना कम होने से इनके निपटान की समस्या काफी कम हो सकती है।
त्वरित्र प्रजनन का विकास
त्वरित्र एक ऐसा यंत्र है, जो आयन कणों की गति बढ़ा कर उन्हें उच्च ऊर्जा वाले कण बनाता है। ये उच्च ऊर्जा वाले आयन कण किसी भारी पदार्थ में आघात कर कृत्रिम तत्वातरण (आर्टिफिशियल ट्रांसम्यूटेशन) प्रकिया द्वारा काफी मात्रा में न्यूटॉन उत्पन्न करते हैं। ये न्यूट्रॉन उर्वर पदार्थ में अवशोषित होकर उन्हें विखंडय पदार्थ में परिवर्तित कर देते हैं। इस पद्धति का सफल परीक्षण सबसे पहले अमेरिका में स्थित लॉरेन्स लिवरमोर प्रयोगशाला में सन् 1949 में हुआ जब प्लूटोनियम-239 का उत्पादन यूरेनियम को उच्च ऊर्जा वाले ड्यूटीरियम या प्रोटॉन आयन कणों से आघात करके किया गया। उच्च-ऊर्जा वाले प्रोटॉन कण भारी पदार्थ, जैसे- लेड, बेरीलियम इत्यादि से भी टकराकर न्यूट्रॉन पैदा करते हैं, जिनका उपयोग ऊर्जा पैदा करने के लिए किया जा सकता है।
पिछले कई वर्षों में मूल अनुसंधान के क्षेत्र में काफी प्रगति हुई है जिससे त्वरित्र के विकास को भी बढ़ावा मिला है। आज प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में इतनी प्रगति हुई है कि वैज्ञानिकों को इस बात पर पूरा भरोसा है कि आने वाले वर्षों में ऐसे त्वरित्र का निर्माण संभव हो जाएगा जो प्रोटॉन को उच्च ऊर्जा एवं घनत्व प्रदान करने में सक्षम होंगे।
त्वरित्र द्वारा प्रचालित प्रणाली
रिएक्टरों की तुलना में इन प्रणालियों की मुख्य विशेषता यह है कि ये हमेशा उपक्रांतिक अवस्था में कार्यशील रहते हैं। अत: जहां रिएक्टरों में ईधन-गलन से दुर्घटनाओं की संभावना रहती है, त्वरित्र द्वारा प्रचालित इन प्रणालियों में ऐसा भय नहीं रहता। त्वरित्र का चालन बंद करने से श्रृंखला अभिक्रिया भी बंद हो जाती है क्योंकि बाह्य न्यूट्रॉन स्रोत का उत्पादन भी रूक जाता है। इस प्रकार इन प्रणालियों का नियंत्रण बाह्य न्यूट्रॉन करता है। असल में रिएक्टर में भी नियंत्रण विलंबित न्यूट्रॉन ही करता है। हालांकि यह न्यूट्रॉन विखंडन अभिक्रिया से उत्पन्न होता है (करीब 0.3 प्रतिशत), परन्तु औसतन 0.1 सेकेंड के बाद।
एक और उल्लेखनीय बात यह है कि चूंकि रिएक्टर में श्रृंखला अभिक्रिया के लिए हर प्रजनन में एक न्यूट्रॉन की आवश्यकता होती है, अतः अभिजनन के लिए उपलब्ध न्यूट्रॉनों की संख्या कम होती है, जबकि त्वरित्र द्वारा प्रचालित प्रणाली में ऐसी कोई समस्या नहीं होती।
पिछले दशकों में त्वरित्र के उपयोग से उर्वर पदार्थ (यूरेनियम -238, थोरियम -232) के विखंड्य पदार्थ (प्लूटोनियम -239, यूरोनियम – 233) में प्रजनन कर एक ही प्रणाली में ऊर्जा के उत्पादन पर काफी कार्य हुआ है। इस प्रणाली में मुख्यतः तीन अंग होते हैं: –
- त्वरित्र, जो प्रोटॉन आयन कणों की ऊर्जा बढ़ाता है,
- उपक्रांतिक रिएक्टर (आवरण) एवं इसके बीच में स्थित लक्ष्य पदार्थ (न्यूट्रॉन उत्पादक)
- ईधन का पृथक्कन (पुनः संसाधन)
त्वरित्र द्वारा प्रचालित तकनीक का उपयोग आम तौर पर विभिन्न नाभिकीय समस्याओं को सुलझाने में किया जा सकता है, जैसे नाभिकीय अपशिष्टों का तत्वांतरण (ट्रांसम्यूटेशन) खंडित परमाणु हथियारों को नष्ट करने के लिए उनमें विद्यमान प्लूटोनियम का दहन एवं ऊर्जा उत्पादन।
परमाणु विद्युत संयंत्र में उत्पन्न नाभिकीय अपशिष्टों का तत्वांतरण करने के लिए अपशिष्टों के साथ थोड़ा प्लूटोनियम या थोरियम मिलाकर उसे ईंधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। अपशिष्टों में उपस्थित प्लूटोनियम एवं एक्टीनाइड का विखंडन होता है एवं दीर्घकालिक आयु वाले विखंडन उत्पाद का त्त्वांतरण होता है जो अल्पकालिक आयु वाले अथवा स्थिर आइसोटोप में परिवर्तित हो जाते हैं। इस प्रकार नाभिकीय अपशिष्टों के भस्मीकरण से न केवल अपशिष्टों के निपटान की समस्या काफी कम हो सकती है, बल्कि इस प्रणाली में विद्युत उत्पादन भी होता है। उदाहरण के तौर पर 800 मेगा इलेक्ट्रॉन वोल्ट एवं 200 मिली एम्पियर रेखिक त्वरित्र (लीनियर एक्सलेरेटर) के इस्तेमाल से 1200 मेगावाट (बिजली) ऊर्जा का उत्पादन हो सकता है जिसमें से 450 मेगावाट (बिजली) त्वरित्र को चलाने के लिए एवं शेष 750 मेगावाट (बिजली) ग्रिड के लिए बचती है। इस प्रणाली में लगातार ईंधन पुनः संसाधन करने की आवश्यकता होती है।
परमाणु अस्त्रों को नष्ट करने के लिए उनमें विद्यमान प्लूटोनियम को ईंधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं, जिसके दहन से ऊर्जा उत्पन्न होती है। इस प्रणाली में लगभग 99 प्रतिशत प्लूटोनियम नष्ट हो जाता है एवं ईधन के पुनः संसाधन व निर्माण करने की आवश्यकता नहीं होती। उदाहरण के तौर पर 800 मेगा इलेक्ट्रॉन वोल्ट एवं 100 मिली एम्पियर रैखिक त्वरित्र के इस्तेमाल से 1200 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो सकता है, जिसमें से 300 मेगावाट ग्रिड के लिए बचती है।
उपर्युक्त दोनों प्रकार की प्रणालियों में उच्च तीव्रता वाले त्वरित्र की आवश्यकता पड़ेगी, जबकि कम शक्ति वाले त्वरित्र (10-20 मेगावाट) का उपयोग उपक्रांतिक रिएक्टर के साथ करके विद्युत ऊर्जा उत्पादन किया जा सकता है। 1000 मेगावाट इलेक्ट्रॉन वोल्ट एवं 1 मिली-एम्पियर प्रोटॉन कण (1 मेगावाट शक्ति) जब बेलनाकार टंगस्टन (50 सेमी. व्यास, 100 सेमीं. लंबा) पर पड़ता है तब प्रति सेकेण्ड 2 × 1017 न्यूट्रॉन बिजली पैदा होती है। उपक्रांतिक रिएक्टर या आवरण का न्यूट्रॉन गुणनांक 0.90-0.95 (यानि न्यूट्रॉन की संख्या में 10 से 20 गुना बढ़त) होती है जिसके फलस्वरूप ऊर्जा में 20 से 40 गुना बढ़त मिल सकती है। अत: इसे ऊर्जा प्रवर्धक प्रणाली भी कह सकते हैं। इसमें ईधन के रूप में थोरियम इस्तेमाल करते हैं। शुरू में उपक्रांतिक रिएक्टर क्रोड में कुछ मात्रा में थोरियम के साथ प्लूटोनियम या यूरेनियम -233 का इस्तेमाल करना पड़ता है परंतु बाद में थोरियम में पर्याप्त यूरेनियम -233 का अभिजनन होने के फलस्वरूप यह प्रणाली सिर्फ थोरियम ईंधन से चलने में समक्ष हो जाती है। उदाहरण के तौर पर 1000 मेगा इलेक्ट्रॉन वोल्ट एवं 7 मिली-एम्पियर साइक्लोट्रॉन त्वरित्र के इस्तेमाल से 100 मेगावाट विद्युत का उत्पादन हो सकता है। जिसमें से 20 मेगावाट बिजली त्वरित्र को चलाने के लिए एवं शेष 80 मेगावाट बिजली का उत्पादन होता है। उपक्रांतिक रिएक्टर का न्यूट्रॉन गुणनांक बढ़ाने से ऊर्जा का उत्पादन भी कई गुणा बढ़ जाता है। इस प्रणाली में थोरियम ईंधन का बर्नअप काफी अधिक हो सकता है, जिससे इसकी पुनः संसाधन की आवश्यकता नहीं होगी। इसके अलावा थोरियम की कई विशेषताएं हैं, जो इसे अच्छा नाभिकीय ईंधन बनाता है।
सबसे चुनौती पूर्ण कार्य उच्च तीव्रता वाले त्वरित्र निर्माण करने की प्रौद्योगिकी का विकास करना है। भविष्य में थोरियम से विद्युत ऊर्जा का उत्पादन त्वरित्र द्वारा प्रचालित प्रणाली में किया जा सकेगा, ऐसी संभावना काफी प्रबल है। विश्व की अनेक प्रयोगशालाओं में इस प्रणाली के हरेक आयामों पर विकास का कार्य हो रहा है। ऐसी आशा की जा सकती है कि अगले कुछ दशकों में थोरियम/यूरेनियम-233 ईंधन चक्र के हस्तन का विकास भी हो जाएगा। यूरोपीय समुदाय के वैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र में विकास करने की एक परिकल्पित योजना बनाई है जिसके आधार पर औद्योगिक स्तर पर कार्य करने वाली प्रणालियों का निर्माण सन् 2040 से आरंभ किया जा सकगा। हमारे देश में इस तकनीक के विकास के लिए बहु-स्तरीय योजना सोची जा रही है। दोनों प्रकार के त्वरित्र (रेखिक एवं साइक्लोट्रॉन) का विकास कम तीव्रता वाले त्वरित्र के निर्माण से शुरू किया जाएगा।
संलयन रिएक्टर
संलयन क्षेत्र में अनुसंधान का प्रमुख लक्ष्य एक ऐसे स्रोत से ऊर्जा उत्पादन करने में है, जो सभी जगह व्याप्त हो एवं अनंत काल तक भविष्य में साफ तथा सुरक्षित ढंग से ऊर्जा का उत्पादन करने में समर्थ हो। संलयन प्रक्रिया में मुख्य ईंधन ड्यूटीरियम है, जो समुद्र के पानी में उपलब्ध है। पानी के 6500 भाग में एक भाग ड्यूटीरियम का होता है। समुद्र में इतना ड्यूटीरियम है, जो अगले दो हजार करोड़ वर्षों तक ऊर्जा दे सकता है।
यद्यपि संलयन क्षेत्र में अनुसंधान 1950 के दशक से ही आरंभ हो चुका है (संलयन अणुबम का विस्फोट सन् 1952 में ही किया जा चुका है), परंतु नियंत्रित ढंग से ऊर्जा उत्पन्न करने में अभी तक सफलता नहीं मिली है। जैसे-जैसे इसका विकास हो रहा है, बहुत सारी कठिनाइयां सामने आ रही हैं। इन कठिनाइयों का कारण उस भौतिक अवस्था को प्राप्त करने में है, जो संलयन प्रक्रिया को शुरू करने एवं उसे जारी रखने के लिए आवश्यक है। नियंत्रित ढंग से संलयन ऊर्जा पैदा करने के लिए मुख्यत: दो बाधाओं को पार करना होगा।
सर्वप्रथम यह जरूरी है कि कई करोड़ डिग्री सेल्सियस तापमान पर संलयन ईधन, जो प्लाज्मा की अवस्था में है, उसे इतने समय तक इकट्ठा रखा जाए, जिससे संलयन प्रक्रिया से उत्पन्न ऊर्जा की मात्रा संलयन ईंधन को गर्म करने में हुई ऊर्जा खपत से ज्यादा हो, यानि ऊर्जा गुणांक Q का मान 1.0 से अधिक हो। दूसरा, संलयन रिएक्टर के लिए नए प्रकार के पदार्थों का विकास करना। दो प्रकार के संलयन रिएक्टरों का विकास हो रहा है, जो प्लाज्मा के बंधन तरीकों पर आधारित हैं।
संलयन ईधन
संलयन अभिक्रिया या ताप-अभिक्रिया में सभी ड्यूटीरियम या ट्रिटियम नाभिकों की ऊर्जा एक जैसी नहीं होती बल्कि उनका विस्तार मैक्सवैल वितरण के अनुसार होता है। यानी कुछ नाभिकों की ऊर्जा प्लाज्मा के औसत तापमान से ज्यादा होती है, जो संलयन प्रक्रिया करती है। जिस औसत तापमान पर प्लाज्मा स्वत: संलयन प्रक्रियाओं से उत्पन्न ऊर्जा द्वारा संलयन ईंधन में प्रक्रियाओं को जारी रखता है, उसे ज्वलन ताप कहते हैं। बुनियादी ताप-नाभिकीय निम्न हैं-
ज्वलन ताप
D + T → 4He + n + 17.6 MeV 10KeV
D + D → T + H + 4.03 MeV 50 KeV
D + D → 3He + n + 3.27MeV 50KeV
D + 3He → 4He + H18.3 MeV 100 KeV
1KeV=1.16×107 डिग्री केल्विन तापमान (लगभग एक करोड़ डिग्री सेल्सियस)
ड्यूटीरियम तथा ट्रिटियम अभिक्रिया सबसे कम तापमान पर होती है अत: ऐसी आशा है कि भविष्य में बनने वाले प्रथम संलयन रिएक्टर में इसी ईंधन का इस्तेमाल होगा। इस अभिक्रिया में अल्फा कण एवं न्यूट्रॉन बनाता है। अल्फा कणों की ऊर्जा प्लाज्मा को गर्म करती है जबकि न्यूट्रॉन जिसकी ऊर्जा 14.1 मिलियन इलक्ट्रॉन वोल्ट (संलयन ऊर्जा का 80 प्रतिशत ) होती है, सीधे प्लाज्मा के बाहर चला आता है। इस अभिक्रिया में ट्रिटियम की आवश्यकता होती है जो प्रकृति में उपलब्ध नहीं है। ट्रिटियम का उत्पादन संलयन रिएक्टर में ही किया जा सकता है। न्यूट्रॉन की गतिज ऊर्जा प्लाज्मा के बाहर स्थित पदार्थ (आवरण) में अवशोषित होकर ऊष्मा में बदल जाती है जिससे व्यावहारिक ढंग से विद्युत उत्पादन किया जा सकता है। आवरण में कुछ मात्रा में लीथियम रखने से न्यूट्रॉन अभिक्रिया द्वारा ट्रिटियम भी पैदा किया जा सकता है:
6Li + n → He(2.05MeV)+T(2.73 MeV)
7Li + n → He+T+ n – 2.47 MeV
लीथियम, प्रकृति में काफी मात्रा में उपलब्ध है। प्राकृतिक लीथियम में 92.5 प्रतिशत 7Li एवं शेष 6Li होता है। 7Li द्रुत न्यूट्रॉन से अभिक्रिया करके ट्रिटियम एवं एक मंद न्यूट्रॉन बनाता है। यह मंद न्यूट्रॉन 6Li के साथ अभिक्रिया करके पुनः ट्रिटियम पैदा किया जा सकता है। यानी संलयन प्रक्रिया में जलने वाले ट्रिटियम का उत्पादन रिएक्टर में ही किया जा सकता है। प्राकृतिक लीथियम को वर्तमान परमाणु रिएक्टरों में किरणित करके भी ट्रिटियम का उत्पादन रिएक्टर में ही किया जा सकता है। प्राकृतिक लीथियम को वर्तमान परमाणु रिएक्टरों में किरणित करके भी ट्रिटियम पैदा किया जाता है। धरती में प्राकृतिक लीथियम का अनुमानित भंडार एक करोड़ टन है, जबकि समुद्र के पानी में इससे भी हजार गुना ज्यादा लीथियम (0.17 पीपीएम) उपलब्ध है, जो कई करोड़ वर्षों तक संलयन ऊर्जा देने में सक्षम है।
प्लाज्मा बंधन पद्धति
संलयन रिएक्टर में उच्च ताप के प्लाज्मा को एक ही जगह अधिक समय तक सीमित रखने की आवश्यकता होती है, जिससे पर्याप्त मात्रा में संलयन अभिक्रिया हो सके। इस प्लाज्मा के किसी पात्र की सतह से आयनित कण टकरा कर अपनी ऊर्जा खो देंगे, जिससे संलयन अभिक्रियाएं नहीं हो सकेगी। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दो पद्धतियों पर कार्य हो रहा है- चुंबकीय बंधन एवं जड़त्वीय बंधन।
चुंबकीय बंधन में प्लाज्मा को काफी शक्तिशाली एवं विशेष आकार के चुंबकीय बल द्वारा ज्यादा समय तक सीमित किया जाता है जबकि जड़त्वीय बंधन में प्लाज्मा का घनत्व बढ़ा कर संलयन अभिक्रियाओं की दर में वृद्धि करके ईंधन के बिखरने से पहले ही पर्याप्त ऊर्जा पैदा की जाती है। इस पद्धति में प्लाज्मा को थामने के लिए बाहरी बल की आवश्यकता नहीं पड़ती। पिछले दस वर्षों में इन दोनों क्षेत्रों में काफी प्रगति हुई है। चुंबकीय बंधन में टोकॉमक तरीका सबसे विकसित है, जिसमें प्लाज्मा को वलयाकार बंद क्षेत्र में सीमित किया जाता है। संलयन ऊर्जा के विभिन्न पहलुओं पर अनुसंधान करने के लिए टोकॉमक तरीके पर आधारित कई संयंत्रों जैसे जेट (ब्रिटेन में), जेटी-60 एवं जेटी-60यू (जापान में) का निर्माण किया गया है।
जड़त्वीय बंधन में लेसर या उच्च धारा इलेक्ट्रॉन किरणपुंज द्वारा विशेष प्रकार के बहुत ही छोटे आकार वाले ईंधन में सूक्ष्म विस्फोट से आवश्यक ताप एवं घनत्व पैदा किया जाता है। इस पद्धति पर आधारित संयंत्रों का निर्माण अमेरिका में हो रहा है। चुंबकीय बंधन पद्धति में ऊर्जा-संतुलन प्रमाणित किया जा चुका है (सन् 1997 में जेट में Q=1.0 एवं 1998 में जेटी-60U में Q=1.25) एवं अगले पांच वर्षों में जड़त्वीय बंधन से भी इसकी पुष्टि होने की संभावना है। प्लाज्मा को लंबे समय तक ज्वलन ताप पर रखने के लिए सिर्फ संलयन में बने अल्फा कणों की ऊर्जा ही पर्याप्त नहीं है। अत: बाहर से उच्च ऊर्जा वाले आवेशविहीन कणों को प्लाज्मा के अंदर भेजा जाता है, जो अपनी ऊर्जा देकर प्लाज्मा को गर्म रखती है।
संलयन ऊर्जा का विकास
पिछले कई दशकों से संलयन ऊर्जा के क्षेत्र में हुए वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिक प्रगति से यह विश्वास होने लगा है कि अगले 30-40 वर्षों में औद्योगिक स्तर पर कार्य करने वाले संलयन रिएक्टरों का निर्माण हो सकेगा। इस दिशा में अग्रसर होने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से एक टोकॉमक बनाने की योजना है, जिसमें यूरोपीय संघ, जापान, अमेरिका, रूस, चीन तथा दक्षिण कोरिया शामिल हैं। हाल ही में भारत भी इस अंतर्राष्ट्रीय सह-परियोजना का सदस्य बना है। इसका निर्माण फ्रांस के काद्राश शहर में होगा, जिसके 2016 में बन कर तैयार होने की आशा है। इसके निर्माण में 5 अरब अमेरिकी डॉलर (25000 करोड़ रूपए) खर्च होंगे। इसे अंतर्राष्ट्रीय ताप-नाभिकीय प्रायोगिक रिएक्टर (आईटीइआर यानी इटर) के नाम से जाना जाता है। इस संलयन रिएक्टर में एक बार में ड्यूटीरियम-ट्रिटियम मिश्रण के दहनशील प्लाज्मा (टोकॉमक का व्यास 12.4 मीटर) से 500 मेगावाट ऊर्जा 500 सेकण्ड की अवधि तक पैदा की जा सकेगी, जिसे कुछ अंतराल के बाद फिर से किया जा सकेगा। चुंबकीय बल उत्पन्न करने के लिए अधिचालक तार का इस्तेमाल किया जाएगा। इसमें ऊर्जा गुणांक की मात्रा 5-10 तक मिलने की आशा है। ईटर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ी संयुक्त परियोजना है। इस संयंत्र के बनाने का मुख्य उद्देश्य नियंत्रित ढंग से संलयन ऊर्जा उत्पन्न करने को दर्शाना है। इसकी सफलता के सिद्ध होने के लगभग 30 वर्ष बाद (सन् 2050 के करीब) व्यापारिक संलयन रिएक्टरों का निर्माण विद्युत उत्पादन के लिए करना संभव होगा।
जड़त्वीय बंधन पर आधारित एनआईएफ का निर्माण अमेरिका में हो रहा है, जिसके 2010 में बन कर तैयार होने की आशा है। इसके निर्माण में 1.1 अरब अमेरिकी डॉलर (5500 करोड़ रूपए) खर्च होगा। इसमें उच्च शक्ति के 192 लेसर पुंजों द्वारा 2 मि.मी. व्यास के हाइड्रोजन ईंधन का घनत्व 1000 ग्राम प्रति घन सेमी. हो जाता है एवं तापमान भी 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस से ज्यादा पहुंच जाता है। ऐसी स्थिति में संलयन अभिक्रिया में 18 मेगा जूल संलयन ऊर्जा उत्पन्न होगी जबकि लेसर पुंजों द्वारा 1.8 मेगा जूल ऊर्जा (500×107 वाट ऊर्जा 3 नैनो सेकण्ड तक, निकट पराबैंगनी -351 नैनो मीटर तंरगदैर्ध्य) ही दी जाएगी, यानी ऊर्जा गुणांक की मात्रा 10 होगी।
प्लाज्मा को अधिक समय तक एक ही जगह सीमित रखने में यदि सफलता मिल जाती है, परंतु संलयन प्रक्रिया से उत्पन्न ऊर्जा खपत से कम रह जाती है (ऊर्जा गुणांक Q का मान 1.0 से कम), ऐसी स्थिति में प्लाज्मा का इस्तेमाल न्यूट्रॉन स्रोत के रूप में किया जा सकता है। इसमें प्लाज्मा के चारों ओर स्थित आवरण में लीथियम लैटिस होता है, जिसमें संलयन प्रक्रिया से उत्पन्न द्रुत न्यूट्रॉन द्वारा विखंडन प्रक्रिया होती है। यानी इस प्रकार के रिएक्टरों में संलयन एवं विखंडन, दोनों प्रक्रियाएं एक ही प्रणाली में होती हैं। चूंकि एक विखंडन प्रक्रिया में संलयन प्रक्रिया की तुलना में 10 गुना ज्यादा ऊर्जा पैदा होती है, सम्मिलित प्रणाली का ऊर्जा गुणांक बढ़ कर 30-50 तक हो सकता है। यद्यपि ऐसी प्रणाली दूर भविष्य के लिए उपयुक्त नहीं है, फिर भी ये जल्दी बनाए जा सकेंगे जो शुद्ध संलयन रिएक्टर के विकास में काफी सहायक सिद्ध हो सकते हैं।
हमारे देश में प्लाज्मा अनुसंधान संस्थान, गांधीनगर में संलयन ऊर्जा पर अनुसंधान हो रहा है, जहां देश में बना पहला टोकॉमक आदित्य 1989 से कार्य कर रहा है। इसमें टोकॉमक का व्यास 150 सेमी. है। प्लाज्मा भौतिकी के कई पहलुओं का अध्ययन इसमें किया गया है। इस संयंत्र में प्लाज्मा को 100 मिली. सेकण्ड तक स्थिर-स्थिति अधिचालक टोकॉमक (एसएसटी-1) का नाम दिया गया है जिसमें हाइड्रोजन प्लाज्मा को 1000 सेकैण्ड तक स्थिर अवस्था में रखा जा सकेगा। चुंबकीय बल उत्पन्न करने के लिए अधिचालक तार (NbTi) का इस्तेमाल किया जाएगा। एसएसटी-1 का व्यास 220 सेमी. तथा प्लाज्मा का व्यास 40 सेमी. होगा। इस संयंत्र का उपयोग स्थिर अवस्था में प्लाज्मा प्रक्रिया को समझने में किया जाएगा।
हाइड्रोजन स्रोत के उत्पादन में नाभिकीय ऊर्जा
हाइड्रोजन भविष्य में ऊर्जा क्षेत्र में काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी। हाइड्रोजन के जलने से काफी मात्रा में ताप ऊर्जा उत्पन्न होता है, ठीक उसी प्रकार जैसे कोयला या पेट्रोल के जलने से होती है। यह एक रासायनिक प्रक्रिया है जो ऑक्सीजन की उपस्थिति में होती है, जिसमें ऊष्मा तथा जल बनता है। हाइड्रोजन के जलने से किसी भी प्रकार का वायु प्रदूषण नहीं होता।
रासायनिक प्रक्रिया से ऊर्जा उत्पन्न करने वाले ईंधन में वजन के हिसाब से हाइड्रोजन सबसे ज्यादा ताप ऊर्जा पैदा करने की क्षमता रखता है। एक किलोग्राम हाइड्रोजन के जलने से 121 मेगा-जूल ऊष्मा अथवा 33 किलो वाट-आवर (बिजली यूनिट) ऊर्जा उत्पन्न होती है। जबकि साधारण बैटरी में एक किलोग्राम रसायन सिर्फ 0.03 किलो वाट आवर ऊर्जा ही पैदा कर सकती है। हाइड्रोजन गैस का घनत्व सिर्फ 0.0899 ग्राम प्रति लीटर होता है जो हवा की तुलना में पंद्रह गुना कम है। अत: इसे उच्च दाब अथवा द्रवित अवस्था में रखा जाता है, जिससे इसे आसानी से एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सके।
हाइड्रोजन का इस्तेमाल अमोनिया बनाने, पेट्रोलियम शोधन एवं मीथेनॉल के संश्लेषण में होता है। अंतरिक्ष यान में हाइड्रोजन का इस्तेमाल ऊर्जा स्रोत के रूप में किया जाता है जिससे ताप, बिजली एवं पेय जल का निर्माण अंतरिक्ष यात्रियों के लिए होता है। ईधन सैल एक ऐसा उपकरण है, जो हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के रासायनिक ऊर्जा को सीधे बिजली में परिवर्तित कर देता है एवं इस प्रक्रिया में पानी भी बनता है। ईधन सैल के तकनीकी विकास से अब यह संभव है कि मोटरगाड़ियां हाइड्रोजन ऊर्जा स्रोत से चल सकें। हाइड्रोजन मूल ऊर्जा स्रोत नहीं है, बल्कि द्वितीयक ऊर्जा स्रोत या ऊर्जा वाहक है (जैसे बिजली) क्योंकि इसे बनाने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। बिजली की तरह हाइड्रोजन गैस सबसे सरल तत्व है जिसमें सिर्फ एक प्रोटॉन एवं एक इलेक्ट्रॉन होता है। परंतु यह प्रकृति में अलग से उपलब्ध नहीं है। यह दूसरे तत्वों जैसे-ऑक्सीजन, नाइट्रोजन एवं कार्बन-डाइऑक्साइड के साथ मिला होता है।
साधारण जल (H2O) हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन से बना होता है। बहुत सारे हाइड्रोकार्बन पदार्थ जैसे पेट्रोल (C22H32N2O2) प्राकृतिक गैस (CH4) मीथेनॉल (CH3OH4), प्रोपेन या तरल पेट्रोलियम गैस (C3H3) आदि में हाइड्रोजन होता है। हाइड्रोजन को पृथक करने के लिए कई विधियां हैं, जैसे-विद्युत अपघटन (इलेक्ट्रोलाइसिस), वाष्प रिफार्मिग एवं जल भंजन प्रक्रिया। इन सब प्रक्रियाओं में ऊर्जा की आवश्यकता होती है। नाभिकीय ऊर्जा इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
विद्युत अपघटन
विद्युत द्वारा पानी को पृथक कर हाइड्रोजन बनाने की विधि को विद्युत अपघटन (इलेक्ट्रोलाइसिस) कहते हैं। वर्तमान में इसी प्रक्रिया से हाइड्रोजन का उत्पादन किया जाता है परंतु यह काफी महंगा पड़ता है। एक किलोग्राम हाइड्रोजन पैदा करने के लिए 142 मेगा जूल अथवा 40 किलोवाट-आवर (बिजली यूनिट) ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। अधिक मात्रा में हाइड्रोजन का उपयोग ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में तभी संभव हो सकगा जब इसे बनाने के लिए ऐसी विधियों का विकास हो जो काफी किफायती एवं वातावरण की दृष्टि से सही हो, जैसे नाभिकीय ऊर्जा। निम्न समीकरण द्वारा इसे दर्शाया जा सकता है-
2H2 + ऊर्जा → 2H2+O2
यद्यपि विद्युत अपघटन प्रक्रिया की दक्षता सामान्य ताप एवं दाब पर 70 प्रतिशत के करीब है, परंतु इस विधि से हाइड्रोजन उत्पादन की दक्षता सिर्फ 25 प्रतिशत ही है क्योंकि यह विद्युत उत्पादन की दक्षता से भी जुड़ी है जो केवल 30 प्रतिशत ही है। उच्च ताप (900-1000 डिग्री सेल्सियस) पर विद्युत अपघटन करने से दक्षता 40 प्रतिशत तक बढ़ सकती है। भविष्य में विकसित होने वाले रिएक्टरों का इस्तेमाल उच्च ताप विद्युत अपघटन द्वारा हाइड्रोजन बनाने में भी किया जा सकेगा।
वाष्प रिफार्मिग
औद्योगिक क्षेत्र में हाइड्रोजन उत्पादन, वाष्प रिफार्मिग विधि द्वारा किया जाता है। यह एक ताप-रासायनिक प्रक्रिया है जिसमें हाइड्रोकार्बन से हाइड्रोजन को पृथक करने के लिए वाष्प का उपयोग करते हैं:
СН4+Н2O+उर्जा → Со+ЗН2
Со+H2O → со2+Н2+उर्जा
मीथेन और वाष्प को उच्च ताप (800-900 डिग्री सेल्सियस) पर रखना पड़ता है। इस प्रक्रिया में हाइड्रोजन के साथ कुछ मात्रा में कार्बन-डाइऑक्साइड भी पैदा होती है जिसे अलग करना पड़ता है। यद्यपि रिफार्मिग प्रक्रिया काफी दक्ष (70 प्रतिशत दक्षता) एवं किफायती है। परंतु वर्तमान में वाष्प बनाने के लिए मीथेन का ही इस्तेमाल करना पड़ता है जिससे अवांछित कार्बन डाइऑक्साइड पैदा होती है। हीलियम गैस शीतलित नाभिकीय रिएक्टरों में इस प्रक्रिया के लिए आवश्यक उच्च ताप मिल सकता है। जापान में उच्च ताप प्रायोगिक रिएक्टर का विकास हुआ है, जिसके उपयोग से हाइड्रोजन उत्पादन करने का प्रयत्न हो रहा है एवं ऐसी आशा की जा रही है कि अगले पांच वर्षों में यह कार्य करने लगेगा।
ताप-रासायनिक भंजन प्रक्रिया
वैसे तो पानी के सीधे भंजन के लिए 2500 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है परंतु कुछ रसायनों जैसे सल्फर-डाइऑक्साइड एवं आयोडीन की उपस्थिति में ताप-रासायनिक भंजन प्रक्रिया (थमों-केमिकल क्रेकिंग) द्वारा 700-900 डिग्री सेल्सियस तापमान पर पानी से हाइड्रोजन को अलग किया जा सकता है। इन अभिक्रियाओं में प्रयुक्त रसायनों की फिर से उत्पत्ति होती है, जिनका पुन: इस्तेमाल होता है। इस प्रक्रिया की दक्षता 70 प्रतिशत तक हो सकती है।
नाभिकीय ऊर्जा ही एक ऐसा स्रोत है जिससे इतनी अधिक ऊर्जा एवं इतना अधिक तापमान पाना संभव है। वर्तमान मंद रिएक्टरों में निकास शीतलक का तापमान 400 डिग्री सेल्सियस है एवं सोडियम शीतलित द्रुत अभिजनक रिएक्टरों में 600 डिग्री सेल्सियस। कई ऐसे रिएक्टरों का विकास हो रहा है जिनमें निकास तापमान 900 डिग्री सेल्सियस तक होगा। जापान में विकसित उच्च ताप प्रयोगिक रिऐक्टर का इस्तेमाल कर इस पद्धति पर आगे अनुसंधान करने की योजना है। ऐसी उम्मीद की जा रही है कि इस प्रकार के रिएक्टर अगले 20-30 वर्षों में तैयार हो जाएंगे। इन प्रगत रिएक्टरों से न केवल हाइड्रोजन बनाया जाएगा बल्कि ये नाभिकीय उर्वर पदार्थ जैसे U-238 को विखंड्य पदार्थ Pu-239 में बदल देंगे, जो नाभिकीय रिएक्टरों के लिए ईंधन हैं।
अंतरिक्ष में नाभिकीय ऊर्जा
अंतरिक्ष कार्यक्रम के प्रारंभिक वर्षों में हल्के बैटरी तथा सौर ऊर्जा द्वारा चालित उपकरणों का इस्तेमाल विद्युत शक्ति की जरूरतों को पूरा करने के लिए किया जाता था। उपग्रह की संचार प्रणाली एवं अन्य संवेदनशील यंत्रों के चालन के लिए विश्वस्त एवं हर वक्त उपलब्ध ऊर्जा की आवश्यकता होती है। जैसे-जैसे इस कार्यक्रम का ध्येय विस्तृत होता गया, विद्युत शक्ति की मांग भी बढ़ती गई एवं वैज्ञानिकों ने वैकल्पिक साधनों की तलाश शुरू कर दी। 1960 के दशक में नाभिकीय ऊर्जा का इस्तेमाल अंतरिक्ष क्षेत्र में करने क लिए अनुसंधान होने लगे। इन प्रयत्नों से विकिरण-समस्थानिक ताप-विद्युत जनित्र (आरटीजी) का निर्माण हुआ। इस जनित्र में रेडियोएक्टिव ईंधन के स्वाभाविक क्षय से उत्पन्न ताप ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है।
आरंभिक आरटीजी में केवल 2.7 वाट बिजली ही पैदा होती थी परंतु वर्तमान नए आरटीजी 290 वाट बिजली पैदा कर सकती है। अब आरटीजी द्वारा प्रचालित अंतरिक्ष यान सौरमंडल के बाहरी ग्रहों का अन्वेषण कर रहे हैं। पृथ्वी तथा सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने वाले अनेक मानव-निर्मित उपग्रहों के लिए आवश्यक विद्युत शक्ति आरटीजी द्वारा मिल रही है, जो लगातार कई वर्षों से बाह्य जगत के बारे में संकेत भेज रहे हैं। साधारण बैटरी में रासायनिक क्रिया द्वारा बिजली पैदा होती है, अतः इनकी आयु बहुत कम होती है, जबकि आरटीजी में नाभिकीय ऊर्जा के उपयोग की वजह से यह 30 वर्षों तक बिना किसी समस्या के बिजली पैदा करती रहती है।
विकिरण-समस्थानिक ताप-विद्युत जनित्र (आरटीजी)
आरटीजी में मुख्यत: दो अंग होते हैं–
- एक रेडियोएक्टिव ईंधन यानी ताप ऊर्जा स्रोत, तथा
- दूसरा ताप-विद्युत उपकरण
इसमें कोई गतिशील वस्तु नहीं होती। रेडियोएक्टिव पदार्थ जो अस्थिर अवस्था में होता है, स्वाभाविक क्षय से अथवा स्वत: विखंडित होकर दूसरे पदार्थ में बदल जाता है। इस अभिक्रिया के दौरान ऊष्मा पैदा होती है। ताप-विद्युत उपकरण इस ऊष्मा को सीधे बिजली में बदल देती है।
ताप-विद्युत सिद्धांत का आविष्कार जर्मन वैज्ञानिक थॉमस सीवेक ने सन् 1820 में किया। इसी सिद्धांत पर ताप वैद्युत युग्म (थर्मोकपल) काम करता है। जिस प्रकार किसी सुचालक तार में विद्युत के प्रवाह से तार गर्म हो जाता है, ठीक इसके विपरीत तापमान में अंतर पैदा करके विद्युत उत्पन्न किया जा सकता है। ताप-विद्युत जनित्र में कोई गतिशील वस्तु के न होने से यह काफी सरल एवं भरोसेमंद है। इसमें दो पट्टिकाएं होती हैं, जो अलग-अलग धातुओं की बनी होती हैं एवं विद्युत सुचालक होती हैं। इन दो पट्टिकाओं को जोड़ कर एक परिपथ बनाया जाता है एवं इस प्रकार बने दोनों संगम स्थलों को अलग-अलग तापमान पर रखने से परिपथ में बिजली का प्रवाह होने लगता है। इन युग्म जोड़ को ताप वैद्युत युग्म कहते हैं। तापमान में अंतर ज्यादा होने से बिजली भी ज्यादा पैदा होती है। आरटीजी में रेडियोएक्टिव ईंधन से एक जोड़ को गर्म किया जाता है, जबकि दूसरा जोड़ ठंडा ही रहता है, इसकी ऊष्मीय-क्षमता 6-8 प्रतिशत ही होती है।
आरटीजी में प्रयुक्त होने वाली रेडियोएक्टिव पदार्थ के चयन में कई बातों का ध्यान रखा जाता है, जिनमें मुख्य हैं, अधिक आर्द्धआयु, अधिक ऊर्जा वाले कणों (अल्फा एवं बीटा) का उत्सर्जन एवं कम गामा विकिरणे निकलना। प्लूटोनियम-238 (Pu-238) एवं स्ट्रॉन्शियम-90 (Sr-90) दो ऐसे आइसोटोप हैं जिनका ईंधन के रूप में अक्सर इस्तेमाल होता है। प्लूटोनियम -238 ईंधन में सतह का तापमान 1050 डिग्री सेल्सियस तक हो सकता है जबकि स्ट्रॉन्शियम-90 में केवल 750 डिग्री सेल्सियस तक। शुरू में पोलोनियम-210 आइसोटोप से भी आरटीजी बनाया गया था परंतु इसकी अर्द्धआयु सिर्फ 138.4 दिन होने की वजह से इसका उपयोग ज्यादा नहीं होता। इनके अतिरिक्त कई ऐसे आइसोटोप हैं जिनका उपयोग ऊष्मा स्रोत के लिए किया जाता है।
परमाणु बम
सर्वप्रथम जर्मन वैज्ञानिक ऑटो हॉन ने यूरेनियम विखंडन का सिद्धान्त प्रतिपादित किया और तदुपरांत यूरेनियम-235 के नाभिकीय विखंडन के सिद्धान्त पर परमाणु बम बनाया गया। इस बम का प्रयोग द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका द्वारा 6 और 9 अगस्त, 1945 को क्रमश: जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नामक शहरों पर किया गया था।
परमाणु बमों के लिए विस्फोटक विखंडन प्रतिक्रिया के उपयोग हेतु कम-से-कम नाजुक द्रव्यमान की जरूरत होती है। यह न्यूनतम मात्रा जब एक बार प्रेरित कर दी जाती है, तो क्रमिक प्रतिक्रिया आरम्भ हो जाती है। ऐसी प्रेरणा को नियंत्रण में रखने के लिए परमाणु बम में दो अलग भाग होते हैं और प्रत्येक में उपनाजुक द्रव्यमान रहता है, जब इन दोनों को संयोजित कर दिया जाता है तो बम का विस्फोट नहीं हो सकता।
हाइड्रोजन बम
इस बम का निर्माण नाभिकीय संलयन के सिद्धान्त पर किया जाता है। इस सिद्धान्त के आधार पर हाइड्रोजन के दो नाभिकों को संलयित करके एक अधिक द्रव्यमान का नाभिक तैयार किया जाता है। इस क्रम में काफी मात्रा में ऊर्जा उत्सर्जित होती है। जो अन्य नाभिकों को भी संलयित करती है, जिससे पुन: ऊर्जा का उत्सर्जन होता है। परिणामस्वरूप, अभिक्रिया की एक श्रृंखला बन जाती है, जिससे अपरिमित ऊर्जा निसृत होती है। यह परमाणु बम की अपेक्षा लगभग 10 हजार गुना अधिक विध्वंसात्मक होती है।
संवर्द्धित यूरेनियम
नाभिकीय विखंडन के लिए यूरेनियम-238 की तुलना में यूरेनियम-235 अधिक उपयोगी होता है, क्योंकि यूरेनियम-235 का नाभिक अत्यधिक क्षणभंगुर होता है। फलत: यदि कम गति से भी कोई न्यूट्रॉन उससे टकरा जाये, तो वह उसे खंडित कर सकता है। यूरेनियम रिएक्टर में कुछ विशेष प्रक्रियाओं द्वारा उसमें विखंडन योग्य U235 की मात्रा 0.7 प्रतिशत से बढ़ाकर 2.34 प्रतिशत तक की जाती है। इसी प्रक्रिया को यूरेनियम संवर्द्धन तथा इस विधि द्वारा प्राप्त यूरेनियम को संवर्द्धित यूरेनियम कहा जाता है। प्रकृति में यूरेनियम प्राय: पिचब्लेन्ड के रूप में पाया जाता है।
परमाणु अवताप
नाभिकीय विस्फोट के पश्चात् रेडियोएक्टिव पदार्थ वायुमंडल में तैरने लगते हैं तथा बाद में धीरे-धीरे पृथ्वी की सतह पर जमा होने लगते हैं। इसे ही परमाणु अवताप कहा जाता है। परमाणु अवताप तीन प्रकार का होता है – स्थानीय अवताप, क्षोभमंडलीय अवताप तथा समतापमंडलीय अवताप। स्थानीय अवताप में विस्फोट के कुछ ही घंटों के भीतर लगभग 100 मील की परिधि में रेडियोएक्टिव कण यथा – स्ट्रॉशियम, जमा हो जाते हैं, जबकि क्षोभमंडलीय अवताप में धरातल से लगभग 8 मील की ऊंचाई तक तथा समताप मंडलीय अवताप में 8 से 20 मील तक की ऊंचाई में रेडियोएक्टिव कण तैरते रहते हैं।
किलोटन बम
यह ऐसा नाभिकीय हथियार है जिसकी विस्फोट शक्ति 1000 किलो टन टी.एन.टी. के बराबर होती है।
मेगाटन बम
यह ऐसा नाभिकीय हथियार है जिसकी विस्फोटक शक्ति 1000 किलो टन टी.एन.टी. के बराबर होती है। (टी.एन.टी. का अर्थ ट्राइ नाइट्रो टाल्विन है)।
न्यूट्रॉन बम
बीस वर्षों के परीक्षण व प्रयोगों के उपरान्त अमेरिका ने 1977 में न्यूट्रॉन बम तैयार किया था। इस बम द्वारा जीवों व मनुष्यों का हनन तो होगा, परन्तु इमारतों आदि को कोई हानि नहीं होगी। इसके द्वारा परमाणु अवताप भी उत्पन्न नहीं होगा, जैसा कि अन्य प्रकार के परमाणु बमों से होता है।
विकिरण-समृद्ध आयुध (Enhanced Radiation Weapon ERW)
एक अत्यंत छोटा हाइड्रोजन बम होता है जो अपेक्षाकृत अधिक विकिरण द्वारा (अगले छ: दिनों तक में) मारने के लिए अभिकल्पित (Designed) होता है किन्तु यह इमारतों और आयुधों को अक्षुण्य रहने देता है।
तापनाभिकीय अभिक्रिया
अति उच्च तापमान पर सम्पन्न होने वाली नाभिकीय संलयन की क्रिया जिसमें हल्के नाभिक आपस में जुड़ कर भारी नाभिकों को जन्म देते हैं और साथ ही, अपार ऊर्जा का उत्सर्जन करते हैं। हाइड्रोजन बम के विस्फोट में सम्पन्न होने वाली तापनाभिकीय अभिक्रिया, एटम बम के विस्फोट का परिणाम होता है।
यह संलयन-अभिक्रिया आधारित बम है। इसमें प्रचण्ड ऊष्मा (Intense heat) द्वारा, हल्के भार वाले नाभिक के संलयन से ऊर्जा प्राप्त की जाती है। संलयन भार का परिणाम मूल नाभिक के कुल भार से कम होता है। द्रव्यमान का क्षय द्रव्यमान न्यूनता (Mass defect) कहा जाता है। लेकिन संलयन के लिए लगभग 15 मिलियन डिग्री सेल्सियस तापमान आवश्यक होता है। इसे प्राप्त करने के लिए पहले विखंडनीय विस्फोट संपादित किया जाता है। अतः थर्मो-न्यूक्लियर बम एक विखंडन-संलयन बम (Fission-fusion bomb) है।
कम्प्यूटर अनुकरणीय नाभिकीय विस्फोट
नाभिकीय विस्फोट की प्रक्रिया के सैद्धान्तिक तथा आनुभविक विवरणों से उसका अमूर्त मॉडल बनाया जा सकता है। ऐसे सटीक मॉडल के कम्प्यूटरीय विश्लेषण के माध्यम से बगैर वास्तविक परीक्षण के उन्नत और भिन्न-भिन्न नाभिकीय हथियारों का निर्माण किया जा सकता है।
कार्बन डेटिंग
रेडियो कार्बन डेटिंग एक ऐसी तकनीक है, जिससे अत्याधुनिक पुरानी वस्तुओं की आयु का अनुमान लगाया जाता है। कार्बन का अस्तित्व तीन आइसोटोप रूपों अर्थात् कार्बन 12, कार्बन 13 और कार्बन 14 में होता है, जिसमें 14 ही केवल रेडियोधर्मी होता है। वायुमंडल के ऊपरी सतह पर कम मात्रा में कार्बन 14 रेडियोधर्मी आइसोटोप का निर्माण होता है, जब हवा में मौजूद नाइट्रोजन का कॉस्मिक किरण द्वारा विस्फोट किया जाता है। कार्बन 14 पृथ्वी के वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में फैलता है और इसका प्रयोग पेड़-पौधों द्वारा किया जाता है जो जीव-जन्तुओं द्वारा खाद्य पदार्थ के रूप में उपयोग में लाया जाता है। पेड़-पौधे कार्बन 12 को भी कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में प्राप्त करते हैं। अत: कार्बन 12 और कार्बन 14 का वायुमंडल तथा जीव-जन्तुओं में अनुपात स्थिर होता है। हालांकि, जब किसी जीव की मृत्यु होती है तो उसमें कार्बन 14 की आपूर्ति रूक जाती है और धीरे-धीरे रेडियोधर्मीय क्षय के कारण इसकी मात्रा कम होती जाती है जबकि कार्बन 12 की मात्रा स्थिर रहती है। कार्बन 14 का अर्द्ध-जीवनकाल 5760 वर्षों का होता है अर्थात् 5760 वर्ष के पश्चात् इसकी रेडियोधर्मिता लगभग आधी हो जाती है। इस तरह से कार्बन 12 तथा कार्बन 14 का अनुपात भी 5760 वर्षों के बाद आधा रह जाता है। किसी विशेष परिस्थिति में इसकी भिन्नता कुछ भी हो सकती है, जो मृत जीव की आयु पर निर्भर होता है। अत: किसी वस्तु में कार्बन 12 तथा कार्बन 14 के अनुपात को वायुमंडल में मौजूद इन दो आइसोटोपों के अनुपात की तुलना में मापते हुए एक लकड़ी या हड्डी की आयु का पता लगाया जा सकता है।
परमाणु संलयन
परमाणु संलयन में, जैसा कि सूर्य तथा हाईड्रोजन बम में होता है, प्रकाश के दो न्यूक्लियस गैर-रेडियोधर्मीय परमाणुओं (जैसाकि हाइड्रोजन) को भारी न्यूक्लियस (जैसे हीलियम) बनाने हेतु अत्यधिक तापमान पर एक-दूसरे से टकराया जाता है, जिससे न्यूट्रॉन के रूप में ऊर्जा निकलती है। विखंडन (फिजन) (यूरेनियम) की तुलना में संलयन प्रक्रिया में प्रति ग्राम 4 गुणा अधिक ऊर्जा निकलती है और जीवाणु ईंधन की तुलना में 10 मिलियन गुणा अधिक ऊर्जा निकलती है। संलयन के लिए इस समय, सबसे आकर्षक क्रिया डी-डी क्रिया है जिसमें दो ड्यूटेरियम (या हाइड्रोजन-2) न्यूक्लियस संलयन प्रक्रिया के जरिए हीलियम-3 न्यूक्लियस का सृजन होता है और एक ट्रिटियम (हाईड्रोजन-3) न्यूक्लिय संलयन क्रिया द्वारा हीलियम-4 का निर्माण होता है।
चूंकि, परमाणु न्यूक्लियस धनात्मक होते हैं, अत: एक-दूसरे को विकर्षित करते हैं तथा संलयन प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करते हैं। दोनों न्यूक्लियस को एक-दूसरे से टकराने में अत्यधिक ऊर्जा निवेश की आवश्यकता होती है। उदाहरणार्थ, डी.डी. प्रतिक्रिया में 1 बिलियन डिग्री सेंटीग्रेड तापमान की आवश्यकता होती है। इसका अत्यधिक कम ज्वलन तापमान (100 मिलियन डिग्री सेन्टीग्रेड) होने के कारण ड्यूटेरियम-ट्रिटियम ही एक प्रतिक्रिया है जिस पर इस समय गहन अध्ययन किया जा रहा है।
किसी पोषणक्षम परमाणु संलयन क्रिया हेतु तीन कठिन आवश्यकताएँ हैं और इन तीनों आवश्यकताओं को एक साथ पूरा किया जाना चाहिए। वैज्ञानिकों को कम मात्रा में संलयन ईंधन को 100 मिलियन सेन्टीग्रेड तक गरम करना चाहिए. इससे निर्मित प्लाज्मा 30 को लम्बी अवधि तक बनाये रखते हुए धक्का देना चाहिए और ईंधन अणुओं को उच्च घनत्व पर संलयन करवाना चाहिए, जिससे प्राप्त निवल उपयोगी ऊर्जा को पुन: प्राप्त करना चाहिए ताकि संलयन को लाभकारी बनाया जा सको।
शब्दावली
- सक्रिय ईंधन विस्तार (Active fuel length): ईंधन तत्व में निहित ईंधन पदार्थ का आदि से अन्त तक का आयाम।
- सहायक भवन (Auxiliary Building): परमाणु ऊर्जा संयंत्र के बन्द संरचना वाले रिएक्टर के नजदीक स्थित भवन जो अधिकांशत: रिएक्टर सहायक या संरक्षा प्रणाली के साथ होता है।
- जैविक ढाल (Biological Shield): विकिरण को मानव के लिए सुरक्षित स्तर तक घटाने के लिए रिएक्टर अथवा रेडियोधर्मी सोल के चारों ओर अवशेष पदार्थ का ढेर।
- हड्डीयन (Bone Seeker): एक रेडियो समस्थानिक है, जो शरीर में प्रवेश कराने पर हड्डियों में जमा होने लगता है।
- क्षमता घटक (Capacity Factor): एक निश्चित समयावधि में सकल उत्पादित विद्युत की दर की तुलना में इस समयावधि में निरन्तर पूर्ण शक्ति संचालन से उत्पादित ऊर्जा।
- क्रिटीकेलिटी (Criticality): रिएक्टर तब क्रिटिकल कहलाता है जब वह रिएक्टर संचालन के दौरान अपने आप श्रृंखला अभिक्रिया करने लगता है।
- डॉप्लर गुणांक (Doppler Coefficient): प्रतिक्रिया के ईंधन ताप गुणांक के लिए प्रयुक्त एक शब्द।
- डिफेन्स इन डेप्थ (Defence in Depth): नाभिकीय सुविधाओं से सम्बन्धित एक अभिकल्प तथा आपरेशनल दर्शनशास्त्र जो दुर्घटनाओं को कम करने के लिए बहुपरत वाली सुरक्षा परत तैयार करता है। इसमें विकिरण के उत्सर्जन को रोकने लिए अनावश्यक और असमान संरक्षा क्रियाकलापों को रोकने के लिए, आपात स्थिति प्रत्युत्तर उपायों के लिए बहुउद्देश्यीय बैट्रियों जैसे नियन्त्रक का प्रयोग किया जाता है।
- डिटरमिनिस्टक इफेक्ट् (Deterministic Effect): स्वास्थ्य पर पड़ने वाला प्रभाव जिसकी परिशुद्धता मात्रा के साथ भिन्न-भिन्न होती है और उसके लिए माना जाता है कि उसकी एक दहलीज होती है।
- डोजीमीटर (Dosimeter): आयनीकरण विकिरण की कुल संचित कार्मिक मात्रा की रिकार्डिंग और माप करने के लिए प्रयुक्त होने वाला एक उपकरण।
- ईधन पुन: प्रसंस्करण (Fuel Reprocessing): अपशिष्ट पदार्थ से अप्रयुक्त विखण्ड्य पदार्थ को अलग करने के लिए रिएक्टर ईंधन का संसाधन।
- गैसीय प्रसार संयंत्र (Gaseous Diffusion Plant): यह एक सुविधा है, जिसमें यूरेनियम हेक्साक्लोराईड गैस छानी जाती है। यूरेनियम 235 को यूरेनियम 238 से अलग किया जाता है, जिससे यूरेनियम 235 का प्रतिशत 1 से 3 प्रतिशत तक बढ़ जाता है।
- अर्द्धजीवन (Halflife): वह अवधि, जिसमें किसी विशेष रेडियोधर्मी अवयव के आधे अणु किसी अन्य नाभिकीय रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। इसे भौतिक अथवा रेडियोग्राफी अद्धजीवी भी कहते हैं।
- स्वास्थ्य भौतिकी (Health Physics): आयनीकरण विकिरण को अनुप्रयोग तथा इसको प्रयोग से उत्पन्न होने वाले स्वास्थ्य जोखिम की पहचान और जांच से सम्बद्ध विज्ञान।
- हॉट स्पॉट (Hotspot): विकिरण संदूषित क्षेत्र जिसमें विकिरण संदूषण, उसके नजदीकी क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक होता है।
- कृत्रिम रेडियोधर्मिता (Induced Radioactivity): स्थिर अवयवों पर जब आयनीकरण विकिरण की वर्षा की जाती है तो उससे उत्पन्न होने वाली रेडियोधर्मिता, कृत्रिम रेडियोधर्मिता कहलाती है।
- अधिकतम निर्भरता क्षमता (Maximum Dependable Capacity): ग्रीष्म या शीत निर्भरता योग्य मुख्य इकाई सकल उत्पादन क्षमता कहलाती है। शीतलक जल के ताप में परिवर्तन के कारण वर्ष भर के दौरान इकाई दक्षता से परिवर्तन के कारण निर्भरता योग्य क्षमता अलग-अलग होती है। अधिकतम प्रतिबंधित मौसम सम्बन्धी स्थितियों के दौरान टरबाईन जनरेटर (प्रजनक) निर्गत टर्मिनलों पर मापी गई का सकल विद्युत उत्पादन होता है।
- न्यूट्रॉन फ्लक्स (Neutron Flux): प्रति सेकेण्ड में इकाई क्षेत्र से गुजरने वाले न्यूट्रान की संख्या।
- न्यूक्लियॉन (Necleon): परमाणु के नाभिक के संघटक अणुओं का सामान्य नाम। वर्तमान में यह प्रोटॉन और न्यूट्रॉन पर लागू होता है। परन्तु इसमें पाए जाने वाले अन्य अवयवों को शामिल किया जा सकता है।
- जहरीला न्यूट्रॉन (Poison Neutron): विखण्ड्य पदार्थ से भिन्न रिएक्टर के अभ्यन्तर के नजदीक जो न्यूट्रॉन को अवशोषित करता है। पाइजन के अतिरिक्त रिएक्टर में बोरॉन के नियंत्रण छड़ों की तरह नकारात्मक प्रतिक्रिया में एक नया पहलू माना जाता है।
- पूल रिएक्टर (Pool Reactor): एक रिएक्टर है जिसमें ईधन तत्वों को एक तालाब में रख दिया जाता है जो प्रतिक्रियाकर्ता, संचालक और शीतलक के रूप में कार्य करता है। इसे मुख्य रूप से स्विमिंग पूल रिएक्टर के नाम से जाना जाता है तथा इसका प्रयोग अनुसंधान और प्रशिक्षण के लिए किया जाता है, न कि विद्युत उत्पादन के लिए।
- रेडियो संवेदनशीलता (Radiosensitivity): विकिरण की घातक क्रिया के लिए कोशिकाओं, ऊतकों, अवयवों, जीवों या अन्य अवयवों की तुलनात्मक रूप से अतिसंवेदनशीलता।
- जोखिम विनियम (Risk Regulation): इसमें सुरक्षा सम्बन्धित जोखिम की जांच करना शामिल होता है। यह सुनिश्चित करता है कि विशेष (व्यक्तिगत) विनियमों का प्रक्रियाओं पर क्या प्रभाव है।
- सन्दर्भ व्यक्ति (Reference Man): वह व्यक्ति जिसमें औसत शारीरिक और मनोवैज्ञानिक विशिष्टताएं हों। इसे मानक आदमी भी कहा जाता है।
- ढाल बनाना (Shielding): कोई भी पदार्थ अथवा अवरोधक जो विकिरण को अवशोषित करता है और इस प्रकार व्यक्तियों और पदाथों को आयनीकरण विकिरण के प्रभाव से बचाता है।
- थर्मलीकरण (Thermalization): यह प्रक्रिया उच्च ऊर्जा (तीव्र) न्यूट्रानों की गति धीमी करने के लिए प्रयुक्त होती है।
- परा यूरेनियम तत्व (Transuranie Element): कृत्रिम रेडियोधर्मी तत्व जिसकी आणविक संख्या यूरेनियम से अधिक होती है। इसमें नेप्चूनियम, प्लूटोनियम अमरेकियम तथा अन्य शामिल होते हैं।
- व्यॉड (void): नियन्त्रण प्रणाली में निम्नतर घनत्व वाला क्षेत्र है जो चारों ओर फैले द्रव्य पदार्थ की अपेक्षा अधिक न्यूट्रान का रिसाव करता है।
- वाइप सैपल (Wipe Sample): धरातल पर नष्ट करने योग्य रेडियोधर्मी संदूषण की उपस्थिति को निर्धारित करने के उद्देश्य से बनाया गया एक नमूना है।
- पीला केक (Yellow Cake): एक ठोस यूरेनियम आक्साइड यौगिक है, जिसका एक नाम इसके रंग और बनावट के कारण दिया गया है। यह यूरेनियम को पीसने की प्रक्रिया का उत्पादन है। यह ईंधन संवर्धन तथा ईंधन गोली के निर्माण के लिए प्रयुक्त होता है।