पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी Environment and Ecology
पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी की समस्या विश्व समुदाय के समक्ष एक चुनौती बनकर उभरी है । विश्व के सभी देश इस चुनौती से निपटने के लिए प्रयास कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इसके लिए अनेक कदम उठाए हैं । इस समस्या से निपटने के लिए भारत भी विश्व समुदाय के साथ कदम-से-कदम मिलाकर आगे बढ़ा रहा है । भारत का पर्यावरण एवं वन विभाग इस कार्य में उल्लेखनीय भूमिका अदा कर रहा है ।
विभाग देश के प्राकृतिक संसाधनों, जैसे-झील और नदियां, इसकी जैव-विविधता, वन्य और जीवन, जानवरों के संरक्षण को सुनिश्चित करना और प्रदूषण से बचाव व उसे समाप्त करने से संबंधित नीतियों व कार्यक्रमों का कार्यान्वयन करता है। इन नीतियों को लागू करते समय मंत्रालय सतत विकास और मनुष्यों के कल्याण से जुड़े सिद्धांतों के बारे में भी ध्यान रखता है। मंत्रालय को देश में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी), दक्षिण एशिया सहकारी पर्यावरण कार्यक्रम (एसएसीईपी), अन्तर्राष्ट्रीय समन्वित पर्वत विकास केन्द्र (आईसीआईएमओडी) के लिए केन्द्रीय एजेंसी के रूप में नामित किया गया है और यह संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन (यूनएनसीईडी) की अनुवर्ती कार्यवाही पर भी ध्यान देता है। इस मंत्रालय पर बहुपक्षीय निकायों, जैसे सतत विकास आयोग (सीएसडी), विश्व पर्यावरण सुविधा (जीईएफ) और पर्यावरण से जुड़ी क्षेत्रीय इकाइयां, जैसे- एशिया और प्रशांत सामाजिक और आर्थिक परिषद् (ईएससीएपी) और दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन से संबंधित मामलों का भी उत्तरदायित्व है।
परिचय |
पर्यावरण वास्तव में दो शब्दों से मिलकर बना है,परि + आवरण अर्थात् हमारे चारों तरफ का वातावरण। इस वातावरण में सभी अवयवों में एक खास संतुलन होता है। पर्यावरण संरक्षण की शुरूआत 1948 में द इंटरनेशनल यूनियन फॉर कजर्वेशन ऑफ नेचर एंड नेचुरल रिसोर्सेज की स्थापना द्वारा की गई थी। इसके बाद सम्मेलन (पेरिस-1968), मानव पर्यावरण सम्मेलन (स्टॉकहोम-1972), पृथ्वी शिखर सम्मेलन (रियो डि जेनेरो–1992), विश्व जलवायु सम्मेलन (क्योटो-1997), बाली सम्मेलन (2007) स्टॉकहोम सम्मेलन (2009) सहित दर्जनों अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में पर्यावरण संरक्षण पर बहस हुई तथा पर्यावरण संरक्षण हेतु अनेक प्रावधान बनाए गए। 5 जून, 1972 को स्टॉकहोम में हुए प्रथम मानव पर्यावरण सम्मेलन में ही 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस घोषित किया गया। पर्यावरण से संबंधित समस्याओं और मसलों पर भारत सरकार ने चौथी पंचवर्षीय योजना के दौरान विशेष ध्यान देते हुए, 1972 में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के तहत राष्ट्रीय पर्यावरण आयोजना एवं समन्वय समिति (NCEPC) का गठन किया। संवैधानिक प्रावधान · जनसाधारण के प्रति जागरूकता लाने के लिये 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा नीति निदेशक तत्व के अंतर्गत, अनुच्छेद 48ए तथा मूल कर्तव्यों के अंतर्गत अनुच्छेद 51ए (छ) में प्रावधान किए गए। · अनुच्छेद 48ए-राज्य, देश के पर्यावरण की संरक्षा तथा उनमें सुधार करने का और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा। अनुच्छेद 51ए (छ)प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करें और उसका संवर्द्धन करें तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखें। |
जीव-जंतु
भारतीय प्राणी विज्ञान सर्वेक्षण (जेड एस आई) देश के लिए उस तरह के सर्वेक्षण, खोज और अनुसंधान में संलग्न है, जिससे देश की समृद्ध जंतु विविधता के ज्ञान में वृद्धि हो। वर्ष 1916 में स्थापित जेड एस आई का मुख्यालय कोलकाता में है और देश के विभिन्न भागों में इसके 16 क्षेत्रीय केन्द्र है। भारतीय प्राणी विज्ञान ने हाल ही के वर्षों में अपने सर्वेक्षणों और अध्ययन को पांच प्रमुख कार्यक्रमों में समन्वित कर अपनी कार्य योजना को पुनर्गठित किया है।
ये कार्यक्रम हैं- (1) राज्यों में जीव जन्तुओं की स्थिति (2) संरक्षित क्षेत्रों के जीव जन्तु (3) महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी के जीव जन्तु (4) लुप्त हो रही प्रजातियों के सर्वेक्षण की स्थिति और (5) पारिस्थितिकी अध्ययन/पर्यावरण प्रभाव का अध्ययन।
जेड एस आई ने वर्ष 2005/06 के दौरान देश के विभिन्न राज्यों/केन्द्रशासित प्रदेशों में एक सौ एक व्यापक जीव-जन्तु चुनिंदा संरक्षित/सुरक्षित क्षेत्र शामिल हैं। तिब्बती जंगली गधा और लद्दाख के हिमालयी हिम मूषक पर दो सर्वेक्षण किए गए। राष्ट्रीय जीव/जन्तु संग्रह में 592 प्रजातियों के 11295 जन्तुओं को जोड़ कर इसे और अधिक समृद्ध किया। प्रेरोमडी वर्ग, यूरीटोमिडी वर्ग और डेफ्नीडी वर्ग के अनेक जन्तुओं को नए खाद्य पदार्थों के रूप में खोजा गया। मरुस्थल पारिस्थितिकी, अक्षार जल/आर्द्र भूमि पारिस्थितिकी तथा तटवर्ती/समुद्री पारिस्थितिकी का अध्ययन किया। गया। इसके अतिरिक्त दक्षिणी-पूर्वी तट की पुलीकट झील की मौसमी विविधता तथा जीव-जन्तुओं की सरंचना पर अध्ययन से जूप्लांकटन के सात वर्ग, मोलस्का की 15 प्रजातियों की छह प्रजातियां निर्धारित की गयीं।
प्रजाति जो पीरेनीमेटेसी वर्ग की है, महाराष्ट्र से एपोसाइनेर्स वर्ग तथा सिक्किम से एरीकसी वर्ग के पौधे उत्तरांचल से 93 वर्ष बाद, महाराष्ट्र से 50 वर्ष बाद और सिक्किम से 30 वर्ष बाद संग्रहित किए गए।
वन
भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) पर्यावरण मंत्रालय के अन्तर्गत कार्य करने वाला ऐसा संगठन है, जो देश के वन क्षेत्रों और वन संसाधनों से संबंधित सूचना एवं आकडे एकत्र करता है। इसके अलावा प्रशिक्षण, अनुसंधान एवं विस्तारण का कार्य भी यह संगठन करता है। एफएसआई देश के लिए विस्तृत स्टेट ऑफ फारेस्ट रिपोर्ट (एसएफआर) है। यह हर दो वर्षों में राष्ट्रीय वनस्पति नक्शे (एनवीएम) भी तैयार करता है। एफएसआई हर दस वर्ष बाद विषय केन्द्रित नक्शे भी बनाता है। इन नक्शों के लिए राज्य सरकारों की ओर से जांच की जाती है। इस संगठन का मुख्यालय देहरादून में है। जिसको वन अनुसंधान संस्थान (FRI) के रूप में जानते हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण की अन्य गतिविधियों में-(i) उपग्रह के द्वारा लिए गए चित्रों के माध्यम से वनस्पति नक्शे और विषय केन्द्रित बनाना (2) वन क्षेत्रों की जांच (3) बढ़ने वाले स्टॉक और आकार का मूल्यांकन (4) कुछ चुने हुए राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों की वन सूची तैयार करना (5) राज्यों के विभिन्न स्तरों पर वन विभाग के कर्मचारियों व वन रक्षकों को आधुनिक वन सरंक्षण तकनीकों का प्रशिक्षण देना (6) क्षेत्रीय एनबीएफआईएस के विकास के लिए राज्यों/केन्द्रशासित प्रदेशों को परामर्श देना (7) राज्यों के वन विभागों द्वारा चलाई जा रही तकनीकों और सूची का निरीक्षण एवं सहायता करना भी शामिल हैं।
पर्यावरण मंत्रालय वन उत्पादों पर नीति निर्देश तैयार करेगा। मंत्रालय ने प्रयुक्त दरों और आयात शुल्कों के अध्ययन पर एक केन्द्रीय दल की स्थापना भी की है जिससे वस्तुओं के आयात, जिनमें वन उत्पाद शामिल हैं, के अध्ययन के साथ-साथ विश्व व्यापार संघ के साथ समझौते के अन्तर्गत वरीयता व्यापार संधि, मुक्त व्यापार संधि से संबंधित बहुपक्षीय/द्विपक्षीय व्यापार वार्ताएं आदि का अध्ययन किया जा सकेगा।
संरक्षण
जैवमंडल आरक्षित क्षेत्र
जैवमंडलीय आरक्षित क्षेत्र स्थलीय और तटीय पारिस्थितिकी प्रणाली में आनुवंशिक विविधता बनाए रखने वाले बहुउद्देशीय क्षेत्र हैं। यूनेस्को के मानव और जैवमंडल (एमएबी) कार्यक्रम के तहत इस क्षेत्र को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली है। यूनेस्को द्वारा तैयार जैवमंडलीय आरक्षित क्षेत्र के विश्वव्यापी ढांचे में शामिल होने के लिए आरक्षित क्षेत्रों को कुछ निश्चित शर्तों और कुछ न्यूनतम मानकों को पूरा करना पड़ता है। इसके अन्तर्गत विश्व की प्रमुख पारिस्थितिकी प्रणालियां और भू-दृश्य (लैंडस्केप) आते हैं। इसका उद्देश्य प्रमुख भू-दृश्यों के संरक्षण और पौधों, जीव जन्तुओं तथा सूक्ष्म जीवों की विविधता तथा संपूर्णता को बनाए रखना। सांस्कृतिक विरासत, सांस्कृतिक और पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी विज्ञान को बनाए रखने वाली आर्थिक और मानव विकास से संबंधित गतिविधियों को प्रोत्साहन देना और शिक्षा, सूचना का आदान-प्रदान, अनुसंधान, निगरानी और प्रशिक्षण देना है। अब तक 14 जैवमंडलीय आरक्षित क्षेत्र स्थापित किए जा चुके हैं। ये आरक्षित क्षेत्र हैं: नीलगिरी, नंदादेवी, नोकरेक, ग्रेटनिकोबार, मन्नार की खाड़ी, मानस, सुंदरवन, सिमलीपाल, डिब्रू, दैखोवा, देहंग देबंग, पंचमढ़ी, कंचनजंघा और अगस्तमलइ और मार्च 2005 में घोषित अचानकमार-अमरकंटक। 14 जैवमंडलीय आरक्षित क्षेत्रों में से 4 को यूनेस्को जैवमंडलीय आरक्षित क्षेत्र के विश्व नेटवर्क पर मान्यता प्रदान की गयी है। ये 4 क्षेत्र हैं, नीलगिरी, सुंदरवन, मन्नार की खाड़ी और उत्तरांचल का नंदा देवी (अक्टूबर 2004 में सम्मिलित)।
आर्द्रभूमि
आर्द्रभूमि वह भूक्षेत्र है, जो शुष्क और जलीय इलाके से लेकर कटिबंधीय मानसूनी इलाके में फैली है और जहां उथले पानी की सतह से भूमि ढकी रहती है। यह क्षेत्र बाढ़ नियन्त्रण से प्रभावी है और तलछट कम करती है। ये क्षेत्र शीतकाल के लिए पक्षियों और जीव-जन्तुओं के शरणगाह हैं। विभिन्न प्रकार की मछलियों और जंतुओं के प्रजनन के लिए भी यह उत्तम क्षेत्र है। इनमें समुद्री तूफान और अंधड़ के प्रभाव को सहन करने की उच्च क्षमता होती है। यह समुद्री तटरेखा को स्थिर करती है और समुद्र द्वारा होने वाले कटाव से तटबंध की रक्षा करती है। इसके अलावा शैक्षणिक और वैज्ञानिक दृष्टि से भी आर्द्रभूमि बहुमूल्य हैं। इनमें हमें टिकाऊ लकड़ी, जलावन, जानवरों का पौष्टिक चारा वनस्पति और जड़ी-बूटियां मिलती हैं।
आर्द्रभूमि की पहचान निम्नलिखित तीन तत्वों पर निर्भर करती है-
- जब कोई क्षेत्र स्थायी रूप से या समय-समय पर जलमग्न रहता है।
- जब कोई क्षेत्र हाइड्रिक जल में पैदा होने वाली वनस्पतियों के बढ़ने में मददगार होता है।
- जब किसी क्षेत्र में हाइड्रिक मिट्टी के लम्बे समय तक संकुचित रहने से ऊपरी परत निरक्षेप हो जाती है।
इन मानदंडों पर रामसर सम्मेलन में दलदली भूमि वाले क्षेत्र, जलभरण वाले इलाके, शुष्क प्रदेश, समुद्री तटबंध क्षेत्र और 6 मीटर से कम ज्वार वाले क्षेत्रों को आर्द्रभूमि के रूप में परिभाषित किया गया है। इसके अन्तर्गत कच्छ वनस्पतियां, प्रवाल, नदी-मुहाना, के संरक्षण के लिए मंत्रालय द्वारा 1987 से एक कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य आर्द्रभूमि से प्राप्त संसाधनों का अनुमान, देश के लिए आर्द्रभूमि की महत्ता, अनुसंधान एवं विकास गतिविधियों को बढ़ावा देना और इस समय 22 राज्यों में चिन्हित किए गए 66 आर्द्रभूमि क्षेत्रों के लिए कार्य योजनाओं को बनाना और उन्हें लागू करना है। इस कार्यक्रम में राज्यों के आर्द्रभूमि संरक्षण से सम्बन्धित विभागों से सदस्य लिए गए हैं।
हाल ही में इस कार्यक्रम के पैमाने में एक महत्वपूर्ण और बड़ा विस्तार हुआ, जब राष्ट्रीय आर्द्रभूमि संरक्षण कार्यक्रम में शामिल किए जाने वाले आर्द्रभूमि क्षेत्रों की संख्या 21 राज्यों में 71 हो गयी, जबकि 1987 में इनकी संख्या 21 थी।
कच्छ वनस्पतियां
मैंग्रोव विश्व के उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों की क्षार-सह्य वानिकी पारिस्थितिकी व्यवस्था है। ये बड़ी तादाद में पौधों और जीव-जन्तुओं की ऐसी प्रजातियों के संग्रहण क्षेत्र हैं, जो लम्बे विकास क्रम में आपस में सम्बद्ध रहे हैं और जिनमें क्षार सहन करने की उल्लेखनीय क्षमता है। ये समुद्री तटरेखा को स्थिर करती है और समुद्र द्वारा हो रहे कटाव से तटबंध की रक्षा करती है। कच्छ वनस्पतियां समूचे भारतीय समुद्र तट पर परिरक्षित मुहानों, ज्वारीय खाड़ियों, पश्च जल (बैक वाटर) क्षार दलदलों और दलदली मैदानों में पाई जाती हैं। ये धारणीय मत्स्य क्षेत्र का संवर्धन भी करती हैं। हाल में कमजोर कच्छ वनस्पति पारिस्थितिकी को मानवीय और जैविक दबाव सहन करना पड़ा, जिससे जैव विविधता का नुकसान हुआ और जीव जन्तु तथा उनके प्रवास का मार्ग प्रभावित हुआ है। पर्यावरण मंत्रालय 1987 से कच्छ वनस्पति संरक्षण कार्यक्रम चला रहा है। इससे कच्छ वनस्पति संरक्षण और प्रबंध योजना के अन्तर्गत 38 कच्छ वनस्पति क्षेत्रों की पहचान की गयी है। राष्ट्रीय कच्छ वनस्पति व प्रवाल भित्ति समिति की अनुशंसा और उनके अनूठे पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता के आधार पर इन कच्छ वनस्पति क्षेत्रों की पहचान की गयी है। प्रबंधन कार्ययोजना (एमएपी) के तहत कच्छ वनस्पति को बढ़ाने, बचाने, प्रदूषण की रोकथाम, जैव विविधता संरक्षण, सर्वेक्षण, सीमांकन और इनके बारे में लोगों को जागरूक और शिक्षित करने इत्यादि के लिए केन्द्र शतप्रतिशत सहायता देता है। इसके अलावा केन्द्र, शोध और विकासात्मक गतिविधियों के जरिये भी इनकी सहायता करता है। देश में 32 वर्गों और 28 समूहों में कच्छ वनस्पति की 69 प्रजातियां पाई जाती हैं। यही नहीं, भारत दुनिया के उन थोड़े से देशों में से एक है, जहां कुछ कच्छ वनस्पतियों की सर्वश्रेष्ठ प्रजातियां पाई जाती हैं। मंत्रालय ने उड़ीसा में राष्ट्रीय कच्छ वनस्पति आनुवांशिक संसाधन केन्द्र स्थापित किया है। दो कच्छ वनस्पतियां भारत में लुप्त होने के कगार पर हैं। इनमें से एक है तमिलनाडु के पिचावरम में पाई जाने वाली राइजोफोरा अन्नामलायना और दूसरी है, उड़ीसा के भितरकनिक में पाई जाने वाली हेरोटेरिया कनिकसिस। यूनेस्को के जैवमंडलीय आरक्षित क्षेत्रों की विश्व सूची में पश्चिम बंगाल के सुंदरवन को भी शामिल किया गया है। यह देश का सबसे बड़ा कच्छ वनस्पति क्षेत्र है।
प्रवाल भितिया (कोरल रीफ्स)
प्रवाल भित्तियां (मूंगें की चट्टानें) उथले पानी की कटिबंधीय सामुद्रिक पारिस्थितकी प्रणालियां होती हैं। उच्च जैव मास उत्पादन और समृद्ध वनस्पति व जीव-जन्तुओं की विविधता इनकी विशेषता होती है। भारतीय उपमहाद्वीप में इन प्रवाल भित्तियों को प्रतिबंधित क्षेत्रों के पूर्वी और पश्चिमी तटों के साथ बांटा गया है। मन्नार की खाड़ी और पाक की खाड़ी में तथा अंडमान निकोबार द्वीप समूह में प्रवाल भितियां पाई जाती हैं। प्लेटफार्म (प्रिजिंग) भित्तियां कच्छ की खाड़ी और एटॉल भित्तियां लक्षद्वीप में पाई जाती हैं। संरक्षा और प्रबंधन के लिए चार प्रवाल भित्तियों की पहचान की गयी है। ये हैं- मन्नार की खाड़ी, अंडमान व निकोबार समूह, लक्षद्वीप समूह और कच्छ की खाड़ी। मंत्रालय ने हिन्द महासागर में अन्तर्राष्ट्रीय कोरल रीफ इनिशिएटिव (आईसीआरआई) और वैश्विक कोरल रीफ निगरानी तंत्र (जीसीआरएमएल) और कोरल रीफ डी-ग्रेडेड कार्रवाई को केन्द्र बिन्दु भी माना है। यूनेस्को के जैव मंडलीय आरक्षित क्षेत्रों की विश्व सूची में तमिलनाडु के मन्नार की खाड़ी के प्रवाल भित्ति क्षेत्र को भी शामिल कर लिया गया है।
कच्छ वनस्पतियों और प्रवाल भित्तियों की राष्ट्रीय समिति ने अंडमान निकोबार, लक्षद्वीप, कच्छ और मन्नार की खाड़ी, इन क्षेत्रों में गहन संरक्षण और प्रबंधन की सिफारिश की थी।
जैव विविधता
सजीव संघटकों में परिवर्तनशीलता और पारिस्थितिकी जटिलता है, जिनमें प्रजातियों और पारिस्थितिकी प्रणाली के अन्तर्गत और उनके बीच की विविधता शामिल है। खाद्य, औषधि और उद्योगों में होने वाली खपत का जैविक विविधता से सीधा सम्बन्ध है। भारत विश्व के उन 17 विशाल जैविक विविधता वाले देशों में शामिल है, जहां दुनिया के 60 से 70 प्रतिशत जैव विविधता है।
भारत ने 18 फरवरी, 1994 को जैविक विविधता संबंधी अन्तर्राष्ट्रीय संधि (सीबीडी) का समर्थन किया और उसी वर्ष मई में उसका सदस्य बना। जैव विविधता के संरक्षण और सतत उपयोग को बढ़ावा देने हेतु यह संधि एक अन्तर्राष्ट्रीय कानून का काम करती है और विकसित तथा विकासशील देशों के बीच इनकी लागत और लाभ का बंटवारा सुनिश्चित करने के साथ-साथ स्थानीय लोगों द्वारा की जा रही पहल को भी प्रोत्साहित करती है।
जैव विविधता के संरक्षण से संबंधित मामलों को देखने के लिए बनाई गयी एजेंसियों में समन्वय सुनिश्चित करने के लिए एक जैव विविधता संरक्षण योजना तैयार की गयी है। इस योजना के अन्तर्गत इनकी समीक्षा, निगरानी और विकास शामिल है। योजना के तहत उठाये गये कदमों में निम्न प्रमुख हैं:
- प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहने वाले लोगों के जीवनयापन और पारिस्थितिकी सुरक्षा से संबंधित दस्तावेजों को तैयार करने के लिए एक व्यापक राष्ट्रीय जैविक-विविधता कार्यनीति और कार्ययोजना (एनवीएसएपी) तैयार की गयी है। इसका मुख्य उद्देश्य जैव-विविधता का संरक्षण और उसके सतत उपयोग के लिए एक राष्ट्रीय योजना बनाना है। एनबीएसएपी कार्ययोजना पर एक रिपोर्ट मंत्रालय को पेश की गयी है। यह रिपोर्ट कार्ययोजना (एनएपी) तैयार करने में प्रयुक्त की जाएगी।
- जैव विविधता अधिनियम, 2002 के अन्तर्गत 1 अक्टूबर, 2003 को गजट अधिसूचना के अनुसार चेन्नई में एक राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण स्थापित किया गया है। इस अधिनियम में जैव विविधता में संरक्षण से संबंधित किसी भी मामले को देखने के लिए राज्य स्तरीय बोर्ड और स्थानीय जैव विविधता प्रबंधन समितियों को स्थापित करना भी शामिल है।
- जैव विविधता से समृद्ध 17 देशों जैसे-बोलिविया, ब्राजील, चीन, कोलम्बिया, कोस्टारिका, कांगो गणतंत्र, इक्वेडोर, भारत, इंडोनेशिया, कीनिया, मेडागास्कर, मलेशिया, मैक्सिको, फिलीपींस, दक्षिण अफ्रीका और वेनेजुएला ने मिलकर वृहत विविधता वाले लाइक माइंडेड मेगाडाइवर्सि कट्रीज (एलएमएससी) नाम से एक संगठन बनाया है। इस संगठन के अन्तर्गत विश्व की लगभग 70 प्रतिशत जैव विविधता आती है और इस संगठन को संयुक्त राष्ट्र और अन्य अन्तर्राष्ट्रीय मंचों में मान्यता प्राप्त है। भारत मार्च, 2004 से मार्च, 2006 तक एलएमएमसी का अध्यक्ष रह चुका है।
- जैव सुरक्षा पर कार्टागेनी संधि जीव विज्ञान विविधता (बायोलॉजिकल डाइवर्सिटी) पर हुए सम्मेलन के तत्वाधान में सजीव परिष्कृत संघटकों (लीविंग मॉडीफाईड आर्गेनिज्म) के इस्तेमाल, संचालन और सुरक्षित स्थानांतरण की दिशा में पहला अन्तर्राष्ट्रीय विनियामक समझौता है।
इसके अलावा मंत्रालय ने कुछ अन्य योजनाएं भी क्रियान्वित की हैं, जैसे-टेक्सोनॉमी में क्षमता विकास पर अखिल भारतीय समन्वित कार्ययोजना (एआईसीओपीटीएएक्स), वनस्पति उद्यानों को सहायता तथा औषधीय पौधों का संरक्षण।
वन संरक्षण
वन पुनरोपयोगी संसाधन हैं और ये आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। पर्यावरण को सुधारने में भी वनों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। देश का 6,78,333 वर्ग कि.मी. क्षेत्र वन क्षेत्र है, जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का 20.64 प्रतिशत है। इनमें से सघन वन 51,285 वर्ग कि.मी. (1.56 प्रतिशत), औसत घने वन 3,39,279 वर्ग कि.मी. (10.32 प्रतिशत) और खुले वन 2,87,669 वर्ग कि.मी. (8.76 प्रतिशत) क्षेत्र में फैले हैं। वर्ष 2001 के वन क्षेत्र की तुलना में वर्ष 2003 में कुल 2795 वर्ग कि.मी. वन क्षेत्र में वृद्धि हुई।
वन रिपोर्ट 2003 के अनुसार देश में कच्छ वनस्पतियां (मैंग्रोव) 4,461 वर्ग कि.मी. (0.14 प्रतिशत) में पाई जाती है। अत्यधिक सघन कच्छ वनस्पतियों का क्षेत्रफल 1.162 वर्ग कि.मी. (26.05 प्रतिशत), कम सघन कच्छ वनस्पतियों का क्षेत्रफल 1,657 वर्ग कि.मी. (37.14 प्रतिशत) और खुली कच्छ वनस्पतियों का क्षेत्रफल 1642 वर्ग कि.मी. (36.81 प्रतिशत) है। देश में कुल वृक्ष-आच्छादित क्षेत्रफल 99,896 वर्ग कि.मी. है। (70 प्रतिशत आच्छादित राष्ट्रीय क्षेत्र को साथ) जो देश को कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 3.04 प्रतिशत है।
वन नीति और कानून
भारत उन कुछ देशों में से है जहां 1894 से ही वन नीति लागू है। इसे 1952 और 1988 में संशोधित किया गया। संशोधित वन नीति का मुख्य आधार वनों की सुरक्षा, संरक्षण और विकास है। इसके मुख्य लक्ष्य हैं:
- पारिस्थितिकीय संतुलन के संरक्षण और पुनस्थापना द्वारा पर्यावरण संतुलन को बनाए रखना।
- प्राकृतिक संपदा का संरक्षण।
- नदियों, झीलों और जलाशयों के संग्रहण क्षेत्र में कटाव और वनों के क्षरण पर नियंत्रण।
- राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों तथा तटवर्ती क्षेत्रों में रेत के टीलों के विस्तार को रोकना।
- व्यापक वृक्षारोपण और सामाजिक वानिकी कार्यक्रम के जरिए वन-वृक्षों के आच्छादन में महत्वपूर्ण बढ़ोत्तरी करना।
- ग्रामीण और आदिवासी जनसंख्या के लिए ईंधन की लकड़ी, चारा तथा छोटी-मोटी वन उपज आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कदम उठाना।
- राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वन उत्पादों में वृद्धि।
- इन उद्देश्य की पूर्ति और वर्तमान वनों पर दबाव कम करने के लिए बड़े पैमाने पर आम जनता, विशेषकर महिलाओं का अधिकतम सहयोग हासिल करना।
राष्ट्रीय वन अधिनियम, 1927 के लागू होने के बाद वनीकरण के क्षेत्र में कई वैचारिक बदलाव आए। लिहाजा इस अधिनियम में सुधार की आवश्यकता महसूस की गयी। वनों और वन जीवन क्षेत्र के कामकाज की समीक्षा के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 7 फरवरी 2003 को राष्ट्रीय वन आयोग का गठन किया। इस आयोग का कार्यकाल 31 मार्च, 2006 तक बढ़ाया गया।
वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 के प्रावधानों के अन्तर्गत वन भूमि को गैर-वन भूमि में बदले जाने से पहले केन्द्र सरकार की अनुमति लेनी पड़ती है। क्षेत्रीय मुख्य वन संरक्षकों को पांच हैक्टेयर तक की वन भूमि को गैर-वन प्रयोजनों के लिए मंजूरी देने का अधिकार प्राप्त है, लेकिन इसमें उत्खनन व अवैध कब्जे को नियमित करने का अधिकार शामिल नहीं है। इन संरक्षकों को राज्य सलाहकार समूह के परामर्श से 5 से 20 हैक्टेयर तक की भूमि के मामलों पर विचार करने का भी अधिकार है। मंत्रालय ने वन संरक्षण नियमन, 2003 को अधिसूचित कर 1981 में पारित अधिनियम को संशोधित कर दिया है।
वन्य जीवन
राष्ट्रीय वन्य जीवन कार्ययोजना, वन्य जीवन संरक्षण को लिए कार्यनीति और कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत करती है। पहली वन्यजीवन कार्ययोजना, 1983 को संशोधित करके अब नई वन्य जीवन कार्ययोजना (2002-2016) स्वीकृत की गयी है। भारतीय वन्य जीवन बोर्ड, जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री हैं, वन्यजीवन संरक्षण की अनेक योजनाओं के क्रियान्वयन की निगरानी और निर्देशन करने वाला शीर्ष सलाहकार निकाय है। राष्ट्रीय वन्य जीवन बोर्ड (एनबीडब्ल्यूएल) की दूसरी बैठक नई दिल्ली में 17 मार्च, 2005 को माननीय प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई। बैठक में लिए गए प्रमुख निर्णयों में टाइगर टास्क फोर्स का गठन, अंतर्सीमा सुरक्षित क्षेत्र को लिए टास्क फोर्स का गठन, वन्य जीव सुरक्षा अधिनियम, 1972 की अनुसूचियों में शामिल वनस्पति और जीव जंतुओं की प्रजातियों में संशोधन के लिए समितियों की स्थापना, राष्ट्राध्यक्षों द्वारा वन्य प्राणियों को उपहारस्वरूप देने पर प्रतिबंध, जीव-जन्तुओं के लिए प्रयुक्त की जाने वाली औषधि डिक्लोफीनेक का चरणबद्ध तरीकों से प्रयोग समाप्त करना तथा वन्य जीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो का गठन करना। इस समय, संरक्षित क्षेत्र में 94 राष्ट्रीय उद्यान और 501 अभयारण्य आते हैं, जो एक करोड़ 56 लाख 70 हजार वर्ग कि.मी. में फैले हैं। वन्य जीव (सुरक्षा) अधिनियम, 1972 जम्मू एवं कश्मीर को छोड़कर (इसका अपना अलग अधिनियम है) शेष सभी राज्यों द्वारा लागू किया जा चुका है।
इस अधिनियम में वन्य जीव संरक्षण और विलुप्त होती जा रही प्रजातियों के संरक्षण के लिए दिशा निर्देश दिए गए हैं। दुर्लभ और लुप्त प्राय प्रजातियों के व्यापार पर इस अधिनियम के तहत रोक लगा दी गयी है। वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 तथा अन्य कानूनों की समीक्षा के लिए एक अन्तर्राज्यीय समिति गठित की गयी है। जंगल की लुप्त होती जा रही जैव व वनस्पतियों की प्रजातियों के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर आयोजित सम्मेलन में हुए समझौते आईटीईएस पर हस्ताक्षर करने वाले देशों में भारत भी है। लुप्त होती जा रही जीव प्रजातियों और उनके उत्पादों के आयात-निर्यात पर कठोर नियंत्रण आदेश, इस समझौते के अन्तर्गत दिये गए हैं। साइबेरियाई सारसों के संरक्षण से संबंधित संधि पर हस्ताक्षर करने वाले देशों में भारत भी है। केन्द्र द्वारा सभी राज्यों को राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के आसपास के क्षेत्रों का पारिस्थितिकी विकास, हाथियों का संरक्षण और असम के गैंडों के संरक्षण के लिए वित्तीय सहायता दी जाती है। विश्व सांस्कृतिक धरोहर समिति के डरबन में आयोजित 20वें सत्र के दौरान फूलों की घाटी राष्ट्रीय उद्यान, उत्तरांचल का नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान, उत्तरांचल, के भाग के रूप में विश्व धरोहर स्थलों में शामिल किया जाना, एकमत से अनुमोदित हुआ।
प्रोजेक्ट टाइगर परियोजना का आरंभ 1973 में हुआ था, जिसका उद्देश्य बाघों का सर्वांगीण रूप से संरक्षण करना था। इस उद्देश्य की पूर्ति विभिन्न राज्यों में स्थित रिजवों के व्यवस्थित, सम्मिलित प्रबंधन से हो रहा है। ये रिजर्व अंतर्भाग-प्रतिरोधक योजना के अनुरूप गठित किए गए थे, जिनमें तकनीकी सहायता को वित्तीय अनुदान दिया जाता है। जिसमें संरक्षण के लिए स्थानीय समुदाय का समर्थन प्राप्त करने के लिए अब 17 राज्यों में 28 बाघ पर्यावास हैं, जो 37,761 वर्ग कि.मी. में फैले हैं। बाघ पर्यावासों का पर्यवेक्षण विशेषज्ञों का एक पेनल कर रहा है जो संरक्षित क्षेत्र के विश्व आयोग के अनुरूप 45 मापदंडों का प्रयोग कर रहा है, जिनकी समीक्षा आयोग करता है।
फरवरी, 1992 में हाथी परियोजना भी शुरू की गयी है। इसके अन्तर्गत उन राज्यों को वित्तीय, तकनीकी और वैज्ञानिक सहायता दी जाती है जहां स्वतंत्र विचरण करने वाली जंगली हाथी रहते हैं। इसका उद्देश्य वंश चलाने में सक्षम हाथियों को उनके प्राकृतिक पर्यावासों में लम्बे समय तक बनाये रखना है। इस वर्ष के दौरान 14 हाथी अभयारण्य बनाये गए हैं। देश में चिड़ियाघर के प्रबंधन पर निगरानी के लिए केन्द्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण स्थापित किया गया है। यह देश के विभिन्न चिड़ियाघरों के कार्यकलापों का समन्वय करता है और वैज्ञानिक आधार पर जानवरों के आदान-प्रदान की देखरेख भी करता है। प्राधिकरण द्वारा तैयार चिड़ियाघरों पर राष्ट्रीय नीति, सरकार व अन्य चिड़ियाघर संचालकों का सही मार्गदर्शन करती है।
प्राणी कल्याण विभाग जुलाई, 2002 में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय का अंग बना। इससे पहले यह विभाग सांख्यिकीय तथा कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय को अन्तर्गत था। प्राणी कल्याण विभाग का कार्य जानवरों पर बेवजह की यंत्रणा पर रोक लगाना है। पशुओं पर होने वाली क्रूरता पर रोक संबंधी अधिनियम, 1960 में कई नियम और कानून बनाये गए हैं।
फरीदाबाद, बल्लभगढ़ में राष्ट्रीय प्राणी कल्याण संस्थान की स्थापना की गयी। यह संस्थान पशुओं के कल्याण और पशु रोग विज्ञान के लिए प्रशिक्षण और जानकारी देता है। पशुओं पर होने वाली क्रूरता संबंधी अधिनियम, 1960 के अन्तर्गत पशुओं के प्रति क्रूरता और हिंसा रोकने के लिए ही इस संस्थान की स्थापना की गयी है। इसी अधिनियम की धारा 4 के अन्तर्गत भारतीय प्राणी कल्याण बोर्ड (एडब्ल्यूबीआई) एक वैधानिक निकाय है जिसका मुख्यालय चेन्नई में है। बोर्ड का मूल उत्तरदायित्व जानवरों के कल्याणकारी मामलों पर सरकार को परामर्श देना और जानवरों के कल्याण के लिए जागरूकता फैलाना है। बोर्ड पशुशरणगृहों के निर्माण के लिए कार्य कर रहे संगठनों, बायोगैस संयंत्र लगाने के लिए आदर्श गोशालाओं, दुर्भिक्ष व सूखा राहत, भूकम्प राहत इत्यादि के लिए विभिन्न राज्यों को वित्तीय मदद भी मुहैया कराता है। इस वर्ष के दौरान बोर्ड द्वारा पंजीकृत पशु कल्याणकारी संगठनों की संख्या 2152 तक पहुंच गयी है। अब तक 26 राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों ने अपने यहां राज्य पशु कल्याण बोर्ड का गठन किया है।
पर्यावरण प्रभाव आकलन
दीर्घकालिक विकास और प्राकृतिक संसाधनों के इष्टतम उपयोग के लिए विकास परियोजनाओं के नियोजन, अभिकल्पन और क्रियान्वयन के साथ पर्यावरण संबंधी पक्षों को एकीकृत करना आवश्यक है। इसके लिए पर्यावरण संबंधी प्रभाव आकलन (ईआईए) एक जांचा परखा कार्यक्रम है। जिससे विकास प्रक्रिया में पर्यावरण को प्रभावित करने वाले तत्वों और इस सम्बन्ध में लेने वाले निर्णयों के लिए मदद मिलती है। मंत्रालय ने करीब दो दशक पहले नदी घाटी परियोजना के आकलन के साथ पर्यावरण प्रभाव आकलन कार्यक्रम शुरू किया था। जनवरी, 1994 में अधिसूचना जारी कर व संचार आदि विभिन्न क्षेत्रों की विकास परियोजनाओं के लिए इस कार्यक्रम को अनिवार्य बना दिया गया। पर्यावरण प्रभाव आकलन की प्रक्रिया को वैधानिक बनाने के लिए पर्यावरण प्रभाव आकलन को विकास की 32 श्रेणियों के लिए आवश्यक बना दिया गया। पर्यावरण प्रभाव आकलन के क्षेत्र में हो रहे विकास कार्य को देखते हुए एक प्रश्नमाला का प्रकाशन किया गया है, जो केन्द्र और राज्य स्तरीय आकलन एजेंसियों और निर्याणकों के लिए भी उपयोगी है। मंत्रालय ने प्रक्रिया के सरलीकरण, जन सुनवाई और विशेषज्ञ समूहों की नियमित बैठकों इत्यादि के जरिए आकलन प्रक्रिया को कारगर बनाने के लिए विभिन्न तरह की गतिविधियां भी शुरू की हैं। इन गतिविधियों के परिणामस्वरूप विकास परियोजनाओं से संबंधित फैसले जल्दी ले लिए जाते हैं। सभी विशेष समूहों, समितियों और कार्यबलों की सलाह पर पर्यावरण प्रभाव आकलन और तटवर्ती नियमन जोन अधिसूचनाओं में कुछ संशोधन किए गए हैं। पारदर्शिता सुनिश्चित करने, वनों की स्थिति और पर्यावरण संबंधी मंजूरी के लिए फरवरी, 1999 में http:// envfor.nic.in नाम से एक वेबसाइट शुरू की गयी। परियोजनाओं को देखते हुए कुछ सुरक्षा संबंधी उपायों की संस्तुति भी की जाती है। इन उपायों पर समयबद्ध क्रियान्वयन और निगरानी के लिए मंत्रालय ने छह क्षेत्रीय कार्यालय (शिलांग, भुवनेश्वर, चंडीगढ़, बंगलौर, लखनऊ और भोपाल में) भी स्थापित किए हैं। मंत्रालय ने समय-समय पर ईआईए अधिसूचना संशोधन लाकर और नीतिगत तकसंगत बनाने का प्रयास किया है।
प्रदृषण नियंत्रण
वायु और जल के दिन-प्रतिदिन प्रदूषित होने, वाहनों के बढ़ते उत्सर्जन और अत्यधिक ध्वनि प्रदूषण की स्थिति को देखते हुए वन और पर्यावरण मंत्रालय ने प्रदूषण-निवारण के लिए एक नीति पारित की है। इसमें विनियमनों, कानूनों, स्वैच्छिक अनुबंधों, वित्तीय प्रोत्साहनों और अन्य उपायों के रूप में बहुकोणीय रणनीतियों का प्रावधान है। समय के साथ-साथ प्रदूषण नियंत्रण संबंधी गतिविधियों का मुख्य जोर बेहतर और कम कचरा पैदा करने वाली प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहन, गन्दे पानी को फिर से इस्तेमाल करने योग्य बनाने, जल की गुणवत्ता में सुधार, पर्यावरण समीक्षा, प्राकृतिक संपदा का लेखा-जोखा, संसाधन व मानव संसाधन विकास आदि पर है। प्रदूषण नियंत्रण के लिए पर्यावरण संबंधी उपायों और नीतियों को और प्रभावी बनाने के लिए विभिन्न कदम उठाए गए हैं। इनमें कानून को और सख्त बनाना, पर्यावरण सम्बन्धी मानकों में सुधार, वाहनों से होने वाले उत्सर्जन पर नियंत्रण लगाना, पर्यावरणीय प्रबंधन के तहत औद्योगिक क्षेत्रों और जोनों के नक्शे तैयार करना इत्यादि शामिल है। इसीलिए साफ और कम कचरा पैदा करने वाली प्रौद्योगिकी के तहत ऐसी तकनीकों और रणनीतियों को प्रोत्साहन दिया जाता है।
पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम, 1986 करे अन्तर्गत अप्रैल, 1993 में जारी कर एक गजट अधिसूचना के जरिए जल (प्रदूषण-नियंत्रण व रोकथाम) अधिनियम, 1974 या वायु (प्रदूषण-नियंत्रण व रोकथाम) अधिनियम, 1981 या दोनों के तहत मंजूरी और खतरनाक अपशिष्ट (प्रबंधन व निर्वाह) नियम, 1989 के तहत प्रदूषण उत्पन्न करने वाली लाइसेंस की इच्छुक इकाइयों के लिए पर्यावरण संबंधी वक्तव्य पेश करना अनिवार्य बना दिया गया है। पर्यावरण संबंधी लेखा-जोखा रखने का मुख्य लाभ यह है कि इससे कानूनों, प्रतिमानों, विनियमनों और कम्पनी नीतियों के अनुपालन में कम लागत आती है।
प्रदूषण में कमी लाने के लिए नीतिगत वक्तव्य में प्रदूषण प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहन देने पर जोर दिया जाता है। निवारक योजनाओं के जरिए औद्योगिक प्रदूषण को कम करने के लिए लघु उद्योग क्षेत्रों में कचरा न्यूनीकरण परिक्षेत्रों की स्थापना व संचालन करने, स्वच्छ उत्पादन वाले क्षेत्रों की क्षमता बढ़ाने, चुनिंदा औद्योगिक सेक्टरों में मानक इकाइयों की स्थापना करने इत्यादि के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जा रही है। लघु उद्योगों को 41 समूहों में 118 व्यर्थ पदार्थ घटाने वाले मंडल (डब्ल्यूएमसी) स्थापित किए गए हैं, जो स्वच्छ उत्पादन के क्षेत्र में क्षमता निर्माण में सहायक होंगे। पर्यावरण सम्बन्धी लेखा-जोखा सुलभ कराने वाले उद्योगपति और परामर्शदाताओं के लाभ के लिए एक परियोजना भी प्रायोजित की गयी है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों/प्रदूषण नियंत्रण समितियों और अन्य संस्थाओं के सहयोग से देश के 28 राज्यों/संघ शासित प्रदेशों में 326 परिवेशी वायु गुणवत्ता निगरानी स्टेशनों की स्थापना की है, जो परिवेशी वायु की गुणवत्ता पर निगरानी रखते हैं। इसके मुख्य उद्देश्य हैं—(1) यह पता लगाना कि अधिसूचित परिवेशी वायु गुणवत्ता मानकों का पालन हो रहा है या नहीं, (2) विभिन्न स्रोतों से होने वाले प्रदूषण को नियंत्रित व समंजित करना (3) प्रदूषण अवमिश्रण, विसर्जन, वायु आधारित संचालन, सूखा निक्षेपण, अवक्षेपण और प्रदूषण पैदा करने वाले कारकों के रासायनिक रूपांतरण के जरिये पर्यावरण में होने वाली प्राकृतिक स्वच्छता प्रक्रिया को समझना (4) स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों का पता लगाना।
राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता निगरानी कार्यक्रम एन.ए.एम.पी. के अन्तर्गत चार वायु प्रदूषकों के रूप में, सल्फर डाई ऑक्साइड (So2), नाइट्रोजन ऑक्साइड (NO2), स्थगित विविक्त पदार्थ (ससपेंडेड पार्टिकुलेट मैटर), (एस.पी.एम.) और अंतःश्वसनीय स्थगित विविक्त पदार्थ (रिस्पाइरेवल संस्पेंडिड पार्टिकुलेट मैटर) के रूप में सभी स्थानों पर नियमित निगरानी के लिए पहचान की गयी है। इसके अलावा अंत: श्वसनीय सीसा व अन्य विषैले पदार्थ और बहुचक्रीय गंधीय हाइड्रोकार्बन पर निगरानी रखी जा रही है। सीपीसीबी ने 72 प्रदूषित नगरों की सूची तैयार की है, जहां राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानदंडों का उल्लंघन हो रहा है।
शहरी परिवेशी वायु गुणवत्ता में ह्रास का मुख्य कारण वाहनों से निकलने वाला उत्सर्जन है। इसलिए वन और पर्यावरण मंत्रालय वाहन प्रदूषण नियंत्रण से सम्बन्धित मंत्रालयों भूतल परिवहन मंत्रालय, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय और उद्योग मंत्रालय इन मंत्रालयों से सम्बद्ध निकायों/संगठनों के साथ मिलकर ऑटोमोबाइल तकनीक में सुधार, तेल की गुणवत्ता में सुधार, शहरी नागरिक परिवहन व्यवस्था में सुधार और एकीकृत यातायात प्रबंधन आदि क्षेत्रों में काम करता है। वाहनों के लिए समय-समय पर सकल उत्सर्जन मानक जारी किए जाते हैं। ऑटो ईंधन नीति के अनुसार नए वाहनों के लिए भारत-II मानक समस्त देश में 1 अप्रैल, 2005 से लागू किया है। लेकिन, दोपहिया और तिपहिया वाहनों को छोड़कर नये वाहनों के लिए यूरो-III मानक को 11 नगरों में 1 अप्रैल, 2005 से लागू किया गया है। भारत-II, यूरो-III और यूरो V उत्सर्जन मानकों की पूर्ति के लिए, उतनी गुणवत्ता का पेट्रोल और डीजल उपलब्ध कराया जा रहा है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड
वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के अन्तर्गत एक स्वायत्त संस्था है। जल (प्रदूषण नियंत्रण व रोकथाम) अधिनियम, 1974 के प्रावधानों के अन्तर्गत सितम्बर, 1974 में बोर्ड की स्थापना की गयी। यह राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों और प्रदूषण नियंत्रण समितियों की गतिविधियों को समन्वित करता है। साथ ही, पर्यावरण सम्बन्धी प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण से सम्बन्धित सभी मामलों पर केन्द्र सरकार को सलाह देता है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, राज्य प्रदुषण बोर्ड और प्रदूषण समितियां ये सभी संस्थान प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण से सम्बन्धित कानूनों और नियमों के क्रियान्वयन के लिए उत्तरदायी हैं। ये वायु, जल और ध्वनि के स्तर को तय करने वाले मानकों से सम्बन्धित नियम और कानून भी बनाते हैं। यह बोर्ड पर्यावरण (सरंक्षण) अधिनियम, 1986 के प्रावधानों को लागू करने के लिए वन और पर्यावरण मंत्रालय को तकनीकी सेवाएं भी प्रदान करता है।
अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों के 17 वगों की पहचान कर ली गयी है। ये हैं-सीमेंट, ताप-बिजली संयंत्र, शराब बनाने वाले कारखाने, चीनी, उर्वरक, समन्वित लौह व इस्पात उद्योग, तेल शोधनशालाएं, लुगदी और कागज उद्योग, पेट्रो-रसायन उद्योग, कीटनाशक, चर्म शोधनशालाएं, बुनियादी औषध और भेषज निर्माण उद्योग, रंजक और उसके मध्यवर्तियों का निर्माण उद्योग, कास्टिक सोडा तथा जस्ता, तांबा और एल्युमिनियम प्रगालन उद्योग।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोडों की सहायता से 26 राज्यों व 5 केन्द्रशासित प्रदेशों में 870 स्टेशनों पर जल संसाधनों की गुणवत्ता की निगरानी करता है। इस निगरानी के बाद यह बात उजागर हुई है कि जल संसाधनों में जैविक प्रदूषण प्रमुख रूप से बना हुआ है। इन आंकड़ों से यह बात भी पता चली है कि बीओडी की मात्रा 3 मि.ग्रा/लीटर से कम है जो इस ओर संकेत देती है कि जैविक प्रदूषण को देखते हुए जल की गुणवत्ता में धीरे-धीरे कुछ सुधार हो रहा है।
खतरनाक पदार्थों का प्रबंधन
खतरनाक अपशिष्ट प्रबंधन विभाग, अपशिष्ट और सूक्ष्म जैव पदाथों और रसायनों के प्रबंधन पर नियंत्रण एवं नियोजन करने वाली केन्द्रीय एजेंसी है। इसका उद्देश्य खतरनाक रसायनों और खतरनाक अपशिष्ट पदार्थों का उपयोग सुरक्षात्मक तरीके से करना एवं इनका प्रबंधन तथा रख-रखाव करना है ताकि स्वास्थ्य एवं पर्यावरण नुकसान से बच सकें। ये गतिविधियां तीन प्रमुख क्षेत्रों में संचालित की जाती हैं- रासायनिक सुरक्षा, खतरनाक अपशिष्टों और म्युनिसिपल ठोस अपशिष्ट पदार्थों का बेहतर प्रबंधन। अब तक देश में कई नियम अधिसूचित किए गए हैं, ताकि खतरनाक, अपशिष्टों और खतरनाक पदार्थों का पर्यावरण की दृष्टि से कुशल प्रबंधन हो सके।
ये नियम केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों और प्रदूषण नियंत्रण समितियों द्वारा लागू किए जाते हैं और मंत्रालय इनकी नियमित निगरानी करता है। पर्यावरण को स्वच्छ रखने और खतरनाक अपशिष्टों के प्रबंधन को सुनिश्चित करने के लिए नीतियों और कार्यक्रमों को सुचारू रूप से चलाने और तकसंगत बनाने के लिए इन नियमों का समय-समय पर संशोधन भी किया जाता है।
खतरनाक रसायनों के कारण पैदा होने वाले संकटों से निपटने के लिए मंत्रालय में एक केन्द्रीय नियंत्रण कक्ष की स्थापना की गयी है। इसके अलावा एक संकट चेतावनी प्रणाली भी स्थापित की गयी है। एक व्यापक राष्ट्रीय रासायनिक प्रारूप (नेशनल केमिकल प्रोफाइल) भी तैयार किया जा रहा है।
अब तक देश के 17 राज्यों और 2 केन्द्रशासित प्रदेशों के 236 जिलों में 1580 इकाइयां दुर्घटना की आशंका वाली है। राज्य सरकारों को आपदा प्रबंधन योजनाओं की तैयारी तथा अवस्थापनाओं के सुदृढ़ीकरण के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है। अब तक 1107 स्थलीय तथा 138 गैर-स्थलीय योजनाएं तैयार की जा चुकी हैं। अधिकतर राज्यों ने राज्य-स्तरीय आपदा समूह गठित किए हैं। जन दायित्व बीमा अधिनियम, 1991 (1992 में संशोधित) दुर्घटना की दृष्टि से खतरनाक इकाइयों (एमएएच), जो रसायनों का इस्तेमाल बहुतायत मात्रा में करती हैं, को अनिवार्य रूप से बीमा पालिसी लेनी पड़ती है। इन्हें पर्यावरण राहत कोष में समान धनराशि जमा करनी पड़ती है, ताकि रासायनिक दुर्घटना से पीड़ित लोगों को तत्काल भुगतान किया जा सके। 180 खतरनाक औद्योगिक खंडों में से 75 खंडों में विश्लेषणात्मक आपदा अध्ययन किए गए हैं। 78 अध्ययनों में से 77 अध्ययन पूरे हो चुके हैं।
खतरनाक अपशिष्ट नियमों के अनुसार सभी अपशिष्टों का निपटान और निकास पर्यावरण को ध्यान में रखकर निर्धारित ढंग से किया जाना चाहिए। दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान देश के विभिन्न भागों में समान निपटान, मल एवं निकास प्रणालियां (टीएसडीएफ) स्थापित करने पर बल दिया गया।
म्युनिसिपल ठोस अपशिष्ट (प्रबंधन एवं हैंडलिंग) नियम, 2000, फ्लाई-ऐश अधिसूचना, 1999 तथा फिर से इस्तेमाल के योग्य प्लास्टिक (उत्पादन एवं उपयोग) नियम, 1999 (जिसमें सन् 2003 में संशोधन किया गया) आदि का गठन करके देश में खतरनाक पदार्थों तथा अपशिष्टों के प्रबंधन को कानूनी ढांचा प्रदान किया गया है। फ्लाई-ऐश का निर्माण के क्षेत्र में उपयोग, सड़कों के निर्माण तथा निचली सतह के क्षेत्रों के समतलीकरण (रिक्लेमेशन) के लिए फ्लाई-ऐश के इस्तेमाल को अनिवार्य कर दिया गया है। फ्लाई-ऐश के इस्तेमाल के संबंध में दिशा-निर्देश भी बनाए गए हैं। इन्हें राज्य सरकारों को भी भेजा गया है। प्लास्टिक की 8×20 इंच से छोटी थैलियों के उत्पादन और इस्तेमाल पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है।
जल स्रोतों का संरक्षण
राज्य सरकारों को वित्तीय सहायता देकर राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (एन.आर.सी.डी.) के तहत नदी कार्ययोजना को लागू करने की जिम्मेदारी वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के अन्तर्गत काम करने वाले राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय (एन.आर.सी.डी.) पर है। राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना का उद्देश्य प्रदूषण रोकथाम योजनाओं को लागू कर देश में स्वच्छ जल के मुख्य स्रोतों के जल की गुणवत्ता में सुधार लाना है। इस कार्यक्रम के तहत अब तक 34 नदियों को शामिल किया जा चुका है, जो कि 20 राज्यों के 160 शहरों में फैली हुई हैं।
इसके तहत पहली कार्य योजना में गंगा कार्य योजना शुरू की गयी। इसमें 86.5 लीटर जल-मल शोधन क्षमता प्रथम चरण में स्थापित की गयी। गंगा नदी की मुख्य धारा के साथ 60 नगरों (विश्व बैंक की बचत से अनुमोदित महानंदा नदी भी इसमें शामिल है) में अतिरिक्त कार्यक्रम भी चलाए जा रहे हैं। विकास अध्ययन के एक भाग के रूप में जापान अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग संस्था (जेआईसीए) वाराणसी के मणिकर्णिका घाट की स्थिति सुधारने के लिए अपार सहायता प्रदान कर रही है। यह कार्य जेआईसीए अध्ययन दल द्वारा वाराणसी नगर निगम और स्थानीय लोगों के सहयोग से किया जा रहा है।
एन.आर.सी.पी. को एक भाग, यमुना कार्ययोजना (वाईएपी), चरण-II की क्रियान्वयन के लिए भारत सरकार को मंत्रालय के माध्यम से जापान बैंक ऑफ इंटरनेशनल को-ऑपरेशन से वित्तीय सहायता मिली है। जापान सरकार और भारत सरकार के बीच ऋण समझौते पर 31 मार्च, 2003 को हस्ताक्षर हुए। यमुना कार्य योजना-II के अन्तर्गत सीसीईए ने दिल्ली, उ.प्र. (नौ नगर) तथा हरियाणा (आठ नगर) में यमुना के प्रदूषण को घटाने के लिए इस कार्ययोजना को मंजूदी दी। 1 दिसम्बर, 2004 से इस कार्य आरंभ हो गया है। यमुना कार्य योजना के तहत इस पर होने वाले व्यय को भारत सरकार और राज्य सरकार 85:15 के अनुपात में वहन करेंगी। यमुना कार्य योजना-II में तीन राज्यों में कार्ययोजनाओं पर डीपीआर तैयार करना शामिल है। जिन्हें यमुना कार्य योजना-III के अन्तर्गत जेबीआईसी की सहायता से क्रियान्वित किया जाएगा।
पुनरुत्पादन एवं पारिस्थितिकी विकास
राष्ट्रीय वनारोपण और पारिस्थितिकी विकास बोर्ड (एन.ए.ई.बी.) की स्थापना 1992 में की गयी थी। इसके उत्तरदायित्वों में देश में वनारोपण, पारिस्थितिकी संतुलन तथा पारिस्थितिकी विकास की गतिविधियों को बढ़ावा देना शामिल है। इसके अन्तर्गत निम्न कोटि के वन क्षेत्रों तथा इससे जुड़े इलाकों, राष्ट्रीय उद्यानों, अभयारण्यों तथा अन्य संरक्षित व पारिस्थितिकी दृष्टि से नाजुक क्षेत्रों, जैसे- पश्चिमी हिमालय, अरावली और पश्चिमी घाट पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है।
राष्ट्रीय वनारोपण और पारिस्थितिकी विकास बोर्ड ने वनारोपण को प्रोत्साहित करने और प्रबंधन की रणनीति तैयार करने के लिए विशेष योजनाएं तैयार की हैं, इससे राज्यों को निर्धारित क्षेत्र में वनारोपण और संयुक्त वन प्रबंधन की भागीदारी योजना प्रक्रिया के जरिए बॉयोमास का उत्पादन बढ़ाने के लिए पारिस्थितिकी विकास पैकेज तैयार करने में मदद मिलेगी।
एनएईबी निम्नलिखित 3 योजनाएं चला रहा है-
1. राष्ट्रीय वनारोपण कार्यक्रम (एन.ए.पी.)
2. एनएईबी योजना/इस योजना के मुख्य भाग हैं:
- ग्रीनिंग इंडिया के लिए अनुदान सहायता (जी.आई. के लिए जी.आई.ई.)
- पर्यवेक्षण एवं मूल्यांकन (एम.एंड.ई.)
- संचार
- क्षेत्रीय केन्द्रों को सहायता (आर.जी.)
3. पारिस्थितिकी विकास बल (ई.डी.ए.फ.) योजनाएं
राष्ट्रीय वनारोपण कार्यक्रम (एनएपी )
राष्ट्रीय वनारोपण कार्यक्रम (एनएपी) एनएईबी की प्रमुख योजना है, जो वन विकास एजेंसियों (एफडीए) को भौतिक और क्षमता निर्माण क्षेत्रों में सहायता प्रदान करता है, जबकि वन विकास एजेंसियां संयुक्त वन प्रबंधन के क्रियान्वयन में प्रमुख भूमिका निभाती है। एफडीए संयुक्त वन प्रबंधन समितियों (जेएफएमसी) के वन मंडल स्तर पर संघ के रूप में परिकल्पित और स्थापित की गयी हैं, जो लोगों की भागीदारी के साथ वन क्षेत्र में सर्वांगीण विकास की दिशा में कार्य करती है। यह पहले चलाए जा रहे वनारोपण कार्यक्रमों से भिन्न है, जिनमें वित्तीय अनुदान राज्य सरकारों के लिए जरिए दिया जाता था। यह विकेन्द्रित दो स्तरों वाली संस्थागत व्यवस्था (एफडीए और जेएफएमसी) योजना तैयार करने और उनका क्रियान्वयन करने से अधिक भागीदारी की छूट देती है, जिससे वनों और वन क्षेत्रों के आसपास बसे लोगों की आजीविका में बेहतरी होती है। गांव को उस कार्यक्रम की योजना बनाने और उसे क्रियान्वित करने की इकाई माना जाता है, जिसे गांव स्तर पर ही परिकल्पित किया गया है। दो स्तरीय व्यवस्था तथा तृणमूल स्तर पर क्षमता निर्माण से स्थानीय लोगों का निर्णय प्रक्रिया में भाग लेने के लिए सशक्तिकरण होता है। आरंभिक क्रियाकलापों के तहत देख-रेख और परस्पर आदान-प्रदान अवधारणा के कारण सामुदायिक निर्माण कार्य सम्पन्न होता है।
पारिस्थितिकी-विकास बल (ईडीएफ)
पारिस्थितिकी विकास बल की स्थापना 1980 में एक ऐसी योजना के रूप में हुई जिसे रक्षा मंत्रालय के जरिए ऐसे भू-क्षेत्रों के पारिस्थितिकी पुनर्स्थापन के लिए लागू किया गया जो गंभीर क्षरण, दूर-दराज स्थित होने तथा अन्य कई कारणों से कठिन समझे जाते हैं। इस योजना के तहत रक्षा मंत्रालय द्वारा गठित इको-टास्क फोर्स (ईटीएफ) बटालियन की स्थापना और संचालन पर होने वाले व्यय का वहन मंत्रालय करता है, जबकि पौधों की बाड़ आदि तथा पेशेवर और प्रबंधन दिशा-निर्देशन राज्य वन विभागों द्वारा प्रदान किया जाता है। ईडीएफ योजना के अन्तर्गत चार ईटीएफ बटालियन गठित करने का प्रावधान है। ये बटालियन पिथौरागढ़, सांबा, जैसलमेर (मोहनगढ़) तथा देहरादून में स्थित हैं।
संयुक्त वन प्रबंधन प्रकोष्ठ (जेएफएम)
संयुक्त वन प्रबंधन (जेएफएम) प्रकोष्ठ की स्थापना 1998 में जेएफएम कार्यक्रम की निगरानी और नीति निर्धारण के लिए हुई थी। जेएफएम प्रकोष्ठ की प्रमुख गतिविधियां निम्नलिखित हैं: दिशा-निर्देशन, जो महिलाओं के जेएफएफ गतिविधियों में भाग लेने का प्रावधान प्रदान करते है, उपयुक्त वनों में जेएफएम लागू करना जिससे एनटीएफपी प्रबंधन बेहतर हो; समितियों को कानूनी सहायता देना; राज्यों और जेएफएम के बीच समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर करना, जिससे उन्हें कार्यक्रम में शामिल रहने का एहसास हो और कार्ययोजनाएं तथा लघु योजना का एकीकरण करना और ये दिशा-निर्देश जारी किए जा चुके हैं। पणधारियों के बीच परामर्श तथा नीति विकास के लिए जेएफएम नेटवर्क कार्य करने लगा है। सभी राज्यों ने जेएफएम को लागू किया है। 99,868 जेएफएम लगभग 2,14 करोड़ हेक्टेयर वन भूमि की देख-रेख कर रहे हैं और जिनके साथ 1.38 करोड़ परिवार जुड़े हैं। वनों से जुड़े सभी 1,73,000 गांवों में संयुक्त वन प्रबंधन समितियों का विस्तार मंत्रालय द्वारा दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान प्रमुख क्षेत्र माना गया है।
पर्यावरण के क्षेत्र में अनुसंधान
पर्यावरण अनुसंधान वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के अन्तर्गत पर्यावरण की सुरक्षा, संरक्षण और विकास के सभी पहलूओं पर हो रहे अनुसंधान को बढ़ावा देने वाली योजनाओं में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। पर्यावरण अनुसंधान संबंधी योजना का उद्देश्य बेहतर विकास के लिए कार्यनीतियों, तकनीकों और कार्यप्रणालियों को विकसित करने के लिए सूचना देना है। संसाधनों के प्रबंधन, प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और बंजर भूमि को फिर से उपजाऊ बनाने में आने वाली समस्याओं को सुलझाना भी इस योजना का उद्देश्य है। देश में मूलभूत सुविधाओं को सुदृढ़ करने और वैज्ञानिक तरीके से पर्यावरण प्रबंधन पर भी योजना में ध्यान रखा गया है। इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए देशभर की विभिन्न संस्थाओं/विश्वविद्यालयों और गैर-सरकारी संगठनों को अनुसंधान के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है। मंत्रालय द्वारा चलाए जा रहे तीन कार्यक्रम हैं: (1) पर्यावरण अनुसंधान कार्यक्रम (2) पारिस्थितिकी अनुसंधान कार्यक्रम (3) पूर्वी और पश्चिमी घाटों के अनुसंधान कार्यक्रम।
जीबी पत हिमालयी पर्यावरण एवं विकास संस्थान (जीबीपीआईएचईडी) अल्मोड़ा, जिसकी स्थापना मंत्रालय द्वारा 1988 में मंत्रालय के स्वायत्तशासी शोध एवं विकास संस्थान के रूप में हुई थी, आज वैज्ञानिक जानकारी, नीति निर्देशों को सूत्रबद्ध करने और भारत के हिमालयी क्षेत्र (आईएचआर) के प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण एवं प्रबंधन के लिए प्रभावी कार्यक्रम बनाने वाला एक प्रमुख संस्थान बन चुका है।
वानिकी अनुसंधान
भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद्, वन संबंधी अनुसंधान के क्षेत्र में अग्रणी अनुसंधान संस्थान है। यह संस्थान वानिकी अनुसंधान के सभी पहलुओं जैसे वानिकी अनुसंधान निर्देशन, प्रबंधन, राज्यों और सम्बंधित एजेंसियों को विकसित प्रौद्योगिकी हस्तांतरित करने और वन संबंधी जानकारी एवं शिक्षा देने का कार्य करता है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित वानिकी अनुसंधान संसथान और केंद्र आते हैं जो अपने सम्बद्ध पारिस्थितिकी जलवायु क्षेत्रों में अनुसंधान के लिए जिम्मेदार हैं: (1) वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून (2) बंजर वन अनुसंधान संस्थान, जोधपुर (3) वर्षा वन अनुसंधान संस्थान, जोरहाट, (4) लकड़ी विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान, बंगलौर, (5) उष्णकटिबंधीय वन संस्थान, जबलपुर (6) वन आनुवांशिकी तथा वृक्ष प्रजनन संस्थान, कोयंबटूर (7) हिमालयन वन अनुसंधान केन्द्र, शिमला, (8) वन उत्पादकता केन्द्र, रांची (9) सामाजिक वानिकी और पारिस्थितिकी पुनस्र्थापना संस्थान, इलाहाबाद, (10) वानिकी अनुसंधान तथा मानव संसाधन विकास संस्थान, छिंदवाड़ा। इसके अलावा भारतीय प्लाईवुड उद्योग अनुसंधान संसथान, बंगलोर मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्थान है। इस संस्थान पर लकड़ी उद्योग में लगी प्रौद्योगिकी के अनुसंधान और प्रशिक्षण की जिम्मेदारी है। भोपाल स्थित भारतीय वन प्रबंधन संस्थान भी मंत्रालय की एक स्वायत संस्था है, जो वन प्रबंधन से संबंधित शिक्षा, प्रशिक्षण, अनुसंधान और परामर्श देने का काम करती है।
वन्य जीवन सम्बन्धी अनुसंधान
वन्य जीवन अनुसंधान के क्षेत्र में भारतीय वन्य जीवन संस्थान (देहरादून) और सलीम अली पक्षी विज्ञान तथा प्राकृतिक इतिहास केन्द्र (कोयंबटूर) वन्यजीवन संबंधी अनुसंधान कर रहे हैं। इन दोनों संस्थानों द्वारा जीन विषयों पर अनुसंधान परियोजनाएं चलाई जा रही हैं, वे हैं: वन्य जीवों के पर्यावासों का क्रमिक विकास, हाथियों की गतिविधियां, घड़ियालों और कछुओं का पारिस्थितिकी विज्ञान, लुप्तप्राय प्रजातियों की स्थिति, व्यवहार्य पारिस्थितिकी विज्ञान, जैव विविधता, संस्थानों का अध्ययन और संरक्षण, विशिष्ट जानवरों का पारिस्थितिकी विज्ञान एवं प्रबंधन। यह देश के विभिन्न भागों में वन्य जीवों की पारिस्थितिकी, जैविक, सामाजिक, आर्थिक तथा प्रबंधन से जुड़े मुद्दों पर भी शोध कार्य करता ह।
राष्ट्रीय प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन प्रणाली
राष्ट्रीय प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन प्रणाली का बुनियादी उद्देश्य दूरसंवेदी टेक्नालॉजी का उपयोग पारंपरिक तरीकों के साथ प्राकृतिक संसाधनों, जैसे भूमि, जल, वन, खनिज, सागर आदि का पर्यवेक्षण करना है जिससे निम्नलिखित पहलुओं पर ध्यान देकर सतत विकास किया जा सके: (1) संसाधन उपलब्धता की उपयुक्त और सुव्यवस्थित सूची बना कर देश के प्राकृतिक संसाधनों का ज्यादा-से-ज्यादा उपयोग (2) प्रभावी योजनाएं व विकास कायों के जरिए क्षेत्रीय असंतुलन घटना (3) पारिस्थितिकी संतुलन को कायम रखना जिससे पर्यावरण संबंधी निर्देशों की रचना और क्रियान्वयन हो सके। योजना आयोग द्वारा जैव-संसाधनों और पर्यावरण पर गठित सलाहकार समिति देश में प्राकृतिक संसाधनों के ज्यादा-से-ज्यादा उपयोग और प्रबंधन के लिए दूरसंवेदी टेक्नोलॉजी के प्रयोग करने के तरीकों पर सलाह देती है।
पर्यावरण सूचना प्रणाली
पर्यावरण सूचना प्रणाली वन एवं पर्यावरण मंत्रालय का मुख्य केन्द्र बिन्दु है। इस प्रणाली के अन्तर्गत पर्यावरण सूचना प्रणाली, राष्ट्रीय प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन प्रणाली के तहत कई सरकारी और गैर-सरकारी संगठन प्रकोष्ठ आते हैं। मंत्रालय ने पर्यावरण सूचना प्रणाली को एक योजनागत कार्यक्रम के रूप में स्थापित किया है, जो पर्यावरण सूचना को एकत्र करने, आकलन, भंडारण और सूचना प्राप्त करने वाले लोगों तक इसके प्रसार का व्यापक नेटवर्क तैयार करता है। निर्णय लेने वाले अधिकारियों, शोधकर्ताओं, छात्रों, नीति-निर्धारकों, वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ताओं के लिए यह प्रणाली स्थापित की गयी है ताकि संबंधित व्यक्तियों को समय पर सही जानकारी एवं सूचनाएं उपलब्ध कराई जा सकें। विभिन्न राज्य सरकारों और केन्द्र शासित प्रदेशों ने भी इस प्रणाली के नेटवर्क को बढ़ावा देने की आवश्यकता महसूस की है। इस बात को ध्यान में रखकर ही इसके नेटवर्क को राज्य सरकारों के साथ मिलकर इसे और अधिक विकसित बनाया गया है। इस समय इस प्रणाली के अन्तर्गत देश भर में 78 विषय आधारित और राज्य सम्बन्धी केंद्र हैं, जो जानी-मानी संस्थानों/संस्थाओं में स्थित हैं। इस प्रणाली का मुख्य केन्द्र मंत्रालय में स्थित है, जो इस प्रणाली के सभी भागीदारों की गतिविधियों को समन्वित करता है, जिससे यह प्रणाली वेब-इनेबल्ड विस्तृत सूचना प्रणाली बन सके।
पर्यावरण संबंधी कानून
मंत्रालय एक विस्तृत राष्ट्रीय पर्यावरण नीति तैयार कर रहा है, जो विकास कायों और राष्ट्रीय जीवन के ताने-बाने में पर्यावरण पर ध्यान देने की आवश्यकता के अनुरूप विकास और पर्यावरण की मांगों में समन्वय स्थापित करेगी। मंत्रालय ने विशेषज्ञों की सलाह के अनुसार, एक राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2006 तैयार की है जो विकास और पर्यावरण की मांगों में तालमेल बिठाएगी। इस नीति को तैयार करने के बाद मंत्रालय की वेबसाइट पर भी पोस्ट कर दिया गया है, जिससे सभी इसे देख सके।
मंत्रालय पर्यावरण को सुरक्षा प्रदान करने के लिए एक विस्तृत कानूनी और संस्थागत बुनियादी ढांचा तैयार करने की दिशा में काम कर रहा है। इनमें नियम तैयार करने, अधिकारों को सौंपने पर अधिसूचना शामिल हैं, जिनमें समय-समय पर संशोधन लाकर उन्हें प्रभावी बनाया गया है।
इको मार्क योजना
इको मार्क योजना मंत्रालय द्वारा 1991 में आरंभ की गयी थी, जिसका उद्देश्य उन पर्यावरण-अनुकूल उपभोक्ता उत्पार्दो को लेबल करना है, जो भारतीय मानक केन्द्र (बीआईएस) की गुणवत्ता आवश्यकताओं के अतिरिक्त कुछ पर्यावरण परिणामों का भी अनुकरण करते हैं। इस योजना की समीक्षा की जा रही है, जिससे इसके प्रचार-प्रसार के लिए इसमें आवश्यक बदलाव लाए जा सकें और इसे अन्य देशों की प्रणालियों के अनुकूल ढाला जा सके।
मंत्रालय द्वारा एक अंतर मंत्रालय परामर्श ग्रुप का भी गठन किया गया है, जिसके अन्तर्गत व्यापार और पर्यावरण के कई मामलों के संबंध में बहुपक्षीय बातचीत के लिए सामान्य स्थिति विकसित करने पर विचार किया जाएगा। नीति उन्मुख अध्ययनों के लिए परामर्श ग्रुप द्वारा कई मामलों की पहचान की गयी है।
अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और सतत विकास
वन और पर्यावरण मंत्रालय के तहत गठित अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग और समेकित विकास विभाग (आईसीएसडी) संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम नैरोबी; दक्षिण एशिया सहयोग पर्यावरण कार्यक्रम, कोलम्बो और समेकित विकास से संबंधित मामलों पर प्रमुख केन्द्र के तौर पर काम करता है। यह विभाग बहुपक्षीय निकायों जैसे समेकित विकास आयोग, वैश्विक पर्यावरण सुविधा (जीईएफ) और क्षेत्रीय निकायों, जैसे-एशिया प्रशांत आर्थिक एवं सामाजिक आयोग, दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क), यूरोपीय संघ और भारत-कनाडा पर्यावरण सुविधा से सम्बद्ध मामलों को भी देखता है।
केन्द्र सरकार में यह मंत्रालय पर्यावरण से संबंधित विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों और संधियों के लिए प्रमुख एजेंसी के रूप में भी काम करता है। इन समझौतों और संधियों में ओजोन परत की रक्षा के लिए हुआ वियना समझौता, ओजोन परत को नष्ट करने वाले पदार्थों पर हुई मांट्रियल संधि, जैविक विविधता पर हुए समझौते, जलवायु परिवर्तन की रूपरेखा पर हुआ संयुक्त राष्ट्र समझौता, क्वेटा संधि, खतरनाक पदार्थों को एक देश से दूसरे देश की सीमा में ले जाने पर हुआ बेसेल समझौता, रेगिस्तान से निपटने को लेकर हुआ समझौता और ऑर्गेनिक प्रदूषण पर हुआ स्टॉकहोम समझौता शामिल है।
वर्ष के दौरान भारत ने कई गोष्ठियों/कार्यशालाओं आदि में भाग लिया जैसे वाशिंगटन डीसी में आयोजित जीईएफ परिषद् का 23वां और 24वां सत्र; थिम्पू, भूटान में आयोजित सार्क; टेक्नीकल समिति की पर्यावरण पर बैठक; पेरिस, फ्रांस में जीईएफ संसाधनों के लिए कार्य प्रदर्शन आधारित आबंटन रूपरेखा, बैंकाक में आयोजित पर्यावरण और विकास पर मंत्री स्तरीय सम्मेलन की क्षेत्रीय आरंभिक बैठक, स्टॉकहोम स्वीडन में यूएनईपी के भावी प्रशासन पर अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी, कोलम्बो में दक्षिण एशिया के एमईए (राष्ट्रीय क्षमता स्व-निर्धारण) के एकीकृत क्षमता विकास पर क्षेत्रीय कार्यशाला, मनीला, फिलीपींस में जीपीजी पर अन्तर्राष्ट्रीय कार्यबल का क्षेत्रीय कन्सोलेशन, नैरोबी में यूएनईपी/जीएमईपी की गवर्निग काउंसिल और सियोल, द.कोरिया में पर्यावरण एवं विकास (एमसीईडी) पर मंत्री स्तरीय सम्मेलन। इसके अलावा भारत ने सतत विकास आयोग के 12वें सत्र में अपनी राष्ट्रीय रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसका शीर्षक था मिटीगेटिंग पावर्टी-वाटर, सैनीटेशन एंड ह्यूमन सेटलमेंट।
मंत्रालय ने सतत विकास के क्षेत्र में कई गतिविधियां आरंभ की है, जिनमें पर्यावरण रिपोर्ट की तैयारी की अवस्था, सतत विकास सूचकों (एसडीआई) का निर्धारण, सतत विकास, वैश्वीय सार्वजनिक सामग्री और सतत विकास के लिए भागीदारी की राष्ट्रीय योजनाओं का निर्धारण शामिल है।
मंत्रालय ने मॉट्रियल संधि प्रस्ताव और इसके भारत में ओजोन परत नष्ट करने वाले पदार्थों के चरणबद्ध ढंग से समाप्त करने वाले कार्यक्रम को लागू करने के लिए आवश्यक कदम उठाने व देख-रेख करने के लिए ओजोन प्रकोष्ठ को एक राष्ट्रीय संस्थान के रूप में स्थापित किया है। ओजोन परत को सुरक्षित रखने के लिए सत्तर के दशक के आरंभ में विश्वव्यापी प्रयास किए गए थे, जिनक चलते ओजोन परत को नष्ट करने वाले पदार्थों (ओ.डी.एस.) पर 1985 में वियना समझौता हुआ और 1987 में मांट्रियल संधि प्रस्ताव पारित हुआ। भारत, मांट्रियल संधि प्रस्ताव में लंदन संशोधन के साथ 1992 में शामिल हुआ। ओजोन परत को नष्ट होने से बचाने के लिए ही मंत्रालय ने ओजोन प्रकोष्ठ की स्थापना की। मंत्रालय ओजोन परत को नष्ट करने वाले पदाथों (ओ.एस.डी.) को समाप्त करने वाली परियोजनाओं पर कस्टम/उत्पादन शुल्क की छूट देता है। मंत्रालय, ओ.डी.एस. रहित टेक्नोलॉजी में नए निवेशों के लिए कर में छूट संबंधी निर्देशों/नियमों को अंतिम रूप दे चुका है। भारतीय रिजर्व बैंक ने सभी वित्तीय संस्थाओं और व्यावसायिक बैंकों को निर्देश जारी किए हैं कि वे ओ.डी.एस. प्रौद्योगिकी वाली इकाइयों को स्थापित करने वाली कम्पनियों को कोई वित्तीय मदद एवं ऋण न दें। ओ.डी.एस. के आयात एवं निर्यात को नियमित करने के लिए लाइसेंसिंग प्रणाली शुरू की गयी। गैर-पक्षों के साथ ओ.डी.एस. के कारोबार पर प्रतिबंध लगा दिया गया। मांट्रियल संधि का पालन सुनिश्चित करने के लिए कानूनी ढांचे के अंतर्गत ओ.डी.एस. नियमन एव नियंत्रण नियम, 2000 भी अधिसूचित किया गया है। इस नियम के जरिये कुछ आवश्यक दवाइयों के उत्पादन को छोड़कर, विभिन्न उत्पादों में एक जनवरी, 2003 को बाद सी.एफ.सी. के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गयी। इसके अलावा कार्बन टेट्राक्लोराइड, मिथाइल क्लोरोफार्म वाले इन्हेलरों में 1 जनवरी, 2010 तक तथा मिथाइल ब्रोमाइड का इस्तेमाल 1 जनवरी, 2015 तक किया जा सकता है।
जलवायु परिवर्तन
भारत पर्यावरण परिवर्तन के बारे में संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन का सदस्य है। इस संस्था का उद्देश्य पर्यावरण के ग्रीनहाउस गैस सांद्रिकरण के स्तर को इस तरह नियंत्रित रखना है कि मानवीय कारणों से जलवायु व्यवस्था खतरनाक न हो सके। कन्वेंशन के सदस्य देश इसके सचिवालय के माध्यम से जिन मामलों पर जानकारी प्राप्त कर सकते हैं वे हैं: (1) मांट्रियल संधि के अन्तर्गत सभी ग्रीन हाउस गैसों को समाप्त करने के लिए एंथ्रोरोपोजनिक उत्सर्जन के स्रोतों की एक राष्ट्रीय सूची बनाना, (2) कन्वेंशन को लागू करने के लिए उठाये गए कदमों पर विचार-विमर्श (3) कन्वेंशन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए किसी भी तरह की सूचना उपलब्ध कराना (4) परियोजना के लिए कार्यान्वयन एजेंसी की जिम्मेदारी मंत्रालय को सौंपना।
सीडीएम प्राधिकरण विभिन्न जैव पदार्थ आधारित उत्पादन की 252 परियोजनाओं को मंजूरी दे चुका है। नवीकरणीय ऊर्जा, नगर निगम का ठोस कचरा, हाइड्रोफ्लोरो कार्बन, लघु पनबिजली व ऊर्जा निपुणता के क्षेत्रों में अब तक कई परियोजनाओं को प्राधिकरण ने मंजूरी दी है। उम्मीद की जा रही है कि परियोजनाओं से विदेशी निवेश को आकर्षित करने में मदद मिलेगी। साथ ही, और कुशल तकनीक भी अपनाई जा सकेगी।
वन्य जीवों के संरक्षण हेतु परियोजनाएं |
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सुरक्षित पर्यावरण के लिए भारत के प्रयास |
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड: पर्यावरण संबंधी प्रदूषण की रोकथाम के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के अंतर्गत सितंबर, 1974 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की स्थापना की गई। यह संस्था प्रदूषण नियंत्रण से संबंधित सभी मामलों पर केंद्र व राज्य की समितियों को सलाह देती है। इस संगठन के द्वारा अभी तक 17 प्रकार के ऐसे उद्योगों की पहचान की गई है, जो अत्यधिक प्रदूषण फैलाते हैं। इनमें से निम्नलिखित वर्ग हैं:- सीमेंट,तापबिजली संयंत्र, पेट्रो रसायन उद्योग, तेल शोधक कारखाने, तांबा व एल्युमिनियम उद्योग, रंजक निर्माण उद्योग, चीनी, उवर्रक उद्योग, लौह-इस्पात उद्योग, कीटनाशक, औषधी निर्माण उद्योग, कास्टिक सोडा तथा जस्ता उद्योग। राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (एन.आर.सी.पी.): इस योजना की शुरूआत वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के तत्वाधान में कार्य करने वाली समिति राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय ने की है। एन.आर.सी.पी. का उद्देश्य राज्य सरकारों को आर्थिक सहायता पहुंचा कर देश में स्वच्छ जल के स्रोतों की गुणवत्ता में सुधार करना है। अभी तक 31 नदियाँ इस परियोजना से जुड़ चुकी हैं। राष्ट्रीय वनारोपण और पारिस्थितिकी बोर्ड (एन.ए.ई.बी.): 1992 में स्थापित इस संस्था का मुख्य उद्देश्य देश में वनारोपण एवं पर्यावरणीय संतुलन के विकास कार्यक्रमों का क्रियान्वयन करना है। 10वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत एन.ए.ई.बी. के गतिविधियों की सहायता हेतु अंचल स्तर पर एक शाखा वन विकास एजेंसी (एफ.डी.ए.) की शुरूआत की गई है। इको-मार्क लेबल प्रणाली: किसी उत्पाद को वैधानिक स्वरूप प्रदान करने हेतु पर्यावरण मंत्रालय द्वारा इको-मार्क लेबल प्रणाली शुरू की है। इस प्रकार से यह निशान उत्पाद के पर्यावरण अनूकूल होने का संकेत देता है। 1999 में ही मंत्रालय द्वारा सुरक्षा उपायों को सुनिश्चित करने के लिए बंगलौर, भोपाल, लखनऊ,चण्डीगढ़, भुवनेश्वर तथा शिलांग में छ: कद्रों को स्थापित किया गया था। राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता निगरानी कार्यक्रम (एन.ए.एम.पी.) इस कार्यक्रम के अंतर्गत वायुमण्डल में उपस्थित चार प्रमुख वायु प्रदूषकों- सल्फर डाई-ऑक्साइड (SO2) नाइट्रोजन ऑक्साइड (NO2), अंतश्वसनीय स्थगित पदार्थ, स्थगित विविक्त पदार्थ (एस.पी.एम.) को नियंत्रित करने का प्रयास किया जा रहा है। |
पर्यावरण संबंधित महत्वपूर्ण समझौते |
मांट्रियल प्रोटोकॉल, 1987: मांट्रियल प्रोटोकॉल का उद्देश्य वर्ष 1990 तक क्लोरो फ्लोरो कार्बन के उत्पादन एवं उनके इस्तेमाल को 1986 के स्तर तक लाना था। हेलसिंकी घोषणा (1989): हेलसिंकी घोषणा, ओजोन परत पर ग्रीन हाउस गैसों के दुष्प्रभाव को लेकर की गई थी। इसमें क्लोरो फ्लोरो कार्बन के उपभोगों को 2000 तक समाप्त करने की बात कही गई। लंदन सम्मेलन (1990): विकसित एवं विकासशील देशों द्वारा आयोजित किए गए इस सम्मेलन में कार्बन उत्पादन को खत्म करने के लिए क्रमश: 2000 तथा वर्ष 2010 तक का लक्ष्य निर्धारित किया गया। रियो पृथ्वी सम्मेलन (1992): पर्यावरण के तापमान के स्तर में लगातार हो रही वृद्धि को देखते हुए इससे संबंधित उपायों का प्रस्ताव रियो पृथ्वी सम्मेलन में किया गया। कोपेनहेगन सम्मेलन 1992: इस सम्मेलन में यह माना गया कि ग्लोबल वार्मिग का मुख्य कारण हानिकारक गैसों का उत्सर्जन है। अत: इन गैसों में कार्बन ट्रेटा क्लोराइड 1996 तक, सी.एफ.सी. 1996, हाइड्रो क्लोरोफ्लोरो वर्ष 2030 तक एवं वर्ष 2000 तक हैलोन्स गैसको पूर्णतः समाप्त किया जाना तय हुआ था। नैरोबी सम्मेलन: जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को लेकर संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित 12वां सम्मेलन नैरोबी में हुआ, जिसमें विश्व के 189 सदस्य देशों ने भाग लिया। इसी बैठक में दिसंबर 2007 में बाली में भी एक जलवायु सम्मेलन बुलाने का प्रस्ताव किया गया था। बाली सम्मेलन में यह भी तय किये जाने का प्रावधान किया गया कि वर्ष 2013 से 2017 तक के मध्य कार्बन उत्सर्जन में कितनी कमी की जानी चाहिए। साथ ही, ग्रीन हाउस उत्सर्जन संबंधी नई संधि लागू करने की कोशिश की जाएगी, क्योंकि क्योटो प्रोटोकॉल की समय-सीमा भी 2012 में समाप्त हो जायेगी। नैरोबी में हुआ यह सम्मेलन कोई विशेष योगदान देने में असफल ही रहा। नैरोबी सम्मेलन के मुख्य बिंदु-
विश्व जलवायु सम्मेलन: संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में 3-15 दिसंबर, 2007 तक इंडोनेशिया के बाली द्वीप में स्थित नूसादुआ में विश्व जलवायु सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में 193 देशों के 11000 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। बाली सम्मेलन के दौरान, ग्लोबल वार्मिग की मौजूदा स्थिति पर चिंता व्यक्त की गई तथा जलवायु परिवर्तन पर क्योटो संधि के स्थान पर नई संधि लागू करने की सहमति दी गई। नई संधि के अंतर्गत ही वर्ष 2009 के अंत में डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगेन में एक दौर की वार्ता भी आयोजित की गयी। आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री, केविन रूड ने इस सम्मेलन को संबोधित किया। बैठक में भारतीय शिष्टमण्डल का प्रतिनधित्व केंद्रीय विज्ञान मंत्री कपिल सिब्बल ने किया। इस अवसर पर जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि सभी देशों द्वारा बदली परिस्थितियों का सामना करने के लिए कड़े कदम उठाने आवश्यक हैं। वैज्ञानिक मत के अनुसार वायुमण्डल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा तेजी से बढ़ती जा रही है। अगर इस विषय पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो जीव-जंतुओं, वनस्पति एवं मानव संसाधन के अस्तित्व पर संकट आ सकता है। अत: यह जरूरी है कि आने वाले तीन-चार वर्षों में कार्बन डाई-ऑक्साइड के स्तर को कम किया जाये। बाली सम्मेलन में आई.पी.सी.सी. पैनल की रिपोर्ट को भी शामिल किया गया, जिससे यह कहा गया है कि वायुमण्डल में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा 450 PPM से आगे नहीं जानी चाहिए। सम्मेलन में प्रमुख औद्योगिक देशों से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने की अपील की गई। |