बल Force
बल वह बाह्य कारक है, जो किसी वस्तु की विरामावस्था या सरल रेखा में एकसमान गति की अवस्था को परिवर्तित कर सकता है। उदाहरण के लिए, खेल मैदान में स्थिर रखी हुई फुटबाल को पैर से किक लगाकर (अर्थात्, बल लगाकर) गतिशील बनाया जा सकता है, दूर से तेजी से आती हुई फुटबाल को हाथ से पकड़कर (बल लगाकर) रोका जा सकता है, जिससे वह गति शून्य हो जाए। इसके अतिरिक्त बल लगाकर किसी वस्तु की आकृति और आकार भी बदले जा सकते हैं, जैसे- टमाटर को हथेलियों के बीच जोर से दबाने पर वह पिचक जाता है, इस प्रकार इसकी आकृति एवं आकार दोनों बदल जाते हैं।
बल एक सदिश राशि है, इसे आलेखित करने के लिए इसका परिमाण निश्चित लम्बाई की एक सरल रेखा से एवं इस रेखा के एक सिरे पर तीर की चिन्ह लगाकर दिशा व्यक्त करते हैं।
बल का मात्रक न्यूटन है तथा यह उस बल के बराबर है जो 1 कि.ग्रा. द्रव्यमान की वस्तु पर कार्य करके उसमें 1 मी. /सेकण्ड2 का त्वरण उत्पन्न कर दे।
1 न्यूटन = 105 डाइन
जहाँ डाइन बल पर C.G.S मात्रक है। M.K.S पद्धति में बल का गुरुत्वीय मात्रक किग्रा. भार तथा C.G.S पद्धति में ग्राम-भार है।
1 किलोग्राम = 9.8 न्यूटन
1 ग्राम भार = 980 डाइन
बलों के प्रकार
बल मूलत: चार प्रकार के पाये जाते हैं। विश्व के सभी बल इन्हीं के अन्तर्गत आ जाते हैं। ये बल हैं –
- गुरुत्वाकर्षण बल, 2. विद्युत चुम्बकीय बल, 3. दुर्बल या क्षीण बल तथा 4. प्रबल बल।
गुरुत्वाकर्षण बल: हम जानते हैं कि कोई बल हमें पृथ्वी की ओर खीचे रखता है, इस बल को गुरुत्वाकर्षण बल कहते हैं। पृथ्वी प्रत्येक वस्तु को आकर्षित करती है। यह तो सर्ववदित है, वास्तव में किन्ही दो वस्तुओं के मध्य, चाहे ये एक मेज पर रखे हो, परस्पर गुरुत्वाकर्षण कार्यरत होता है इस गुरुत्वाकर्षण के फलस्वरूप चन्द्रमा, पृथ्वी के चारों ओर परिक्रमा करता है तथा पृथ्वी, सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती रहती है।
विद्युत-चुम्बकीय बल: यह बल भी दो प्रकार का होता है-
(a) स्थिर विद्युत बल (b) चुम्बकीय बल।
(a) स्थिर विद्युत बल: दो स्थिर बिंदु आवेशों के बीच लगने वाला बल, स्थिर विद्युत बल कहलाता है।
(b) चुम्बकीय बल: दो चुम्बकीय ध्रुवों के बीच लगने वाला बल, चुम्बकीय बल कहलाता है। विद्युत व चुम्बकीय बल एक ही प्रक्रिया के दो रूप हैं। अर्थात ये स्वतंत्र न होकर परस्पर संबंधित हैं और विद्युत चुम्बकीय बल की रचना करते हैं, यह भी दूर-परास वाला बल है। यह फोटॉन नामक कण के माध्यम से कार्य करता है।
दुर्बल या क्षीण बल: जिसे रेडियोऐक्टिव क्षय की प्रक्रिया में B कण निकलते हैं। उसे B क्षय कहते हैं। इस प्रक्रिया में नाभिक के अंदर एक-न्यूट्रॉन, प्रोटॉन, इलेक्ट्रॉन एवं ऐण्टिन्यूट्रिनो के रूप में विक्षरित हो जाता है। इलेक्ट्रॉन व ऐण्टिन्यूट्रिनो के बीच पारस्परिक क्रिया क्षीण बलों के माध्यम से ही होती है। ये बल दुर्बल या क्षीण इसलिये कहलाते हैं कि इनका परिमाण प्रबल बल का लगभग 10-13 गुना होता है और इनके द्वारा संचालित क्षय प्रक्रियायें बहुत धीमी होती है। ये बल, W बोसान नामक कण के आदान-प्रदान द्वारा अपना प्रभाव दिखाते हैं। यह अत्यन्त लघु परास वाला बल है। इसका परास प्रोटॉन और न्यूटॉन के आकार से भी कम होता है।
प्रबल बल: नाभिक के अंदर प्रोटॉन व न्यूट्रॉन एक-दूसरे के इतने पास होते हैं, फिर भी दो प्रोटॉन परस्पर प्रतिकर्षण द्वारा दूर क्यों नहीं फेंक दिए जाते हैं? कारण यह है कि उनके बीच एक बहुत ही शाक्तिशाली आकर्षण बल कार्य करता है, जिसे प्रबल बल कहते हैं।
न्यूटन के गति के नियम
प्रथम नियम
इस नियम के अनुसार- यदि कोई वस्तु विराम अवस्था में है तो वह विराम अवस्था में ही रहेगी और यदि वह एकसमान चाल से सीधी रेखा में चल रही है तो वैसे ही चलती रहेगी, जब तक कि उस पर कोई बाह्य बल लगाकर उसकी वर्तमान अवस्था में परिवर्तन न किया जाए। इसे गैलीलियो का नियम भी कहते हैं।
वस्तुओं की इस प्रवति को कि वे स्वत: अपनी विराम अथवा गति की अवस्था को नहीं बदल सकती, जड़त्व कहते हैं। इसी कारण गैलीलियो के नियम को जड़त्व नियम भी कहते हैं। जड़त्व दो प्रकार का होता है-
(i) विराम का जड़त्व, (ii) गति का जड़त्व।
(i) विराम का जड़त्व: यदि कोई वस्तु विराम अवस्था में है तो वह सदैव विराम में ही रहेगी जब तक कि उस पर कोई बाह्य बल लगाकर उसकी विराम की अवस्था को बदल नहीं दिया जाता है।
(ii) गति का जड़त्व: यदि कोई वस्तु एकसमान चाल से सीधी रेखा में चल रही है तो वह वैसे ही चलती रहेगी, जब तक कि उस पर कोई बाह्य बल लगाकर उसकी गति की अवस्था को बदल नहीं दिया जाता है।
इस प्रकार बल वह बाह्य कारक है, जिसके द्वारा किसी वस्तु की विराम अथवा गति की अवस्था में परिवर्तन किया जाता है।
जड़त्व के कुछ उदाहरण
- ठहरी हुई मोटर या रेलगाड़ी के अचानक चल पड़ने पर उसमें बैठे यात्री पीछे की ओर गिर पड़ते हैं: इसका कारण है कि यात्री के शरीर का निचला भाग गाड़ी के सम्पर्क में होने के कारण गाड़ी के चलने पर तुरन्त ही चल पड़ता है, परन्तु ऊपरी भाग जड़त्व के कारण अभी वहीं ठहरा रहना चाहता है, इसलिए पीछे रह जाता है। इसी प्रकार, चलती हुई गाड़ी पर चढ़ने वाले यात्री के पैर गाड़ी पर चढ़ते ही गतिशील हो जाते हैं परन्तु शरीर अभी विराम अवस्था में ही रहता है, जिसके कारण यात्री पीछे की ओर गिर पड़ता है। अत: चलती गाड़ी पर चढ़ने से पहले यात्री को कुछ दूर गाड़ी की दिशा में दौड़ना चाहिए।
- चलती हुई मोटरकार के अचानक रुकने पर उसमें बैठे यात्री आगे को झुक जाते हैं: मोटरकार के रुकने पर उसके फर्श तथा उस पर टिके यात्रियों के पैर तुरन्त ठहर जाते हैं परन्तु शरीर का शेष भाग जड़त्व के कारण अभी गतिशील रहता है। इसलिए यात्री आगे की ओर झुक जाते हैं। यही कारण है कि तेज दौड़ता हुआ घोड़ा जब यकायक रुक जाता है तो उस पर असावधान बैठा हुआ सवार आगे की ओर झुक जाता है। इसी प्रकार, जब कोई यात्री जल्दी में चलती हुई गाड़ी से उतरता है तो वह आगे की ओर गिर पड़ता है। उसके पैर पृथ्वी को छूते ही विरामावस्था में आ जाते हैं परन्तु शरीर का ऊपरी भाग उसी वेग से चलते रहने का प्रयत्न करता है। अत: वह गाड़ी के चलने की दिशा में ही गिर पड़ता है। इसीलिए चलती गाड़ी से उतरने पर यात्री को थोड़ी दूर गाड़ी के साथ-साथ दौड़ना चाहिए। ऐसा करके यात्री अपनी मांसपेशियों द्वारा उपयुक्त बल लगाकर पूरे शरीर को एक साथ रोक लेता है।
यदि हम किसी गाड़ी में बैठे हैं और गाड़ी अचानक दायीं और को मुड़ जाती है तो हमारे पैर तो गाड़ी के साथ-साथ दायीं दिशा में वेग ले लेते हैं परन्तु शरीर का ऊपरी भाग अभी पहली दिशा में ही गतिमान रहता है। अत: हमारा शरीर विपरीत दिशा में झुक जाता है।
- कम्बल को हाथ से पकड़कर डण्डे से पीटने पर धूल के कण झड़कर गिर पड़ते हैं: डण्डे से पीटने पर कम्बल तो गतिमान हो जाता है, परन्तु धूल के कण जड़त्व के कारण वहीं ठहरे रहते हैं। अत: कण कम्बल से अलग हो जाते हैं तथा अपने भार के कारण गिर पड़ते हैं।
यही कारण है कि पेड़ को हिलाने से उसके फल टूटकर नीचे गिरने लगते हैं।
- हथौड़े को हत्थे में कसने के लिए हत्थे को जमीन पर मारते हैं: जब हथौड़े के हत्थे को नीचे की ओर करके जमीन पर मारने के लिए तीव्र वेग से लाते हैं तो हथौड़ा तथा हत्था दोनों गति की अवस्था में होते हैं। हत्थे का सिरा जमीन पर लगते ही विरामावस्था में आ जाता है, परन्तु हथौड़ा अब भी जड़त्व के कारण गति की अवस्था में रहता है, जिससे वह नीचे आकर हत्थे में और धंस जाता है।
संवेग: न्यूटन के गति सम्बन्धी द्वितीय नियम को समझने से पहले संवेग का अर्थ समझना आवश्यक है ।
किसी वस्तु के द्रव्यमान तथा वेग के गुणनफल को उस वस्तु को संवेग कहते हैं।
(p) संवेग = द्रव्यमान × वेग = mv
संवेग एक सदिश राशि है जिसकी दिशा वही होती है, जो वेग की होती है।
न्यूटन की गति का दूसरा नियम
किसी वस्तु के संवेग-परिवर्तन की दर उस वस्तु पर आरोपित बल के अनुक्रमानुपाती होती है तथा संवेग-परिवर्तन आरोपित बल की दिशा में ही होता है।’
F = Δp/Δt (Δp = संवेग में परिवर्तन)
एक अन्य नियम के रूप में –
किसी वस्तु पर आरोपित बल F उस वस्तु के द्रव्यमान m तथा उस वस्तु में बल की दिशा में उत्पन्न त्वरण a के गुणनफल के बराबर होता है। अर्थात्
बल = द्रव्यमान x त्वरण अथवा
F = ma
इस समीकरण में यदि F = 0 हो तो, a = 0 क्योंकि m शून्य नहीं है, अर्थात् यदि वस्तु पर बाह्य बल न लगाया जाए तो वस्तु में त्वरण भी उत्पन्न नहीं होता। त्वरण के शून्य होने का अर्थ है कि वस्तु या तो विराम अवस्था में ही रहेगी या नियत वेग से चलती रहेगी। इस प्रकार न्यूटन का पहला नियम (गैलीलियो का नियम) दूसरे नियम का ही एक अंग है।
बल का मात्रक
SI पद्धति में बल का मात्रक- न्यूटन है। सूत्र F = ma से, यदि M = 1 किग्रा तथा a = 1 मीटर/सेकण्ड2 तो F = 1 न्यूटन। अत: 1 न्यूटन बल वह बल है, जो 1 किग्रा. द्रव्यमान की किसी वस्तु में 1 मीटर/सेकण्ड2 का त्वरण उत्पन्न कर दे। इस प्रकार-
1 न्यूटन = 1 किग्रा. मीटर/सेकेण्ड2
बल का अन्य मात्रक किग्रा-भार है। इस बल को गुरुत्वीय मात्रक कहते हैं, जो 1 किग्रा. की वस्तु पर गुरुत्व के कारण लगता है। न्यूटन के द्वितीय नियम के अनुसार-
गुरुत्वीय बल = द्रव्यमान × गुरुत्वीय त्वरण
भार W एक बल है, अत: उसका मात्रक न्यूटन है। द्रव्यमान M का मात्रक किग्रा. है, अतः गुरुत्वीय त्वरण को न्यूटन/किग्रा. मात्रक में भी व्यक्त कर सकते हैं।
न्यूटन का तृतीय नियम
इस नियम के अनुसार- प्रत्येक क्रिया के बराबर, परन्तु विपरीत दिशा में, प्रतिक्रिया होती है। इसको क्रिया-प्रतिक्रिया नियम भी कहते हैं। यदि F1 क्रिया-बल तथा F2 प्रतिक्रिया बल हो तो F1 =—F2। इस नियम के संबंध में दो बातें महत्वपूर्ण हैं- एक तो यह कि हम नहीं कह सकते कि कौन-सी बल क्रिया है और कौन-सी प्रतिक्रिया। इतना ही कहा जा सकता है कि एक क्रिया है तो दूसरा प्रतिक्रिया। दूसरे क्रिया तथा प्रतिक्रिया बल सदैव दो भिन्न-भिन्न वस्तुओं पर कार्य करते हैं, एक पर नहीं। इसलिए वे एक-दूसरे को निरस्त नहीं कर सकते हैं।
उदाहरण
- बन्दूक से गोली चलाने पर, चलाने वाले को पीछे की ओर धक्का लगता है- बन्दूक का ट्रिगर दबाने पर बारूद की गैस बन जाती है, जो कि फैलने के कारण गोली को बहुत जोर से आगे की ओर फेंक देती है। गोली भी इस गैस पर उतना ही परन्तु विपरीत दिशा में, प्रतिक्रिया बल लगाती है, जिससे बन्दूक चलाने वाले को पीछे की ओर धक्का लगता है।
- नाव से किनारे पर कूदना: जब हम नाव से नदी के किनारे पर कूदते हैं तो नाव को अपने पैरों से पीछे की ओर दबाते हैं। इससे नाव झटके से पीछे की ओर को हट जाती है तथा उसकी प्रतिक्रिया हमें आगे की ओर फेंक देती है। ऊंची कूद लेने से पहले खिलाड़ी अपने पैरों से भूमि को नीचे की ओर दबाता है और भूमि उसे ऊपर की ओर उछाल देती है।
- सूर्य व पृथ्वी: सूर्य पूथ्वी को खींचता है, पृथ्वी भी सूर्य को अपनी ओर उसी बल से खींचता है। पृथ्वी चन्द्रमा को अपनी ओर खींचती है। चन्द्रमा भी पृथ्वी को अपनी ओर उसी बल से खींचता है। चन्द्रमा के इस खिंचाव के कारण ही समुद्र में ज्वार-भाटे आते हैं।
- घोड़े का गाड़ी खींचना: जितने बल से घोड़ा गाड़ी को खींचता है उतने ही बल से गाड़ी घोड़े को विपरीत दिशा में खींचती है। इस प्रकार क्रिया व प्रतिक्रिया के विपरीत होने पर गाड़ी की गति किस प्रकार सम्भव है? इसका उत्तर बहुत सरल है। गाड़ी की गति स्वयं गाड़ी पर लगने वाले बलों पर ही निर्भर है, न कि उन बलों पर जो कि वह घोड़े पर तथा भूमि पर लगाती है। गाड़ी पर केवल दो बल लगते हैं-एक तो घोड़े द्वारा आगे की ओर लगाया गया बल F1 तथा दूसरा भूमि द्वारा गाड़ी के पहियों पर पीछे की ओर को लगाया गया घर्षण- बल F2। जब तक बल F1 बल F2 से कम है गाड़ी नहीं चलेगी। परन्तु जब घोड़ा और जोर लगाकर F1 के मान को F2 के बराबर कर लेता है तो गाड़ी एकसमान चाल से चलने लगती है। यदि F1 का मान F2 से बढ़ जाए तो गाड़ी त्वरित गति से चलने लगती है।
- रॉकेट: रॉकेट में किसी ज्वलनशील पदार्थ को जलाकर गैसें उत्पन्न की जाती हैं जो नीचे की ओर अत्यन्त तीव्र वेग से एक जेट के रूप में निकलती हैं। ये गैसें रॉकेट पर ऊपर की ओर को प्रतिक्रिया-बल लगाती हैं, जिससे रॉकेट ऊपर उठ जाता है। गैस के जेट का वेग जितना अधिक होता है, रॉकेट भी ऊपर की ओर उतने ही अधिक वेग से उठता है।
- जेट हवाई जहाज: इसमें भी विस्फोट के द्वारा गैस को जेट के रूप में पीछे की ओर छोड़ा जाता है। गैस हवाई जहाज पर प्रतिक्रिया बल लगाकर उसे आगे बढ़ाती है, जिससे हवाई जहाज तीव्र वेग से आगे को चलता है।
नोट: रॉकेट तथा जेट विमान में मुख्य अन्तर यह है कि रॉकेट में ईधन को जलाने के लिए अन्दर ही ऑक्सीजन की आपूर्ति विद्यमान होती है, जबकि जेट विमान में ईधन कैरोसीन (पैराफिन) होता है, जिसे जलाने के लिए वायुमण्डल से ऑक्सीजन प्राप्त की जाती है। इसलिए जेट विमान को रॉकेट के समान अधिक ऊंचाई तक नहीं ले जाया जा सकता है, क्योंकि वहां वायुमण्डल नहीं होने के कारण ऑक्सीजन नहीं प्राप्त हो सकेगी।
संवेग संरक्षण का सिद्धांत
इस सिद्धान्त के अनुसार, एक या एक से अधिक वस्तुओं के निकाय का संवेग तब तक अपरिवर्तित रहता है, जब तक वस्तु या वस्तुओं के निकाय पर कोई बाह्य बल आरोपित न हो अर्थात एक वस्तु में जितना संवेग परिवर्तन होता है, दूसरी में उतना ही संवेग विपरीत दिशा में हो जाता है।
m1 u1 + m2 u2 = m1 v1 + m2 v2
बल का आवेग
दैनिक जीवन में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब किसी वस्तु पर एक बड़ा बल थोड़े समयान्तराल के लिए लगाया जाता है, जैसे- बल्ले द्वारा क्रिकेट की गेंद पर चोट मारकर गेंद को दूर फेंकना, हथौड़े द्वारा कील ठोंकना आदि।
आवेग = बल × समय – अन्तराल = संवेग में परिवर्तन
यह आवेग वस्तु के संवेग में परिवर्तन के बराबर होता है। आवेग एक सदिश राशि है, जिसका मात्रक न्यूटन सेकेण्ड होता है।
भारहीनता: यदि लिफ्ट में खड़े शक्ति का गुरुत्व बल W नीचे की ओर तथा लिफ्ट द्वारा लगने वाला प्रतिक्रिया बल R ऊपर की ओर कार्य करे, तो ये दोनों बल विपरीत दिशा में होंगे, अत: व्यक्ति पर नेट बल, F = W – R नीचे की ओर
- यदि लिफ्ट स्थिर है अथवा ऊपर या नीचे की ओर समान वेग से गति कर रही है, तब F = O और W=R
- यदि लिफ्ट ऊपर की ओर समान त्वरण, a से गति कर रही है, तो F = ma जहाँ m व्यक्ति का द्रव्यमान है इस स्थिति में,
R = W + ma
इस दशा में व्यक्ति का आभासी भार उसके वास्तविक भार mg से अधिक है।
- यदि लिफ्ट समान त्वरण, a से नीचे की ओर जा रही है इस दशा में, F= ma तथा आभासी भार, R=W – ma
इस दशा में व्यक्ति का आभासी भार उसके वास्तविक भार से कम होगा।
- यदि लिफ्ट नीचे स्वतन्त्रतापूर्वक गिरती तब a=g तथा आभासी भार,
R = W-mg = mg -mg = 0
यह दशा ही भारहीनता की अभिधारणा है।
घर्षण
घर्षण का आभास हमें तब होता है, जब हम किसी पथरीले धरातल पर चलते हैं। घर्षण हमारे लिए बहुत आवश्यक है क्योंकि इसके बिना चलती हुई कार या रेलगाड़ी या धरातल पर चल रहे वाहन को अचानक ब्रेक लगाकर रोका नहीं जा सकता। हम चल भी नहीं सकते हैं, मोटरकार, स्कूटर आदि वाहन दौड़ाए नहीं जा सकते तथा लकड़ी के गट्ठे में कील भी नहीं ठोकी जा सकती। इस प्रकार घर्षण हमारे जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक है।
घर्षण के प्रकार
घर्षण के तीन प्रकार होते हैं – 1. स्थैतिक घर्षण 2. सर्पी घर्षण 3. लोटनिक घर्षण।
- स्थैतिक घर्षण: यदि कोई लकड़ी का बड़ा गुटका जमीन पर रखा हो और उसे खिसकाने के लिए बल लगाया जाए तो वह नहीं खिसकता। अत: दोनों सतहों के मध्य एक घर्षण बल कार्य करता है। इस घर्षण बल को ही स्थैतिक घर्षण बल कहते हैं। यह स्व-समंदानीय होता है।
- सर्पी घर्षण: जब कोई वस्तु किसी धरातल पर सरकती है तो सरकने वाली वस्तु तथा धरातल को मध्य लगने वाला घर्षण बल सर्पी घर्षण बल कहलाता है।
- लोटनिक घर्षण: जब एक वस्तु दूसरी वस्तु की सतह पर लुढ़कती है तो दो सतहों के बीच लगने वाला घर्षण बल लोटनिक घर्षण बल कहलाता है।
घर्षण बल के उपयोग
- घर्षण बल के कारण ही मनुष्य सीधा खड़ा रहता है।
- यदि सड़कों पर घर्षण न हो तो पहिए फिसलने लगते हैं।
- यदि पट्टे तथा पुली के बीच घर्षण न हो तो पट्टा मोटर के पहिए को नहीं घुमा सकेगा।
- घर्षण बल न होने पर हम कोले के छिलक तथा बरसात में चिकनी सड़क पर फिसल जाते हैं।
घर्षण से हानि
मशीनों में घर्षण के कारण ऊर्जा का अपत्यय होता है और टूट-फूट अधिक होती है।
- दो सतहों के मध्य घर्षण उनके सम्पक क्षेत्रफल पर निर्भर नहीं करता है यह केवल सतहों की प्रकृति व वस्तु के भार पर निर्भर करता है।
- लोटनिक घर्षण का मान सबसे कम और स्थैतिक घर्षण का सबसे अधिक होता है।
- घर्षण कम करने के लिए मशीनों में बाल वियरिंग लगाए जाते हैं, जो सर्पी घर्षण के लोटनिक घर्षण में बदल देते हैं। साथ ही कुछ स्नेहक भी प्रयोग किए जाते हैं।
- घर्षण सदैव सापेक्षिक गति का विरोध करता है।
असन्तुलित तथा सन्तुलित बल
- असन्तुलित बल: जब किसी वस्तु पर दो या दो से अधिक बल जब इस प्रकार लगते है कि वस्तु किसी एक बल की दिशा में गति करने लगती है तो वस्तु पर लगने वाला बल असन्तुलित बल कहलाता है।
- सन्तुलित बल: जब किसी पिण्ड पर एक से अधिक बल कार्य करते हों और उन सभी बलों का परिणामी बल शून्य हो तो वह पिण्ड संतुलित अवस्था में होगा। इस दशा में पिण्ड पर लगने वाले सभी बल संतुलित बल कहलाते हैं।
अभिकेन्द्री तथा अपकेन्द्रीय बल
अभिकेन्द्री बल: जब कोई कण एकसमान चाल v से त्रिज्या r के वृत्तीय मार्ग पर गति करता है तो उस पर अभिकेन्द्री त्वरण लगता है, जिसका परिणाम v2/r होता है, परन्तु त्वरण की दिशा लगातार बदलती रहती है। त्वरण की दिशा सदैव वृत्त के केन्द्र की ओर रहती है। न्यूटन के द्वितीय नियमानुसार, किसी पिण्ड में त्वरण उत्पन्न करने के लिए, त्वरण की दिशा में ही बल लगाना आवश्यक होता है। अत: हम कह सकते हैं कि कण की वृत्तीय मार्ग में गति बनाए रखने के लिए, वृत्त के केन्द्र की ओर एक बल आवश्यक होता है। इसको अभिकेन्द्री बल कहते हैं। यदि वृत्त की परिधि पर गति करने वाले कण का द्रव्यमान m हो तो न्यूटन के द्वितीय नियम से,
बल = द्रव्यमान x त्वरण
अभिकेन्द्री बल = द्रव्यमान × अभिकेन्द्री त्वरण या F = mv2/r
यहां यह बात ध्यान देने योग्य हैं कि यही वह बल है जो कण को वृत्त की परिधि पर बनाए रखने का प्रयास करता है तथा उसे वृत्तीय गति करने के लिए बाध्य करता है। उदाहरण के लिए, यदि हम एक पत्थर के टुकड़े को किसी डोरी के एक सिरे से बांधकर वृत्ताकार मार्ग में घुमाएं तो हमें डोरी को अन्दर की ओर खींचे रखना पड़ता है (अर्थात् डोरी पर निरन्तर अन्दर की ओर एक बल F लगाना पड़ता है)। दूसरे शब्दों में, पत्थर के टुकड़े को डोरी से बांधकर घुमाने पर डोरी में उत्पन्न तनाव ही आवश्यक अभिकेन्द्री बल प्रदान करता है। अब यदि हम डोरी के सिरे को हाथ से छोड़ दें तो टुकड़ा वृत्तीय मार्ग को छोड़कर, वृत्त की स्पर्श रेखा के अनुदिश भाग जाता है। इसका कारण यह है कि डोरी के सिरे को हाथ से छोड़ने पर डोरी में तनाव समाप्त हो जाता है, अतः वृत्तीय मार्ग में गति बनाए रखने के लिए इसे आवश्यक अभिकेन्द्री बल नहीं मिल पाता है। इसलिए पत्थर का टुकड़ा सरल रेखा में चलने लगता है।
इसी प्रकार, सूर्य के चारों ओर ग्रहों की गति तथा ग्रहों के चारों ओर प्राकृतिक व कृत्रिम उपग्रहों की गति के लिए गुरुत्वाकर्षण बल, आवश्यक अभिकेन्द्री बल प्रदान करता है। परमाणु के नाभिक के चारों ओर इलेक्ट्रॉन की वृत्ताकार गति के लिए विद्युत आकर्षण बल, आवश्यक अभिकेन्द्री बल प्रदान करता है। किसी मोड़ पर रेल (अथवा कार या मोटर आदि) के मुड़ते समय पहियों व सड़क के मध्य लगने वाला घर्षण बल, आवश्यक अभिकेन्द्री बल प्रदान करता है।
अपकेन्द्री बल: कभी-कभी जब कोई व्यक्ति घूमते निकाय पर स्थित होता है, तो उसे एक ऐसे बल का अनुभव होता है जो कि वास्तव में कार्य नहीं करता है। चूंकि घूमते निकाय में त्वरण होता है, इसलिए इस प्रकार के बल का अनुभव होता है। घूमते निकाय के त्वरण के कारण प्रेक्षित आभासी बल को ही उपकन्द्री बल कहते हैं। इसकी दिशा अभिकेन्द्री बल ही विपरीत दिशा में होती है।
अपकेन्द्री बल को निम्न उदाहरणों की सहायता से अच्छी तरह समझा जा सकता है:
- यदि कोई व्यक्ति कार में बैठा है और कार अचानक दाई ओर घूम जाए, तो व्यक्ति को बाई ओर एक झटका लगता है। इससे व्यक्ति अपने बाई ओर एक बल लगा हुआ अनुभव करता है, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है। बल्कि होता यह है कि कार तथा व्यक्ति को दाईं ओर घूमने के लिए आवश्यक अभिकेन्द्री बल चाहिए, कार को तो यह बल सड़क व पहियों के बीच घर्षण से प्राप्त हो जाता है, जबकि व्यक्ति को यह प्राप्त नहीं हो पाता। इसलिए व्यक्ति जड़त्व के कारण अपनी पूर्ववत् सीधी दिशा में गति करने की प्रवृत्ति रखता है और इसीलिए कार के मुड़ते ही वह विपरीत दिशा में झटका खाकर ऐसा अनुभव करता है जैसे कि उस पर कोई बल कार्य कर रहा हो, यही अपकेन्द्री बल है। इसी प्रकार घूमते झूले पर खड़ा व्यक्ति यदि झूले की रस्सियों को न पकड़े, तो वह बाहर की ओर को गिर पड़ता है। इसे यह आभास होता है कि उस पर बाहर की ओर कोई बल (अपकेन्द्री बल) कार्य करता है जबकि वास्तव में उस पर कोई बल कार्य नहीं करता।
- यह एक आभासी या छद्म बल है।
- यह बल घूमने वाली वस्तु पर बाहर की ओर लगता है। उसी वस्तु पर वास्तविक अभिकेन्द्री बल भी अन्दर की ओर लगता है।
- वास्तविक अभिकेन्द्री बल को (पृथ्वी पर खड़ा हुआ) व्यक्ति वस्तु पर लगता हुआ देखता है, परन्तु अपकेन्द्री बल को वस्तु के सापेक्ष स्थिर प्रेक्षक ही देख पाता है।
अपकेन्द्रित
यह एक ऐसा यन्त्र है, जिसकी सहायता से हल्के व भारी कणों को पृथक् किया जाता है। इस प्रकार के यन्त्र के उदाहरण अपकेन्द्रित शोषक, क्रीम निकालने की मशीन, अपकन्द्र पम्प आदि हैं।
क्रीम निकालने की मशीन में जब दूध भरकर मशीन को तेजी से घुमाया जाता है, तो क्रीम के कण घूर्णन अक्ष की ओर एकत्रित हो जाते हैं, जबकि दूध के कण बाहर की ओर चले जाते हैं। इसे निम्न प्रकार समझा जा सकता है –
क्रीम के कण दूध के कणों की अपेक्षा हल्के होते हैं। अतः दूध के कणों को घूमने के लिए क्रीम के कणों की अपेक्षा अधिक अभिकेन्द्री बल F=mv2/r की आवश्यकता होती है। चूंकि दूध व क्रीम के कणों को समान बल F लगाकर घुमाया जाता है। अत: समान F व v के लिए r-m के अनुसार, दूध के कण क्रीम के कणों की अपेक्षा अधिक त्रिज्या का वृत्तीय पथ ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार दूध के कण मशीन के बाहरी भाग की ओर तथा क्रीम के कण अक्ष के निकट केन्द्रीय भाग में आ जाते हैं। अत: बर्तन के केन्द्रीय भाग में लगे निकास द्वार से क्रीम तथा बाहरी भाग से दूध निकाल कर अलग कर लिए जाते हैं। दही में से मक्खन भी इसी सिद्धान्त के अनुसार निकलता है। इसी प्रकार अपकेन्द्रित में हम गीले कपड़े को घुमाया जाता है तो पानी के कण बाहर की ओर चले जाते हैं क्योंकि पानी के कण कपड़ों से भारी होते हैं अर्थात् पानी का घनत्व कपड़ों से अधिक होता है। इस प्रकार कपड़े सूख जाते हैं।
सरल मशीन
सरल मशीनें एक ऐसी युक्ति होती है, जो किसी सुविधाजनक बिंदु पर एक बल लगाकर किसी दिशा अथवा कार्य को संपन्न करती हैं। सरल मशीनें कार्य को सरल बना देती है, उत्तोलक, घिरनी या गरारी आदि सरल मशीनों के उदाहरण हैं।
मशीन की दक्षता = मशीन द्वारा किया गया कार्य × 100 / मशीन को दी गयी उर्जा
केवल आदर्श मशीन की क्षमता 100% हो सकती है।
उत्तोलक
उत्तोलक एक सीधी या टेठी, दृढ़ छड़ होती है, जो किसी निश्चित बिंदु के चारों ओर स्वतंत्रतापूर्वक घूम सकती हैं। उत्तोलक में 3 मुख्य बिंदु होते हैं-
- आलम्ब
- आयास
- भार
उत्तोलक के प्रकार
आलम्ब, आयास तथा भार की एक-दूसरे के सापेक्ष स्थितियों के कारण उत्तोलक तीन प्रकार के होते हैं।
उत्तोलक का सिद्धांत = आयास × आयास भुजा = भार × भार भुजा
- प्रथम वर्ग के उत्तोलक: इस वर्ग के उत्तोलकों में आलम्ब F, आयास E तथा भार W के बीच में स्थित होता है।
उदाहरण: झूला, कैंची आदि।
- द्वितीय वर्ग के उत्तोलक: इस वर्ग के उत्तोलकों में W (भार), आलम्ब (F) तथा आयास (E) के बीच स्थित होता है।
उदाहरण: कूड़ा ढोने की गाड़ी आदि।
- तृतीय वर्ग के उत्तोलक: इस वर्ग के उत्तोलकों में आयास E, भार W तथा आलम्ब F के बीच स्थित होता है।
उदाहरण: चिमटा, हाथ आदि।
बल-आघूर्ण
जब किसी पिण्ड पर लगा हुआ कोई बाह्य बल, उस पिण्ड को किसी अक्ष के परित: घुमाने के प्रवृत्ति रखता है तो इस प्रवृत्ति को बल आघूर्ण कहते हैं।
किसी बल का घूर्णन-अक्ष के परितः बल-आघूर्ण बल के परिमाण तथा घूर्णन-अक्ष से बल की क्रिया-रेखा’ की लम्बवत् दूरी के गुणनफल के बराबर होता है।
यदि बल पिण्ड को वामावर्त घुमाने की प्रवृत्ति रखता है तो बल-आघूर्ण धनात्मक कहलाता है, और यदि वह पिण्ड को दक्षिणावर्त घुमाने की प्रवृत्ति रखता है तो बल-आघूर्ण ऋणात्मक कहलाता है। बल-आघूर्ण का मात्रक न्यूटन-मीटर तथा विमीय सूत्र [ML2T2] है।
गुरुत्वाकर्षण और गुरुत्व
गुरुत्वाकर्षण वह आकर्षण बल है, जो प्रत्येक दो वस्तुओं के बीच उनके द्रव्यमान के कारण कार्य करता है।
न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियम
- प्रत्येक वस्तु दूसरी वस्तु को अपनी ओर आकर्षित करती है।
- आकर्षण का बल दोनों वस्तुओं के द्रव्यमानों के गुणनफल के समानुपाती होता है।
- आकर्षण का बल दोनों वस्तुओं के बीच की दूरी के वर्ग का व्युत्क्रमानुपाती होता है।
जहाँ F = आकर्षण का बल, m1 तथा m2 क्रमशः दोनों वस्तुओं के द्रव्यमान है तथा r दोनों वस्तुओं के बीच की दूरी है। G को सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण कहा जाता है। G एक अदिश राशि है। इसका मान 6.67 × 10-11 होता है G का मान सम्पूर्ण ब्रह्मांड में एक-सा होता है।
[latex]F=G\frac { { { M }_{ 1 }M }_{ 2 } }{ { r }^{ 2 } }[/latex]
गुरुत्व: पृथ्वी के आस-पास की वस्तुओं पर पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का बल गुरुत्व कहलाता है। हम इसे वस्तु के भारीपन के रूप में अनुभव करते हैं।
द्रव्यमान तथा भार
- वस्तु का द्रव्यमान उसके अंदर पदार्थ की मात्रा को कहते हैं। वस्तु का भार उस पर लगने वाले गुरुत्व के बल को कहते हैं।
भार = द्रव्यमान x गुरुत्वीय त्वरण = M × g = mg
- यदि वस्तु को बिना काटे-छाटे किसी भी स्थान पर ले जाएं, तो उस का द्रव्यमान समान रहता है, जबकि वस्तु का भार विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न होता है।
- पृथ्वी के केन्द्र पर या पृथ्वी से बहुत दूर वस्तु का भार नगण्य हो जाता है लेकिन उसका द्रव्यमान यथावत रहता है।
- वस्तु का द्रव्यमान साधारण तुला से मापते हैं, परन्तु वस्तु का भार कमानीदार तुला से मापते हैं।
- द्रव्यमान एक अदिश राशि है, जबकि भार सदिश राशि है।
विभिन्न स्थानों पर एक ही वस्तु का भार
- ऊंचाई पर: अधिक ऊंची जगहों पर गुरुत्वाकर्षण त्वरण का मान कम होता है इसलिए वस्तु का भार घट जाता है,
H पर g का मान, gh = g [1-2h/R]
- धरती के अन्दर: किसी खान के अंदर वस्तु का भार घटता है क्योंकि वस्तु को आकर्षित करने वाली पृथ्वी का द्रव्यमान घट जाता है। गहराई d पर g का मान, gd = g[1-d/R]
- पृथ्वी की सतह पर: पृथ्वी की सतह पर विभिन्न स्थानों में एक ही वस्तु का भार भिन्न-भिन्न होता है। इसके दो कारण हैं-
(i). पृथ्वी का विचित्र आकार। पृथ्वी की आकृति के कारण g का मान, ध्रुवों पर अधिक तथा विषुवत रेखा पर सबसे कम होता है।
(ii). पृथ्वी का अपनी धुरी पर घूमना।
- चन्द्रमा पर वस्तु का भार: पृथ्वी पर वस्तु को भार का 1/6
- अन्तरिक्ष में वस्तु का भार: शून्य।
ग्रहों की गति से संबंधित केप्लर के नियम
- प्रत्येक ग्रह सूर्य के चारों ओर दीर्घवृत्ताकार कक्षा में परिक्रमा करता है तथा सूर्य, ग्रह की कक्षा के एक फोकस बिंदु पर स्थित होता है।
- प्रत्येक ग्रह का क्षेत्रीय वेग नियत रहता है। इसका प्रभाव यह होता है कि जब ग्रह सूर्य के लिए निकट होता है तो उसका वेग बढ़ जाता है और जब वह दूर होता है, तो उसका वेग कम हो जाता है।
- सूर्य के चारों ओर ग्रह का चक्र जितने समय में लगाता है, उसे उसका परिक्रमण काल कहते हैं। परिक्रमण काल का वर्ग ग्रह की सूर्य से औसत दूरी के घन के अनुक्रमनुपाती होता है।
T2α r3
इसका प्रभाव यह होता है कि सूर्य से अधिक दूर के ग्रहों के परिक्रमण काल भी अधिक होते हैं। उदाहरण के लिए, निकटतम ग्रह बुध का परिक्रमण काल 88 दिन है। जबकि दूरतम ग्रह प्लूटो का परिक्रमण काल 247.7 वर्ष है। लेकिन प्लूटो की कक्षा पड़ोसी नेपच्यून की कक्षा से ओरवलैप करती है, जिसके कारण वैज्ञानिकों ने प्लूटो से ग्रह का दर्जा छीन लिया है। अब हमारे सौरमण्डल में नौ के बजाय सिर्फ आठ ग्रह रह गए हैं।
आईएयू की बैठक में ऐसा पहली बार हुआ जब वैज्ञानिकों ने औपचारिक परिभाषा तैयार कर यह तय किया कि ब्रह्मांड का कौन-सा पिण्ड ग्रह है और कौन-सा नहीं, इस परिभाषा में यम यानि प्लूटो को शामिल नहीं किया गया है क्योंकि इसकी कक्षा वृत्ताकार नहीं है और वरूण ग्रह की कक्षा से होकर गुजरती है। इस आधार पर प्लूटो खरा नहीं उतर सका इसलिए चन्द्रमा से भी छोटे आकार का होने और पूरी तरह वृत्ताकार कक्षा वाला न होने के कारणं प्लूटो के ग्रह होने का दर्जा छीन लिया गया।
उपग्रह
किसी ग्रह के चारों ओर परिक्रमा करने वाले पिण्ड को उस ग्रह का उपग्रह कहते हैं। उदाहरण के लिए, चन्द्रमा, पृथ्वी का एक प्राकृतिक उपग्रह है। इसके अतिरिक्त मनुष्य ने अनेक कृत्रिम उपग्रह भी आकाश में छोड़े हुए हैं, जो लगातार पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे है।
- उपग्रह की कक्षीय चाल: माना m द्रव्यमान का एक उपग्रह rत्रिज्या के वृत्तीय मार्ग पर Vo वेग से पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा है तो उपग्रह पर –
अभिकेन्द्री बल = गुरुत्वाकर्षण बल।
[latex]\frac { { mu }_{ 0 }^{ 2 } }{ r } =\frac { GMm }{ { r }^{ 2 } }[latex]
(i) उपग्रह की कक्षीय चाल V0, उसकी पृथ्वी तल से ऊंचाई h पर निर्भर करती है। उपग्रह पृथ्वी तल से जितना अधिक दूर होगा, उतनी ही उसकी चाल कम होगी।
- उपग्रह का परिक्रमण काल: उपग्रह अपनी कक्षा में पृथ्वी का 1 चक्कर जितने समय में लगाता है, उसे उसका परिक्रमण काल कहते हैं।
(i) उपग्रह का परिक्रमण काल भी केवल उसकी पृथ्वी तल से ऊंचाई पर निर्भर करता है और उपग्रह जितना अधिक दूर होता है, उतना ही अधिक उसका परिक्रमण काल होता है।
(ii) उपग्रह का परिक्रमण काल उसके द्रव्यमान पर निर्भर नहीं करता है। एक ही त्रिज्या की कक्षा में भिन्न-भिन्न द्रव्यमानों के उपग्रहों की चाल समान होगी।
(iii) उपर्युक्त सभी (1) में यदि g = 9.8 मी. से2 Re = 6.400 ×103 मीटर तथा h = o रखा जाए तो Vo = 7.9 मीटर सेकण्ड1 अर्थात् पृथ्वी तल को अति निकट चक्कर लगाने वाले उपग्रह की कक्षीय चाल लगभग 8 किमी/सेकण्ड होती है।
तुल्यकाली उपग्रह या भू-स्थायी उपग्रह
ऐसा उपग्रह, जो पृथ्वी के अक्ष के लम्बवत् तल में पश्चिम से पूरब की ओर पृथ्वी की परिक्रमा करता है तथा जिसका परिक्रमण काल पृथ्वी के परिक्रमण काल के बराबर होता है, तुल्यकाली उपग्रह कहलाता है।
इस उपग्रह का मुख्य उपयोग संचार मौसम की जानकारी के लिए किया जाता है, अतः ये संचार उपग्रह भी कहलाते हैं।
पयालन वेग: पलायन वेग वह न्यूनतम वेग है, जिससे किसी पिण्ड को पृथ्वी की सतह से ऊपर की ओर फेंके जाने पर वह गुरुत्वतीय क्षेत्र को पार कर जाता है। पृथ्वी पर वापस नहीं आता इसका मान 11.2 किमी./सेकेण्ड है, जो ग्रह जितना बड़ा तथा भारी होगा उसके लिए कक्षीय गति तथा पलायन वेग उतना ही ज्यादा होगा।
गुरुत्व केन्द्र: किसी वस्तु का गुरुत्व केन्द्र, वह बिंदु है, जहाँ वस्तु का समस्त भार कार्य करता है। वस्तु चाहे जिस स्थिति में रखी जाए।
इस निश्चित बिंदु पर सभी बलों के आघूर्णों का बीजीय योग शून्य होता है, वस्तु को चाहे जिस स्थिति में रखा जाए, परिणामी बल सदैव इस निश्चित बिंदु पर ही कार्य करता है।
गुरुत्व केन्द्र की स्थिति: पिण्ड का गुरुत्व केन्द्र तब तक स्थिर रहता है, जब तक उसका आकार नहीं बदलता।
संतुलन के प्रकार
संतुलन तीन प्रकार का होता है-
- स्थायी संतुलन: यदि किसी वस्तु को उसकी संतुलनावस्था से थोड़ा-सा विस्थापित करने के लिए छोड़ने पर यदि वस्तु पुन: अपनी संतुलन की अवस्था प्राप्त कर लेती है तो कहा जाता है कि वस्तु स्थायी संतुलन में है। उदाहरण के लिए चौड़े मुंह पर रखा हुआ शंकु।
- अस्थायी संतुलन: यदि किसी वस्तु को उसकी संतुलनावस्था से थोड़ा-सा विस्थापित करने के लिए छोड़ने पर वह पुनः संतुलन की अवस्था में न आये तो इसे अस्थायी संतुलन कहते हैं, जैसे- शीर्ष पर खड़ा हुआ शंकु।
अस्थायी सन्तुलन
- उदासीन संतुलन: यदि किसी वस्तु को उसकी संतुलन स्थिति में थोड़ा-सा विस्थापित करके छोड़ने पर वह वस्तु अपनी पूर्व अवस्था में आने का प्रयास न करे, बल्कि अपनी नई स्थिति में ही रहे, तो हम कहते हैं कि वस्तु उदासीन संतुलन में है, जैसे- गोलाकार वस्तुयें, किसी तल पर पड़ा शंकु आदि।