नाभिकीय रसायन विज्ञान Nuclear Chemistry

नाभिकीय विखंडन Nuclear Fission

भारी नाभिक वाले परमाणुओं का दो लगभग समान द्रव्यमान वाले नाभिक में विभक्त हो जाना, नाभिकीय विखंडन कहलाता है। सर्वप्रथम जर्मन वैज्ञानिक ऑटोहॉन एवं स्ट्रॉसमैन ने 1939 ई. यूरेनियम परमाणु पर मन्द गति के न्यूट्रॉन की बौछार करके इसके नाभिक को दो लगभग बराबर द्रव्यमान वाले नाभिकों में विभक्त किया। इस प्रक्रिया में अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा तथा दो या तीन न्यूट्रान उत्सर्जित होते हैं। इस अभिक्रिया को नाभिकीय विखण्डन तथा इससे प्राप्त ऊर्जा को नाभिकीय ऊर्जा कहते हैं।

प्रत्येक यूरेनियम के अधिक विखण्डन से लगभग 200 Mev ऊर्जा उत्पन्न होती है जिसमें सर्वाधिक ऊष्मा तथा शेष प्रकाश, गामा किरणे तथा उत्पादित नाभिक एवं न्यूट्रानों की गतिज ऊर्जा के रुप में होती हैं। यह ऊर्जा द्रव्यमान क्षति के कारण उत्पन्न होती है। द्रव्यमान की यह क्षति आइन्सटीन के द्रव्यमान ऊर्जा समीकरण के (E=MC2) अनुसार परिवर्तित होती है।

परमाणु नाभिक का अस्थायित्व

नाभिक के अन्दर दो बल-स्थिर वैद्युत बल (प्रोटानों में परस्पर प्रतिकर्षण) एवं नाभिकीय बल (प्रोटानों तथा न्यूट्रानों में परस्पर आकर्षण) कार्य करते हैं। नाभिकीय बलों के कारण उत्पन्न आकर्षण केवल तभी प्रभावी होता है, जब नाभिक के कण अत्यंत न्यून दूरी पर हो। चूंकि यूरेनियम 235 के नाभिक में नाभिक के कणों के बीच की दूरी अधिक होती है, अतः नाभिकीय बलों का परिमाण कम होता है, जबकि स्थिर-वैद्युत बल के कारण प्रतिकर्षण बल का परिमाण तुलना में अधिक रहता है। इसी कारण यूरेनियम-235 नाजुक सन्तुलन से बँधा रहता है, जिसके कारण इसकी प्रवृत्ति अस्थाई बन जाती है।

श्रृंखला अभिक्रिया Chain Reaction

यूरेनियम 235 पर न्यूट्रॉन की बौछार करने पर नाभिक दो बराबर भागों में टूट जाता है, जिससे 200 Mev ऊर्जा एवं तीन नये न्यूट्रान निकलते हैं, ये नये न्यूट्रान यूरेनियम के अन्य तीन परमाणुओं का विखण्डन करते हैं। फलस्वरुप 9 न्यूट्रॉन उत्पन्न होते हैं, जो अन्य 9 परमाणुओं का विखण्डन करते हैं। इस प्रकार नाभिक के विखण्डन की एक श्रृंखला बन जाती है। इस प्रकार की क्रिया को श्रृंखला अभिक्रिया कहते हैं। यह क्रिया तब तक होती रहती है, जब तक सम्पूर्ण यूरेनियम विखण्डित नहीं हो जाता है। श्रृंखला अभिक्रिया दो प्रकार ही होती है- नियंत्रित व अनियंत्रित श्रृंखला अभिक्रिया।


नियंत्रित श्रृंखला अभिक्रिया Controlled Chain Reaction

यदि यूरेनियम 235 के नाभिकीय विखण्डन अभिक्रिया के प्रारम्भ में उत्सर्जित न्यूट्रॉनों की गति को इस प्रकार नियंत्रित किया जा सके कि श्रृंखला अभिक्रिया होती रहे परन्तु उसकी दर बढ़ने न पाये, तो ऐसी श्रृंखला अभिक्रिया को नियंत्रित श्रृंखला अभिक्रिया कहते है। इससे मुक्त ऊर्जा को नियंत्रित दर से प्राप्त किया जा सकता है, जिसका उपयोग मानवता के विकास के लिए किया जाता है। इसमें मन्दक के रुप में भारी जल (D2O) एवं ग्रेफाइट आदि का प्रयोग किया जाता है। नियंत्रित श्रृंखला अभिक्रिया का उपयोग नाभिकीय रिएक्टर या परमाणु भट्टी में किया जाता है।

अनियंत्रित श्रृंखला अभिक्रिया Uncontrolled Chain Reaction

नाभिकीय विखण्डन क्रिया की दर को किसी भी प्रकार से जब नियंत्रित नहीं किया जाता और प्राप्त ऊर्जा को विनाशकारी होने से बचाया नहीं जा सकता तो होने वाली क्रिया, अनियंत्रित श्रृंखला अभिक्रिया कहलाती है। U-235 के विखण्डन की दर प्रारम्भ होने के 10-5 सेकेण्ड बाद 500 गुना एवं 11×10-15 सेकेण्ड बाद 1000 गुना तक बढ़ जाती है। परमाणु बम इसी सिद्धान्त पर कार्य करता है।

नाभिकीय विखंडन के उपयोग

  1. परमाणु बम (Atomic Bomb): यह अनियंत्रित नाभिकीय विखंडन की क्रिया पर आधारित है। 1945 के द्वितीय विश्व युद्ध में हिरोशिमा तथा नागासाकी में दो परमाणु बम प्रयोग किये गये, जिनमें से पहला U-235 तथा दूसरा Pu-239 (प्लूटोनियम) का बना हुआ था।
  2. परमाणु भट्ठी या न्यूक्लिअर रिएक्टर (Atomic Pile or Nuclear Reactor): यह नियंत्रित नाभिकीय विखंडन की क्रिया पर आधारित है। इसमें नाभिकीय ईंधन के रूप में विखंडनीय पदार्थ प्रायः संवर्द्धित यूरेनियम (enriched Uranium) होता है। विखंडन की श्रृंखला अभिक्रिया को नियंत्रित करने के लिए कैडमियम व बोरॉन की नियंत्रक छड़ों का प्रयोग करते हैं जो कि तत्व मुक्त न्यूट्रॉनों को अवशोषित कर लेती हैं। नियंत्रक छड़ों के अन्दर ले जाने से श्रृंखला अभिक्रिया धीमी हो जाती है तथा उन्हें बाहर निकालने से फिर से श्रृंखला अभिक्रिया की गति तेज की जा सकती है। श्रृंखला अभिक्रिया में विखंडनों के पश्चात् उत्पन्न होने वाले न्यूट्रॉनों की गति अत्यधिक होती है। उनकी गति को मंद करने के लिए भारी जल (D2O), ग्रेफाइट या बेरीलियम ऑक्साइड का प्रयोग किया जाता है इसलिए ये पदार्थ न्यूट्रॉन मंदक (moderator) कहलाते हैं। रिएक्टरों में प्रशीतक (Coolent) के रूप में जल तथा कार्बन डाई ऑक्साइड का प्रयोग किया जाता है।

खौलते पानी किस्म के रिएक्टरों (BWR Boiling Water Reactors) में न्यूट्रॉन मंदक व प्रशीतक के रूप में साधारण जल (H2O) का प्रयोग होता है तथा दाबानुकूलित भारी जल रिएक्टरों (PHWR-Pressurized Heavy Water Reactors) में न्यूट्रॉन मंदक व प्रशीतक के रूप में भारी जल का प्रयोग होता है। भारतीय रिएक्टरों में अधिकांशत: भारी जल (D2O) का ही प्रयोग होता है।

नाभिकीय संलयन एवं नाभिकीय विखंडन में अंतर
नाभिकीय विखंडन नाभिकीय संलयन
1. नाभिकीय विखण्डन में न्यूट्रॉन की बौछार करने से भारी नाभिक, लगभग समान द्रव्यमान क दो नाभिकों में विभक्त हो जाता है। 1. नाभिकीय संलयन में दो हल्के नाभिक परस्पर संयुक्त होकर एक भारी नाभिक बनाते हैं।
2. यह अभिक्रिया साधारण ताप पर होती है। 2. इस क्रिया को प्रारम्भ करने के लिए उच्च ताप (लगभग 2×107 °C) की आवश्यकता पड़ती है।
3. इस क्रिया में अत्यधिक ऊर्जा (लगभग 200 Mev) उत्पन्न होती है। 3. इसमें लगभग 26.7 Mev ऊर्जा उत्पन्न होती है।
4. नाभिकीय विखण्डन में श्रृंखला अभिक्रियाएं होती हैं। 4. नाभिकीय संलयन में श्रृंखला अभिक्रियाएं नहीं होती हैं।
5. इन अभिक्रियाओं को नाभिकीय रिएक्टर में नियन्त्रित किया जा सकता है, जिससे उत्पन्न ऊर्जा का उपयोग रचनात्मक कायों में किया जा सकता है। 5. इसको नियन्त्रित नहीं किया जा सकता है।
6. परमाणु बम इसी सिद्धान्त पर कार्य करता है। 6. हाइड्रोजन बम का निर्माण इसी सिद्धान्त पर किया गया है।

नाभिकीय संलयन Nuclear Fusion

जब दो या दो अधिक हल्के नाभिक, अत्यधिक उच्च ताप पर परस्पर संयोग करके भारी नाभिक का निर्माण करते हैं तो इस प्रक्रिया को नाभिकीय संलयन कहते हैं। नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया अति उच्च तापमान लगभग 2×107 °C पर होती है, जिस कारण इसे ताप नाभिकीय अभिक्रिया भी कहते हैं।

चार प्रोटानों के संलयन से एक हीलियम नाभिक, दो पाजीट्रॉन, दो न्यूट्रिनों तथा 26.7Mev ऊर्जा प्राप्त होती है। संलयन से प्राप्त ऊर्जा, विखण्डन से प्राप्त ऊर्जा (200 Mev) से कम है। वास्तव में ऐसा नहीं है। समान द्रव्यमान के हल्के नाभिकों के संलयन से प्राप्त ऊर्जा, भारी नाभिकों के विखण्डन से प्राप्त ऊर्जा से अधिक होती है क्योंकि हल्के पदार्थ के एकांक द्रव्यमान में परमाणु की संख्या, भारी पदार्थ के एकांक द्रव्यमान में परमाणुओं की संख्या से बहुत अधिक होती है। हाइड्रोजन बम, नाभिकीय संलयन के सिद्धान्त पर बनाया गया है।

नाभिकीय ऊर्जा Nuclear Power

नाभिकीय विखण्डन तथा नाभिकीय संलयन क्रिया में मुक्त ऊर्जा नाभिकीय ऊर्जा (Nuclear Energy) कहते हैं।

नाभिकीय ऊर्जा के उपयोग Uses of Nuclear Energy

  1. नाभिकीय ऊर्जा का उपयोग विद्युत शक्ति पैदा करने में किया जाता है।
  2. यान्त्रिक ऊर्जा में परिवर्तित करके इसका उपयोग मोटर, रेल तथा जहाज आदि चलाने में किया जाता है।
  3. नाभिकीय रिएक्टर द्वारा नाभिकीय विखण्डन को नियन्त्रित करके अनेक रेडियो-ऐक्टिव समस्थानिक बनाये गये हैं, जिनका उपयोग चिकित्सा, विभिन्न प्रकार की वैज्ञानिक खोजों तथा कृषि के क्षेत्र में किया जाता है।

जीवाश्म ईंधन की तुलना में नाभिकीय ऊर्जा के लाभ तथा हानि

लाभ

  1. नाभिकीय ईंधन की थोड़ी मात्रा अत्यधिक नाभिकीय ऊर्जा उत्पन्न करती है जबकि जीवाश्म ईंधन, जैसे कोयले के दहन से प्राप्त ऊर्जा, नाभिकीय ऊर्जा की तुलना में बहुत कम होती है।
  2. नाभिकीय ऊर्जा द्वारा संचालित विद्युत संयन्त्र में बार-बार नाभिकीय ईंधन डालने की आवश्यकता नहीं होती है, जबकि जीवाश्म ईधन से चलने वाले बिजली घरों में कोयला (जीवाश्म ईधन) बार-बार डालना पड़ता है।

हानियां

  1. नाभिकीय ऊर्जा के उत्पादन में अनेक ऐसे उत्पाद उत्पन्न होते हैं, जिनसे हानिकारक रेडियो-ऐक्टिव विकिरण ( α, β और γ किरणे) निकालते हैं। इन विकिरणों की भेदन क्षमता बहुत अधिक होती है। यह अत्यधिक मात्रा में इन विकिरणों से मानव शरीर उद्भासित (Expose) हो जाये, तो मानव शरीर की कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं। इसके विपरीत, जीवाश्म ईधनों, जैसे-कोयले के उपयोग से उत्पन्न प्रदूषण इतना अधिक हानिकारक नहीं होता है।
  2. नाभिकीय ऊर्जा के उत्पादन की प्रक्रिया के विभिन्न चरणों में उत्पन्न नाभिकीय अपशिष्ट पदार्थों (Nuclear Wastes) का निपटान करना (Disposal) आसान नहीं है, क्योंकि ये नाभिकीय अपशिष्ट पदार्थ रेडियो-ऐक्टिव होते हैं, जो हानिकारक विकिरण उत्पन्न करते हैं। इसके विपरीत, जीवाश्म ईधनों के उपयोग से उत्पन्न अपशिष्ट पदार्थों (जैसे कोयले के उपयोग से उत्पन्न राख) के निपटान की कोई विशेष समस्या नहीं है।

नाभिकीय रिएक्टर Nuclear Reactor

नाभिकीय रिएक्टर एक विशेष प्रकार की भट्टी होती है, जिसकी सहायता से नाभिकीय विखण्डन की नियन्त्रित श्रृंखला अभिक्रिया (Controlled Chain Reaction) द्वारा उर्जा उत्पन्न की जाती है। पहला नाभिकीय रिएक्टर सन् 1942 में शिकागो विश्वविद्यालय में अमेरिकन वैज्ञानिक, फर्मी और उनके साथियों ने बनाया था। भारत ने अपना पहला रिएक्टर सन् 1952 में मुम्बई के निकट ट्रॉम्बे में बनाया, जिसका नाम अप्सरा रखा।

नाभिकीय रिएक्टर के मुख्य भाग

  1. ईधन Fuel: यह रिएक्टर का वह भाग है, जिसके विखण्डन से ऊर्जा प्राप्त होती है। इसके लिए यूरेनियम-235 या प्लूटोनियम-239 प्रयुक्त किया जाता है।
  2. मन्दक Moderator: वे पदार्थ जो नाभिकीय विखण्डन की क्रिया को मन्द कर देते है। इसके लिए भारी जल या ग्रेफाइट प्रयुक्त किया जाता है।
  3. शीतलक Coolant: विखण्डन के पश्चात् निसृत अत्यधिक मात्रा में ऊष्मा को नियंत्रित करने के लिए वायु, जल या CO2 को रिएक्टर में प्रवाहित किया जाता है।
  4. नियंत्रक छड़े Controlling Rods: श्रृंखला अभिक्रिया को नियंत्रित करने के लिए कैडमियम की छड़ें प्रयोग की जाती हैं।
  5. परिरक्षक Shield: रिएक्टर से निकलने वाली तीव्र हानिकारक विकिरणों से आस-पास काम करने वाले लोगों की सुरक्षा हेतु ककरीट की मोटी परिरक्षक दीवार बना दी जाती है।

नाभिकीय रिएक्टर के उपयोग

  1. विद्युत उत्पादन में।
  2. राकेटों की उड़ान में।
  3. वायुयान, समुद्री जहाज, रेल व कारखाने चलाने में।
  4. रेडियोऐक्टिव समस्थानिक बनाने में।
  5. प्लूटोनियम-239 का उत्पादन करने में।
  6. तापीय तथा ब्रीडर रिएक्टर-ऐसे रिएक्टर, जिनमें मन्दगामी न्यूट्रानों द्वारा यूरेनियम-235 का विखण्डन करके ऊर्जा प्राप्त की जाती है, उन्हें तापीय रिएक्टर कहते हैं। ऐसे रिएक्टर जिनमें उत्पादित प्लूटोनियम-239 तथा यूरेनियम-233 की मात्रा व्यय होने वाले पदार्थों, यूरेनियम-238 तथा थोरियम-232 से अधिक होती है, ब्रीडर रिएक्टर कहलाते हैं।

नाभिकीय संलयन के उपयोग

  1. हाइड्रोजन बम: यह संलयन क्रिया पर आधारित है। संलयन क लिए आवश्यक उच्च ताप व उच्च दाब की परिस्थितियाँ एक आंतरिक विखण्डन बम (परमाणु बम) के विस्फोट द्वारा उत्पन्न की जाती हैं। प्रथम हाइड्रोजन बम सन् 1952 में बनाया गया।

रेडियो एक्टिव समस्थानिकों के उपयोग

परिसंचरण तंत्र में रक्त के थक्के का पता लगाने के लिए सोडियम Na-24 का, रूधिर की खराबी से उत्पन्न रोगों तथा ल्यूकेमिया के उपचार में P-32, थायराइड ग्रंथि का विकार ज्ञात करने तथा ब्रेन ट्यूमर के उपचार में 1-131, रक्ताल्पता का रोग ज्ञात करने में Fe-59 का, कैंसर के उपचार में कोबाल्ट Co–60 का, कार्बन काल निर्धारण विधि C–14 द्वारा जीव (पौधे तथा जंतु) के अवशेषों (Fossils) का पता लगाने में तथा यूरेनियम काल निर्धारण विधि (U-238) द्वारा पृथ्वी तथा पुरानी चट्टानों की आयु का पता लगाया जाता है। इसके अतिरिक्त इनका उपयोग जंतु एवं पादपों में होने वाली रासायनिक अभिक्रियाओं में ट्रेसर की तरह किया जाता है। गामा किरणों का उपयोग कीटनाशकों के रूप में भी किया जा सकता है।

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